बुधवार, जुलाई 25, 2007

पुर्ची से चावल तक (अंतिम भाग)

विकट रूप धरि
.
फाइनल इक्ज़ाम में लच्छू भाई अपने सूक्ष्म रूप पुर्चियाँ ले कर पहुँच गये. हमारा सेंटर जिस कॉलेज में पड़ा था, वह कॉलेज अपनी सख़्ती के लिये बहुत मशहूर था. खास कर श्री गजेन्द्र सिंह जी के लिये. श्री गजेन्द्र सिंह जी उसी कॉलेज में अध्यापक थे और अपनी सख़्ती के लिये पूरे शहर में जाने जाते थे और इसी सख़्ती के चलते लोग उन्हें चट्टान सिंह कहते थे. अगर गजेन्द्र जी ने किसी को नकल करते धर लिया, तो भैया समझो कि वो तो गया काम से. पहले तो गजेन्द्र सिंह कॉपी में पुर्ची नत्थी करके बालक को रेस्टीकेट करते और फिर मार मार कर बालक का मलीदा बना देते. बहुत बेरहमी से मारते थे भाई!
.
ख़ैर, लच्छू इतना पारंगत और आत्मविश्वासी टाइप का बालक था कि उसे पूरा भरोसा था कि चट्टान सिंह जी भी उसे धर ना पायेंगे. विधि को कदाचित कुछ और ही मंज़ूर था. एक दिन पेपर मिलने के बाद जब लच्छू ने अपनी कॉलर के नीचे उंगली घुसेड़ कर विषय सूची निकालनी चाहिये तो पाया कि विषय सूची तो नदारत थी. बेचारा घबरा गया और इधर उधर ताक तूक कर अपनी सूक्ष्म रूप विषय सूची ढ़ूंढ़ने लगा. मारे घबराहट के कभी कुर्सी के नीचे देखे तो कभी डेस्क के नीचे. उसका यह हिलना डुलना चट्टान सिंह जी को रास नहीं आया और वो पास आकर लच्छू से बोले,” क्या नाम है तुम्हारा?”
.
चट्टान सिंह जी को देखते ही लच्छू की तो बोलती बंद हो गयी. जस तस बोला,” जी.. लच्छू...जी..लछमी परसाद...”
.
चट्टान सिंह गब्बर के अंदाज़ में पूछे,” क्या ढ़ूंढ़ रहे हो?”
.
अब लच्छू क्या बोलते. हकला कर रह गये,” जी कुच्छौ नहीं...कुच्छौ तो नहीं...”
.
चट्टान सिंह जी दहाड़े,” खड़े हो जाओ !”
.
लच्छू खड़े!
.
चट्टान सिंह जी ने लच्छू को एक ऐसा झन्नाटेदार कंटाप रसीदा कि थप्पड़ की गूंज पूरे शहर में सुनाई पड़ी होगी. लच्छू घबराये,” हमसे का गलती हो गयी गुरू जी?”
.
चट्टान सिंह जी ने कथा वाचन शुरू किया,” निकालो, कमीज की तुरपाई के अंदर से ‘गति के समीकरण’, कमीज की दाहिनी आस्तीन के पहले फोलड से ‘आपेक्षित घनत्व’, दूसरे फोल्ड से ‘परावर्तन के नियम’....”
.
विकट रूप धर गुरू जी बोलते रहे और सूक्ष्म रूप धारे लच्छू का, पुर्ची निकालते निकालते, चीर हरण होता रहा और हम सब बेबस पाण्डवों की तरह यह विचलित करने वाला दृश्य, सीने पर पत्थर रख कर देखते रहे. जब विषय सूची यह बखान करने लगी कि अमुख अमुख पुर्चियों के अज्ञातवास का स्थान लच्छू की चढ़्ढ़ी के अंदर है तो हमने भी मार्मिक दृश्य देखना बंद किया और कॉपी में सिर घुसेड़ कर अपने जवाब लिखने लगे.
.
बेचारा लच्छू.
.
ये तो कहिये कि लच्छू के बाऊ जी ने एक बार चट्टान सिंह जी का कोई काम बिना सुविधा शुल्क लिये ही करवा दिया था, जिसके चलते लच्छू रस्टीकेट होने से तो बच गये लेकिन चट्टान सिंह जी के कोप से ना बच पाये. बेचारा लच्छू इतनी बुरी तरह पिटा कि शाम को साइकिल चलाने लायक भी ना रहा. ये तो भला हो राजेश बाबू का, जो कि बचपन से ही दूसरों की मदद करते आये हैं, कि उन्होंने लच्छू को अपनी सायकिल के डंडे की सवारी करवाते हुये उसे घर छोड़ा. सारे रास्ते बेचारा कराह रहा था – हाय मार डाला – चट्टान तू चूरन बन जाये – ना जाने क्या क्या बद-दुआयें दे रहा था.
.
उसकी पीड़ा देख कर राजेश बाबू द्रवित होते हुये बोल दिये,” लच्छू, तुम चिंता मत करो! कल सुबह हम तुमको सायकिल पर बैठा कर सेंटर ले भी जायेंगे और वापसी में छोड़ भी देंगे.”
.
दूसरे दिन लच्छू को बैठाने के लिये राजेश बाबू ने सायकिल के कैरियर पर गद्दी-वद्दी भी बाँध दी ताकि लच्छू आराम से बैठ कर जा सके. रास्ते में हमने देखा कि कैरियर पर बैठे हुये लच्छू भैया, आराम से सूक्ष्म रूप पुर्चियों को अज्ञातवास देने में लगे हुये हैं. मैं ने कहा,” अबे तुमको डर नहीं लगता है क्या! कल पकड़े गये, रस्टीकेट होते होते बचे, जम कर तुड़ैया हुयी तुम्हारी और आज फिर पुर्ची ले कर चल पड़े. पगला गये हो क्या?”
.
लच्छू चिड़चिड़ा कर बोला,” अबे अकल से पैदल हो क्या ? हैं ?! कल ही पकड़ा गया हूँ और कस कर लात जूते भी खये हैं, तो लोग तो यही सोचेंगे ना कि मैं डर के मारे आज ‘साफ़-सुथरा’ आया होऊँगा, और मैं सबको चकमा दे कर अपना काम कर निकलूँगा.”
.
खैर, पेपर बंटते ही चट्टान सिंह जी फिर से कमरे में आये और लच्छू की सीट के चारों ओर दो बार परिक्रमा करते हुये बोले,” लछमी परसाद...”
.
”जी मास्साब !” लच्छू बिना घबराहट और हकलाहट के बोला.
.
”आज भी कुछ खर्रा-वर्रा लाये हो क्या?”
.
”नहीं गुरू जी, कल की मार के बाद कौन ऐसा बावला होवेगा जो फिर से खर्रा लाने की हिम्मत करेगा. अब तो मैं सारी ज़िंदगी खर्रे ना लिखूँगा गुरूजी. आपने मुझे सच्चाई का रास्त दिखा दिया है – उसी पर चलूँगा.”
.
चट्टान सिंह जी प्रसन्न हुये और लच्छू के सिर पर हाथ फेर कर उसे आशीष देते हुये कमरे से बाहर जाने लगे. दरवाजे पर पहुंच कर चट्टान सिंह जी ने ‘रियलाइज़’ किया कि लच्छू के बालों से कोई चीज़ उनकी उंगलियों में फंस गयी है. चट्टान सिंह जी ने फंसी चीज को देखते हुये बोलना शुरू किया,” बायें मोजे में – ‘बालक शब्द का रूप’, कॉलर के नीचे ‘फल शब्द का रूप’, चढ़ढ़ी के अंदर ‘दीर्घ संधि’, सैंडिल के नीचे ‘मारीच उवाच का हिन्दी अनुवाद’.....”
.
फिर बेचारे लच्छू की जो हालत हुयी उसे अगर यहाँ बता दिया तो मानव अधिकार संरक्षक पक्के तौर पर चट्टान सिंह जी को काला पानी की सजा करवा देंगे. इतना बता देता हूँ कि बेचारा कैरियर की सवारी करने लायक भी ना रहा और शाम को हमने उसे जस तस रिक्शे के पावदान पर ठेल कर उसे उसके घर कूरियर कर दिया.
.
चलिये, इतनी रुकावटों के बावजूद लच्छू भैया ने गुड सेकंड क्लास में हाई स्कूल निपटा दिया. केवल 12 नम्बरों से उसकी फ़र्स्ट क्लास रुक गयी. कभी कभार बेचारा दुखी हो जाता और दिल भर आता तो सेंटी हो कर बोलता कि अगर चट्टान सिंह जी थोड़ा कोओपरेट किये होते तो मैं भी फ़र्स्ट क्लास में हाई स्कूल निकालता.
.
इंटर करते हुये जब अधिकतर लड़के आई.आई.टी., रुढ़की, बिट्स मेसरा, एस.सी.आर.ए., धनबाद या टी.एस.’राजेन्द्र’ की प्रतियोगात्मक परीक्षाओं के फार्म भर रहे थे तो लच्छू जी ने आकर सवाल उठाया,” ये सब क्या भर रहे हो?”
.
जब हमने एक्सप्लेन किया तो लच्छू बोले,” ये सब पढाई करके और नौकरी करके क्या उखाड़ लोगे? क्या 1200 – 1500 की प्राइवेट नौकरी करके आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो पाओगे? नौकरी तो ऐसी होनी चाहिये जिसमें आपको सैलरी के लिये सरकार का मुँह ना ताकना पड़े. आप खुद ही पैसे खड़े कर लें.”
.
हमने पूछा,” जैसे....?”
.
” जैसे भाई जल निगम, सिंचाई विभाग, नगर निगम, पी. डब्लू. डी. और हाँ, यहाँ भी इंजीनियर बनने में कोई फायदा नहीं है इसलिये मैं तो पालीटेक्निक का फार्म भरूंगा और ओवरसियर बनूँगा. आत्मनिर्भरता ही मेरा नारा है.”
.
खैर, इंटर के बाद ज्यादा तर लड़के अपने अपने रास्ते चले गये और लच्छू से उसके बाद कोई संपर्क नहीं रहा. उसकी आत्मनिर्भरता की बातें अकसर याद आती रहतीं.
.
पिछले माह मुंबई जाना हुआ. फ़ोर्ट स्थित सिटी बैंक के ए.टी.एम. से पैसे निकाल कर निकला तो एक खोमचे पर नज़र पड़ी – ‘चावल के दाने पर नाम लिखवाइये’. खोमचे पर पहुँच कर मैं ने कहा,” भाई, मेरा भी नाम लिखना ‘अनुराग’.” जब कारीगर पर नज़र पड़ी तो चेहरा जाना पहचाना लगा मैं ने तुक्का लगाया,” लच्छू?”
.
थोड़ी देर मुझे देखते रहने के बाद लच्छू भी पहचान गया और बोला,” देखो, बचपन में उल्टी निब से छोटा छोटा लिखने का जो गुर सीखा था वो आज कैसे मेरी जीविका बन गया है. अपनी शर्त पर रहते हैं, जब मन आया खोमचा लगाया और जब मन आया उठाया – पूर्णतया आत्मनिर्भर. लाइफ़ हो तो ऐसी.”
.
और इस बार भी मैं लच्छू के आत्मनिर्भरता के विचारों के सामने नतमस्तक हुये बिना ना रह पाया.

गुरुवार, जुलाई 19, 2007

पुर्ची से चावल तक (प्रथम भाग)

सूक्ष्म रूप धरि
.


आत्मनिर्भरता पर विश्वास रखने वाले भारतीयों पर यदि शोध किया जाये जो मेरे बचपन के मित्र लक्ष्मी प्रसाद का नाम उस शोध पत्र में शायद सबसे ऊपर आयेगा.
.
लक्ष्मी प्रसाद मेरे साथ हाई स्कूल में पढ़ता था. अगर हम ‘आधुनिक’ दौर के किसी अंग्रेजी माध्यम स्कूल में पढ़ रहे होते तो शायद लक्ष्मी को प्यार से ‘लक्खी’ कह कर बुलाते. लेकिन पुराने ज़माने के अपने स्कूल में हम उसे लच्छू कह कर बुलाते थे.
.
लक्ष्मी प्रसाद या लच्छू को अपने नाम के अनुरूप, लक्ष्मी मैया का प्रसाद पूर्ण रूप से प्राप्त था. वो ऐसे, कि लच्छू के पिता जी श्री लक्ष्मी नारायण जी हमारे शहर के रजिस्ट्रार ऑफिस में बड़े बाबू थे. सुबह नौ बजे से शाम पाँच बजे तक बड़े बाबू (लच्छू के बाऊ जी) पर धन लक्ष्मी की अविरत वर्षा होती रहती.
.
हमारे एक सहपाठी (और अब हमारे पड़ोसी) राजेश बाबू ने एक दिन ख़ुलासा किया कि लच्छू के बाऊ जी की पैंट शहर में केवल एक ही दर्जी सिल पाता है. हम सबने बड़े अचरज के साथ पूछा कि भैया ऐसा क्या है उनकी पैंट में कि शहर के बाक़ी दर्ज़ी उनकी पैंट ही नहीं सिल पाते हैं? तो उस पर राजेश बाबू ने बताया कि दिन भर बाऊ जी पर घनघोर धनवर्षा होने के कारण शाम तक ऐसी मोटी रकम जमा हो जाती है कि उसको रखने के लिये साधारण दर्ज़ियों द्वारा सिली गयी पैंटॉं की जेबें बहुत छोटी पड़ती हैं और इसी लिये बाऊ जी की विशेष पैंट जिसकी दाहिनी जेब घुटनों तक लम्बी होती हैं, शहर में केवल एक ख़ास दर्ज़ी ही सिल पाता है.
.
राजेश बाबू ने तो उनकी जेबों के नाम भी रखे थे. दाहिनी जेब, जिसमें बाऊ जी दिन भर की मेहनत की कमाई जमा करते थे, उसका नाम था ‘लेना बैंक’ और बाईं जेब जिसमें से निकाल कर पैसे खर्च किये जाते थी उसका नाम था ‘देना बैंक’. राजेश बाबू के अनुसार दोनों जेबों में हाथ डालते समय बाऊ जी के चेहरे पर अलग अलग टाइप के भाव भी आते थे, जैसे कि ‘देना बैंक’ से पैसे निकालते समय उनके चेहरे पर ‘देवानंद’ का भाव दिखता था और ‘लेना बैंक’ में पैसा जमा करते हुये उनके चेहरे पर ‘लेवानंद’ के भाव हुआ करते थे. बाऊ जी को अपनी बाईं जेब से रोकड़ा निकालना बिलकुल भी पसंद नहीं था और उनको इससे जुड़े भाव और उस भाव के नाम ‘देवानंद’ से ऐसी चिढ़ थी कि बाऊ जी ने ताउम्र देवानंद की कोई भी फिल्म नहीं देखी. ऐसी मान्यता है कि बाऊ जी अकसर ये कहा करते थे कि यदि देवानंद के भाई विजय आनंद और चेतन आनंद अपना नाम बदल कर लेवानंद रख लें तो वो उनकी फ़िल्म कम से कम आठ दस बार अवश्य देखेंगे.
.
लेकिन साहब हमारे मित्र लच्छू की भी दाद देनी पड़ेगी, ऐसे संपन्न और आर्थिक रूप से सुदृढ़ परिवार में लालन पालन होने के बावजूद भी वह समाज में अपनी एक अलग पहचान बनाना चाहता था और पिता की छत्र छाया से दूर आर्थिक, वैचारिक और शैक्षिक रूप से आत्मनिर्भर होना चाहता था. अपनी इस आत्मनिर्भरता के चिह्न उसने हाई स्कूल से ही दिखाने शुरू कर दिये.
.
जव स्कूल से सारे लड़के खर्चे के लिये घर से ही पैसे माँगते थे, लच्छू अपने पैसे खुद कमाता था. स्कूल खुलने पर जब बाऊ जी नयी कॉपी-किताबें खरीदने के लिये लच्छू को पैसे देते तो वह नयी की जगह पुरानी किताबें खरीद लेता और बचे हुये पैसों से अपना दैनिक निर्वाह करता.
.
हर शुक्रवार को हाजिरी के रजिस्टर में लच्छू के नाम के आगे मास्साब अपनी लाल पेन से, बिना उसका नाम बुलाये ही ‘अ’ यानि कि अनुपस्थित लिख दिया करते थे. वो बात असल में ये थी कि आर्थिक आत्मनिर्भरता प्राप्त करने हेतु हर शुक्रवार को, जब शहर के टॉकीज में नयी फ़िल्में रिलीज होती थीं तो लच्छू स्कूल से ‘अ’ होकर लालजी चित्र मंदिर, राजकमल चित्र मंदिर या उत्तम टॉलीज में ‘उ’ यानि कि उपस्थित होकर सिनेमा के टिकटों का ‘पाँच का दस – पाँच का दस’ करते हुये अपने दैनिक व्यय का प्रबंध कर रहे होते थे.
.
वो भी क्या दिन थे साहब, जब सिनेमा की टिकटें ब्लैक में बिका करती थीं. बीबी पर एक्सट्रा इंप्रेशन डालते हुये लोग कैसे सीना फुला कर बोलते थे कि प्रिये मैंने तुम्हारे लिये ब्लैक में टिकट खरीदे हैं. पिछली लाइन के हैं – ठीक पंखे के नीचे के. आजकल ऐसा बोल कर देखिये, प्रिये तो प्रेत बन कर आप के ऊपर झपटती हुयी बोलेंगी कि मूढ़ हो जो ब्लैक में खरीदा है, ऑन लाइन बुक करवा लेते तो पैसे बचते ना! कसम से इस मल्टीप्लेक्स कल्चर ने तो सिनेमा से रोमांस ही उड़ा दिया है.
.
खैर, तो इस प्रकार लच्छू ने हाई स्कूल से ही आत्मनिर्भरता का रास्ता पकड़ लिया था. यह आत्मनिर्भरता मात्र आर्थिक मामलों तक ही सीमित नहीं थी. शैक्षिक रूप से भी लच्छू ने, स्कूल के मास्साब या ट्यूशनों से दूर, प्रथम श्रेणी प्राप्त करने के लिये अपने ही प्रबंध किये थे. किसी भी महान व्यक्ति की तरह लच्छू को विद्यालय के औपचारिक और घुटन भरे वातावरण से उतनी ही चिढ़ थी जितनी कि समाजवादियों को संपन्नता से होती है.
.
इधर ब्लैक बोर्ड पर मास्साब चाहे जो भी पढ़ा रहे हों, पंखे के नीचे वाली डेस्क पर बैठ कर लच्छू आगामी परीक्षा के लिये खर्रे या पुर्चियाँ बना रहा होता था. एक बार हमने पूछा कि गुरू लच्छू इम्तहान तो अभी बहुत दूर हैं तुम अभी से खर्रे बनाने में लगे हो! तो लच्छू ने हम कमअक्लों को चुप कराते हुये कहा,” एक ही जादू, कड़ी मेहनत, दूर दृष्टि, पक्का इरादा और अनुशाषन.” हम सब ठहरे मूढ़ तो लच्छू से पूछ बैठे कि भैया ई का मतलब का है? तो लच्छू ने विस्तार से बताया,” मेरे पास ‘दूर दृष्टि’ है जिसके चलते मैं भविष्य में आने वाली आपदा यानि कि परीक्षा नाम के संकट को देख सकता हूं, लेकिन मैं ने ‘पक्का इरादा’ किया है कि मैं ‘अनुशाषित’ रूप से और अभी से ‘कड़ी मेहनत’ करूँगा ताकि इस आपदा को पराजित करके विजयी हो सकूँ – यही ‘एक जादू’ है जो चलेगा. मैं तो स्कूल खुलते ही पुर्चियाँ बनानी शुरू कर देता हूँ, कभी घर चलो तो अपना कलेक्शन दिखाऊँ.” हम सब ने एकमत हो कर लच्छू से कहा कि भैया तुम कांग्रेस पार्टी में भर्ती हो जाओ – भविष्य सुनहरा हो जायेगा (उसका नहीं, कांग्रेस का !). साथ ही हमने उसके घर का रुख भी कर लिया ताकि हम उसका कलेक्शन देख सकें.
.
लच्छू के घर पर हमने उनका खर्रों और पुर्चियों का कलेक्शन देखा जो कि लच्छू ने बहुत ही आर्गेनाइज़्ड तरीके से जूते के पुराने डिब्बों में सहेज कर रखा हुआ था. विषयानुसार हर डिब्बे की कलर कोडिंग थी, जैसे कि विज्ञान का डिब्बा लाल, जीव विज्ञान का पीला – वगैरह वगैरह. डिब्बे के अंदर, हर एक पाठ की पुर्चियों को अलग रखने के लिये लच्छू ने गत्ते के टुकड़े इस्तेमाल किये थे. हमने अचरज से पूछा कि भाई इतने छोटे छोटे पुर्चों में तुमने इतने डीटेल में कैसे लिख मारा? तो लच्छू ने ज्ञान दिया,” यार इतना छोटा छोटा लिखना भी एक कला है. मैं अपनी फाउंटेन पेन का चयन बहुत ध्यानपूर्वक करता हूँ. सबसे महीन चलने वाली पेन खरीदता हूँ और फिर उल्टी निब से लिख कर यह सब खर्रे बनाता हूँ.” हमने तो दाँतों तले उंगली दबा ली और श्रद्धापूर्वक लच्छू के सामने नतमस्तक हो गये. अभी हम नतमस्तक ही थे कि राजेश बाबू ने सवाल दागा,” लच्छू यार, ये सब खर्रे तो तिमाही इंम्तहान में ही यूज़ हो जायेंगे, तो फिर छमाही और फाइनल इम्तहान के लिये क्या फिर से पुर्चे बनाओगे?”
.
हमारी मूढ़ता पर झुंझलाते हुये लच्छू बोला,” अरे नहीं यार! इतनी मेहनत से बनाये हुयी पुर्चियों को मैं वेस्ट नहीं करता हूँ. जब इक्ज़ाम देने जाता हूँ तो इन पुर्चियों को जहाँ तहाँ अपने ऊपर छिपा कर ले जाता हूँ. इक्ज़ाम हॉल में जब पेपर मिल जाता है तब देखता हूँ कि कौन-कौन से सवाल फंसे हैं, फिर थोड़ी देर बाद पेशाब करने के बहाने से टायलेट जाता हूं और जो भी सवाल नहीं फंसे होते हैं, उनके खर्रे वहां रोशनदान के नीचे एक ईंटे के नीचे छिपा आता हूँ. इक्ज़ाम के बाद उसे वहाँ से उठा कर फिर से बक्से में सहेज कर रख लेता हूँ.”
.
इसके बाद लच्छू ने हमको अपनी दूरदर्शिता का ऐसा नमूना दिखाया कि हम तो दंग ही रह गये. उसने हमें सैंडिल के तलुए के आकार में कटे हुये कुछ खर्रे दिखाते हुये कहा,” ये देखो ! ये है मेरा बह्मास्त्र ! इन पर्चों पर वेरी वेरी इंपार्टेंट टाइप के सवालों के जवाब लिखे हैं, जो कि इम्तिहान में जरूर फंसेंगे. ये पुर्चियाँ तिमाही या छमाही इक्ज़ाम के लिये नहीं हैं. इनका इस्तेमाल सिर्फ़ फाइनल इक्ज़ाम में होगा, क्योंकि इनको रि-सायकिल नहीं किया जा सकता.”
.
”रि-सायकिल ? ! मतलब ? ! और भाई ये सैंडिल के तलुए के आकार की क्यों हैं?”
.
लच्छू ने बताया,” जब इक्ज़ाम हॉल में पहुंच जाऊंगा तो इन खर्रों को लेई लगा कर अपनी सैंडिल के नीचे चिपका लूँगा और फिर सीट पर बैठ जाऊँगा। पेपर मिलने के बाद देखूँगा, अगर क्वेश्चन फंसा है तो सैंडिल उतार कर उसे अपनी कॉपी के नीचे छिपा कर जवाब टेंप दूँगा और अगर क्वेश्चन नहीं फंसा है तो सैंडिल को जमीन पर रगड़ रगड़ कर सारे सुबूत मिटा दूंगा।” .

.
लच्छू भैया से हम भी पूछ बैठे,” यार तुम तो पूरी की पूरी किताब को बजरंग बली की तरह सूक्ष्म रूप धारण करवा कर इम्तिहान में ले जाते हो. ये बताओ कि इसे छिपाते कहाँ हो और ये कैसे पता करते हो कि कौन सा चैप्टर कहाँ छिपाया है.”
.
”यार छिपाने की तो बहुत जगह हैं, जैसे कॉलर के नीचे, कमीज के नीचे जो तुरपायी करी जाती है उसके भीतर – बत्ती बना कर. चढ्ढी के अंदर. फुल आस्तीन की कमीज की आस्तीन मोड़ कर हर एक फोल्ड में पुर्चियों की तह लगाता हूँ. रही बात कौन सी पुर्ची कहाँ है तो उसके लिये मैं एक विषय सूची बनाता हूँ और उसी हिसाब से पुर्चियाँ एडजस्ट करता हूँ. जैसे, ‘गति के समीकरण’ – बायें मोजे में, ‘न्यूटन के नियमों का सत्यापन’ – कमीज की तुरपाई में, ‘परावर्तन के नियम’ – चढ़्ढ़ी में. इस विषय सूची को मैं कॉलर के नीचे रखता हूँ और जब पेपर मिल जाता है तो विषय सूची से देख देख कर काम की पुर्चियाँ निकाल लेता हूँ.”
.
मान गये ना ! !

(क्रमशः)

गुरुवार, जुलाई 12, 2007

हम दो, हमारे सौ


पश्चिमी देशों ने भी क्या क्या चोचले बनाये हुये हैं. अब यही देखिये आज विश्व जनसंख्या दिवस है. सुन कर ही बच्चन जी की मधुशाला याद आ गयी;
.
एक बरस में एक बार ही जलती होली की ज्वाला
एक बार ही लगती बाजी जलती दीपों की माला
दुनिया वालों किंतु किसी दिन आ मदिरालय में देखो
दिन को होली रात दीवाली रोज़ मनाती मधुशाला
.
अब जनसंख्या का मुद्दा कोई होली, दीपावली या किसी का बर्थ डे तो है नहीं कि साल में एक ही दिन मनाया जाये। इन मुद्दों पर तो रोज ही सोचना पड़ेगा. पर भैया कौन समझाये इन मानसिक रूप से कंगाल गोरों को, कहते हैं कि साल में एक दिन मनाओ एड्स दिवस, विश्व शांति दिवस, जनसंख्या दिवस और ना जाने क्या क्या !
.
इन कमअक्लों को हमसे कुछ सीख लेनी चाहिये। हमारे लिये तो जीवन एक उत्सव है और हम हर रोज जश्न मनाते हैं. हमें किसी ‘दिवस’ की जरूरत नहीं पड़ती और अगर कोई जश्न किसी दिवस का मोहताज है भी तो हम मधुशाला का रुख करते हुये दिन को होली और रात दीवाली मना लेते हैं, मतलब कि नॉन स्टॉप जश्न 24/7 एन.डी.टी.वी. की तरह.
.
अब यह जनसंख्या को ही ले लीजिये, बताइये क्या हम किसी दिन का इंतज़ार करते हैं ? नहीं भाई बिलकुल नहीं, जब और जहाँ मौका मिला हम जागरूक नागरिकों की तरह जनसंख्या बढ़ाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे ही देते हैं।
.
प्रश्न यह उठता है कि जनसंख्या के प्रति हम देसी इन गोरों से इतने भिन्न और जागरूक क्यों हैं? देखिये, कई बातें हैं जैसे कि हमारा ईश्वर में आस्था रखना, बड़ों की आज्ञा का पालन करना और हमारा अपने देश, समाज और अपने परिवार के प्रति अपना उत्तदायित्व समझना।
.
हम लोग धर्म और ईशवर में अटूट बिश्वास रखते हैं ! रोज सुबह शाम आरती गाते हैं, मंगलवार का व्रत रखते हैं, मंगल और शनिवार को बजरंग बली के मंदिर में सवा किलो बेसन के लड्डू का प्रसाद चढ़ाते हैं, देवी जागरण करवाते हैं, साल में एक या दो यात्रा शिरडी या वैष्णो देवी की करते हैं, तिरुपति में बाल मुडवाते हैं और इन सब का परिणाम यह होता है कि ईश्वर हमारी अटूट श्रद्धा से प्रसन्न हो कर हमको प्रसाद के रूप में नवजात शिशु दे देता है. आखिरकार, बच्चे तो भगवान की देन होते हैं ना !
.
तो भाई जनसंख्या बढ़ाने के पवित्र काम में ईश्वर की भी बड़ी अनुकंपा है.
.
इस पुण्य कर्म में ईश्वर के अतिरिक्त हमारे बड़े – बुजुर्ग भी हमारे साथ हैं। इधर नयी नवेली बहू ने ससुर जी के चरण स्पर्श किये और उधर ससुर जी ने हाथ उठाते हुये आशीष दिया “दूधो नहाओ, पूतों फलो”. इतना सुन कर सासू माँ कैसे पीछे रहें वो भी बहू को आशीष देती हैं “तुम्हारी गोद सदा हरी रहे, ईश्वर तुमको इतने बच्चे दे कि रात को गिन कर सोन पड़े”. अब जब बड़ों की यह इच्छा हो तो भाई नव विवाहित जोड़ी को पालन तो करना ही पड़ेगा !
.
एक और बात है हमारे जागरूक होने की और वह है परिवार और समाज के प्रति हमारा उत्तरदायित्व। इसको समझने के किये मैं एक केस स्टडी नीचे दे रहा हूँ.
.
हमारे घर में चौका-बर्तन करने के लिये सुषमा आती है। सुषमा को कुल मिला कर आठ बार ईश्वर का प्रसाद प्राप्त हुआ है. सबसे बड़ा प्रसाद यानि कि संतान 22 वर्ष की है और सबसे छोटी 22 महीने ही. सुषमा बहुत ही समझदार टाइप की महिला है और उसने बहुत ही सुनियोजित तरीके से अपना परिवार नियोजन या फैमिली प्लानिंग करी हुयी है.
.
उनके हर बच्चे के बीच कोई एक या डेढ़ साल का अंतर है. जैसे ही संतान 16 साल की हुयी, सुषमा उसे चौका-बर्तन के काम पर लगा गेती है, 2 साल बाद उसकी शादी हो जाती है लेकिन तब तक अगली संतान शादी करने वाली संतान को ‘रिलीव’ करने के लिये तैयार हो जाती है. इस प्रकार ‘नॉन स्टॉप’ सप्लाई का चक्र चलता रहता है और सुषमा हर डेढ़ दो साल पर एक नये शिशु को जन्म दे कर यह पक्का कर लेती है कि उसके परिवार आय लगातार बंधी रहे. इसे कहते हैं परिवार नियोजन या फैमिली प्लानिंग !
.
ये तो था सुषमा का पारिवारिक उत्तरदायित्व निभाना. लेकिन उसकी यह प्लानिंग मात्र उसके परिवार तक ही सीमित नहीं है. सुषमा का यह मानना है कि ‘साहिब’ लोगों के घर पर चौका-बर्तन करने वाली सस्ती, मजबूत और टिकाऊ कामवालियाँ लगातार आती रहें, इसके लिये भी वह संतान को जन्म देती है. यह रहा सुषमा का सामाजिक उत्तरदायित्व समझना.
.
इसके अतिरिक्त हम संपूर्ण विश्व के भविष्य के प्रति भी बहुत जागरूक हैं। हम यह बात समझ चुके हैं कि विश्व के बहुत से देशों की जनसंख्या कम हो रही है और बची-खुची जनसंख्या वृद्धावस्था की कगार पर खड़ी है. ऐसे में आज से कुछ साल बाद उनके देश में काम करने के लिये वर्क फ़ोर्स दे सकने वाला एक मात्र हमारा हे देश होगा. हम अपने नागरिकों से उन देशों को सुचारु रूप से चलायेंगे. सारे विश्व में अपने झंडे गाड़ेगे. इससे सारे विश्व का भला होगा साथ ही साथ रेमिटेंस से भेजे गये पैसों से भारत का विदेशी मिद्रा भंडार भी बढ़ेगा. देखा, कैसे देश सेवा और विश्व सेवा एक साथ चलेगी.
.
आप गोरों की इन बचकाना ‘दिवस’ वाली फिलॉसफी पर मत जाइये। साल भर जनसंख्या दिवस मनाइये. विश्व, देश, राष्ट्र, समाज और परिवार के प्रति अपने उत्तरदायित्व को एक सच्चे भारतीय की तरह निभाइये.
.
आइये, जनसंख्या बढ़ाइये!
मेरे साथ नारा लगाइये !!

हम दो, हमारे सौ

बुधवार, जुलाई 11, 2007

आतंकवाद बनाम समाजवाद

.

इस लखनऊ यात्रा के दौरान अपने प्रिय पड़ोसी राजेश बाबू से मुलाकात करने उनके घर पंहुचा. मुझे देख कर बहुत खुश हुये. गले मिले, बैठक में बिठाया, ख़स का ठंडा शर्बत पिलाया और राम नारायण तिवारी के दही बड़े खिलाये. बोले कि रुको, खाना – वाना खा कर जाना. उनका कहा सिर ऑखों पर, हम भी डट गये. दस्तरख़ान बिछा और हमने जम कर कबाब पराठे चेंपे. खना खा कर सोचा कि अब घर जा कर आराम करेंगे लेकिन राजेश बाबू का कुछ और ही कार्यक्रम था, बोले,” गुरू, गाड़ी निकालो और मुझे चारबाग़ (लखनऊ का रेलवे स्टेशन) छोड़ दो, मुझे शाम की लखनऊ मेल से दिल्ली जाना है.”
.
राजेश बाबू का कहा तो मैं टाल ही नहीं सकता, झट-पट गाड़ी निकाली और राजेश बाबू को बैठा कर चल पड़ा चारबाग़. जस तस गाड़ी को पार्किंग में घुसेड़ कर मैं राजेश बाबू को प्लेटफार्म तक छोड़ने के लिये चल पड़ा और स्टेशन के प्रवेश द्वार पर एक नयी चीज़ देखी. प्रवेश द्वार पर एक मेटल डिटेक्टर लगा हुआ था और सारे यात्रियों को उससे होकर गुज़रना था. इतनी भीड़ और रेलम-पेल में, एक बार में सिर्फ़ एक ही यात्री के घुस पाने से ख़ासी भीड़ जमा हो गयी थी, जिसके चलते सुरक्षा कर्मियों पर भीड़ को काबू में रखने का और जमा भीड़ को फटाफट स्टेशन के अंदर भेजने का दबाव बढ़ रहा था. सुरक्षा कर्मी मेटल डिटेक्टर के पास खड़े हो कर हर यात्री पर जोर जोर से चिल्ला रहे थे – जल्दी चलो जल्दी चलो! जो भी मेटल डिटेक्टर से घुसता, मेटल डिटेक्टर ‘टूं टूं’ करके आवाज़ जरूर करता लेकिन सुरक्षा कर्मी इतने दबाव में थे कि किसी को भी रोक कर तलाशी नहीं ले पा रहे थे. तो भाई मेटल डिटेक्टर टूं टूं करता रहा और लोग उसके अंदर से जाते रहे.
.
हमने भी मेटल डिटेक्टर पार किया. पार करते ही राजेश बाबू मुस्कियाते हुये और बड़े ही गर्व के साथ मुझसे बोले,” देखा, कितनी टाइट सेक्योरिटी है!”
.
”क्या ख़ाक सेक्योरिटी है!” मैं ने झुंझलाते हुये कहा,” डिटेक्टर टूं टूं बज रहा है और लोग घुसे जा रहे हैं. फ़ायदा क्या हो रहा है? केवल खुद को धोखा देने वाली बात है.”
.
राजेश बाबू ‘फील’ कर गये,” अबे तुम एन.आर.आई. लोग ना, अपने आप को बस विदेशी ही समझते हो. भारत की हर तरक्की में कुछ ना कुछ मीन-मेख ज़रूर निकालते हो. अरे भाई अब धीरे धीरे शुरू हुआ है. अगली पंच वर्षीय योजना में समान की जाँच का प्रावधान भी हो जायेगा. तरक्की में थोड़ा समय तो लगेगा. थोड़ा सकारात्मक सोचा करो, हमेशा रोते मत रहा करो. हाँ नहीं तो.”
.
कुछ ही दिनों पहले अफ़लातून जी से फोन पर बात हुयी थी और उनके समाजवादी लेखों का असर था कि मैं ने तुरंत ही एक सकारात्मक बात कह दी,” राजेश बाबू, सेक्योरिटी के विषय में तो कुछ ना कह पाऊंगा, हाँ लेकिन एक बात अवश्य है कि बढ़ते हुये आतंकवाद के चलते, पूंजीवाद के पथ पर अग्रसर भारत में समाजवाद अवश्य आने लगा है.”
.
राजेश बाबू चौंक कर बोले,” आतंकवाद? समाजवाद? तुम कहना क्या चाहते हो? आतंकवादी समाजवादी होते हैं या समाजवादी आतंकवादी होते हैं?”
.
राजेश बाबू के इस निष्कर्ष पर मैं भी चौंकते हुये बोला,” अरे नहीं राजेश बाबू. मेरे कहने का अभिप्राय यह तो कदापि भी नहीं था कि समाजवादी ही आतंकवादी या आतंकवादी ही समाजवादी होते हैं.”
.
”फिर....?” राजेश बाबू ने भंवें चढ़ाते हुये पूछा.
.
मैं ने कहा,” देखिये राजेश बाबू, जब भारत समाजवाद की बातें करता था उस समय वह दिल से पूंजीवादी था. मतलब यह कि वह केवल पूंजीवादियों के हित की सोचता था. यह सब सुरक्षा वगैरह मात्र हवाई यात्रियों को ही उपलब्ध थी. हवाई अड्डों पर सुरक्षा के कड़े प्रबंध थे. हर यात्री की तलाशी ली जाती थी ताकि अमीर और पूंजीवादी लोगों का जीवन सुरक्षित रहे. क्या आपने उस समय रेलवे स्टेशन पर सुरक्षा प्रबंध देखे थे? क्या तब की समाजवादी दृष्टिकोंण रखने वाली भारत सरकार ने आम आदमी की सुरक्षा की बात सोची? यह सब तो तब शुरू हुआ जब देश में आतंकवाद बढ़ने लगा. यह समाजवाद आतंकवाद की ही देन है. अब देखिये हवाई यात्री हों या ट्रेन यात्री सबको सुरक्षा मिल रही है – सच्चा समाजवाद !”
.
राजेश बाबू सहमत होते हुये बोले,” हाँ यार यह तो है!”
.
”हुम्म..लेकिन आतंकवाद का असर देखिये, कि अब पूंजीवाद में विश्वास करने वाला भारत आम आदमी की सुरक्षा की बातें सोचता है. रेलवे स्टेशन पर सुरक्षा प्रबंध हैं. सरकार को सबकी चिंता है, सरकार सबके हित और सबकी सुरक्षा के विषय में सोचती है. समाज के बारे में सोचती है यानि कि समाजवादी हो रही है.”
.
राजेश बाबू ने लपक कर मुझे गले से लगा लिया. उनकी ऑखों में मैं ने अपने प्रति गर्व के ऑसू देखे. मैं ने सुलगते कोयले में थोड़ी और हवा धौंक दी,” भारत में आये इस समाजवाद के लिये हमें आतंकवाद का बहुत शुक्रिया अदा करना चाहिये. इस समाजवाद को और भी शक्ति मिले इसके लिये हमें अल-कायदा और बिन लादेन की मदद लेनी चाहिये ताकि इस देश में समाजवाद आ सके और इस देश से बिषमतायें और गरीबी सदा के लिये हट सके.”
.
राजेश बाबू अपने भर्राये गले से सिर्फ़ इतना ही कह पाये,” सकारात्मक विचार, समाजवादी विचार, भारत माता की जय, भारत माता की जय, गरीबी हटाओ...” और फिर उन्होंने मुझे गले लगाते हुये पूछा,” तुम्हारे महान विचारों के अनुसार इस देश में मैगी नूडल्स की तरह इंस्टेंट समाजवाद कैसे आ सकता है?”
.
मैं ने राजेश बाबू को ज्ञान देते हुये कहा,” देखिये आतंकवाद और समाजवाद का गहरा रिश्ता तो मैं आपको समझा ही चुका हूँ. समाजवाद की स्थापना के लिये यह आवश्यक है कि हम किसी आतंकवादी गुट का समर्थन प्राप्त करें जैसे कि अल कायदा और उनके प्रमुख बिन लादेन को देश का नेतृत्व सौंप दें. उनका गुट देश की तमाम पूंजीवादी मिलों, कारखानों पर बम गिरा देगा जिसके कारण पूंजीवादी भी कंगाल हो कर मजदूरी करने लगेंगे. साथ ही वह हवाई अपहरण करेगा जिसके डर से पूंजीवादी भी आम आदमी के साथ ट्रेन में सफ़र करेंगे. समाजवाद आयेगा राजेश बाबू समाजवाद ! !”
.
राजेश बाबू बहुत इंप्रेस हुये और बोले,” विचार तो बहुत सकारात्मक और समाजवादी हैं. लेकिन भाई इससे को गरीबी, लूटपाट, अराजकता, भ्रष्टाचार और तमाम सामाजिक कुरीतियाँ पनपेंगी.”
.
मैं ने शांत मन से कहा,” लेकिन समाजवाद तो आयेगा राजेश बाबू! और यह भ्रष्टाचार गरीबी वगैरह तो समाजवाद के ही पर्यायवाची हैं. यही तो पूरे माने में एक सफल समाजवाद के चिह्न हैं. अगर पूर्ण समाजवाद चाहिये तो इनको भी अपनाना पड़ेगा.”
.
राजेश बाबू धन्य हो उठे. छूटती हुयी गाड़ी को लपक कर पकड़ते हुये बोले,” मैं दिल्ली में मैडम से मिलूंगा और उनको तुम्हारी इस विचारधार से अवश्य अवगत करवाऊंगा. हो सकता है कि अगले चुनाव में तुमको टिकट मिल जाये और यह भी हो सकता है कि वो तुमको संयुक्त राष्ट्र में इस विचारधारा हो रखने के लिये भेज दें.”
.
राजेश बाबू ने वापस आकर बताया कि मैडम को मेरे महान विचार बिलकुल “वाहयात” लगे. इस देश में यही प्राब्लम है, प्रतिभा की कोई कद्र ही नहीं है. जब ताजमहल पहचानने के लिये हमें विदेशी चाहिये होते हैं तो बाकी का क्या कहें. मैं भी सोचता हूँ कि अब अपने विचारों को किसी विदेशी से इंडोर्स करवा लूं .
..
एक मिनट मेरा फोन बज रहा है. .
.
“हलो...”
.
”हलो, अनुराग श्रीवस्तव?”
.
”जी, मैं बोल रहा हूं.”
.
”मैं परवेज़ मुशर्रफ़ के घर से ओसामा बिन लादेन बोल रहा हूँ. हमारी पाकिस्तानी सरकार आपको निशान-ए-पाकिस्तान से नवाज़ना चाहती है....”

सोमवार, जुलाई 09, 2007

मांस – मदिरा

.
कोई चार सप्ताह
पहले आधिकारिक कार्यवश वियतनाम जाना पड़ा. मेरे साथ चीनी मूल की एक सहकर्मी भी गयी थीं. हमारी उड़ान सिंगापुर से हनोई तक थी और फिर वहाँ से हमें कार द्वारा हाई फाँग जाना था.
.
हनोई से हाई फाँग की दूरी कोई 150 किलोमीटर है और कार द्वारा करीब तीन घंटे लग जाते हैं. वितयतनाम में हमारी एजेंट हमें लेने के लिये हनोई पहुंच गई थीं और फिर उनके साथ ही हमने हनोई से हाई फाँग तक का सफर तय किया.
.
भारत में जो कार यात्रायें करी थीं वो सब पुनः जीवंत हो उठीं. सड़क के दोनो ओर हरे भरे खेत, छोटे छोटे गाँव, हाई-वे के किनारे चाय की दुकानें, मुझे तो ऐसा लगा कि भारत में ही यात्रा हो रही है. मेरी सहकर्मी काफी देर तक खिड़की से बाहर देखने के बाद कहा,”अनुराग, तुम्हें आश्चर्य नहीं हो रहा है?”
.
”कैसा आश्चर्य?”
.
”इतने सुंदर से घर बने हैं, सामने से तो बहुत अच्छी पुताई करी गयी है, सजाया गया है लेकिन बगल की दीवारों पर प्लास्टर भी नहीं किया गया है.”
.
यकीन मानिये मैं ने तो इस पर ध्यान भी नहीं दिया था. भारत में घूमते हुये मेरी आँखें इस प्रकार के घर (सामने से लिपे पुते लेकिन बगल की दीवारें बिना प्लास्टर के) देखने की इतनी अभ्यस्त हो चुकी हैं कि इस पर आश्चर्य होने का कोई प्रश्न ही नहीं था. तो मैं ने कहा,” नहीं कोई आश्चर्य नहीं हो रहा है! बहुत से देशों में ऐसे घर देखेने को मिलते हैं.”
.
”इंडिया में भी...?”
.
”हाँ, इंडिया में भी.” मैं ने बताया.
.
”अब मुझे यह आश्चर्य नहीं हो रहा है कि तुम्हें आश्चर्य क्यों नहीं हो रहा है!”
.
थोड़ी देर के बाद उन्होंने खिड़की बाहर उंगली से इशारा करते हुये फिर पूछा,” यह देख कर भी आश्चर्य नहीं हो रहा है?”
.
मैं ने बाहर देखा कि उनका इशारा एक ही मोटर साइकिल पर जाते हुये तीन सवारों की ओर था. मैं ने सिर हिलाते हुये कहा,” कोई आश्चर्य नहीं! मैं ने तो एक ही स्कूटर पर पाँच लोगों का पूरा परिवार यात्रा करते देखा है, यह तो कई देशों में बहुत सामान्य सी बात है.”
.
मेरे किसी भी बात पर अचंभित ना होने से लगता है कि उसे बहुत अचंभा हुआ. खैर, थोड़ी देर बाद जब हम एक छोटे से शहर से गुज़र रहे थे तो वहाँ मैं ने ऐसा कुछ देखा कि मैं ने कहा,” अब मैं भी अचंभित हूँ ...!”
.
”क्या देखा तुमने?”
.
मैं ने उंगली से इशारा करते हुये कहा,” वो देखो सामने...आश्चर्यजनक!”
.
उसने जो देखा तो उसके मुँह से भी निकला,” हे भगवान! अद्भुत!!” सामने एक महाशय स्कूटर की पिछली सीट पर मरा हुआ भैंसा लाद कर लिये जा रहे थे. (विश्वास नहीं होता है ना!) फिर कई ऐसे दृश्य दिखे, मसलन स्कूटर पर लदे हुये पाँच या छः मरे हुये सुअर और सबसे मजेदार था एक महाशय का स्कूटर पर बड़ा वाला फ्रिज लाद कर जाते हुए दिखना.
.
इन मजेदार दृश्यों को देखते हुये हम पहुँचे हाई फाँग. होटल में चेक इन करते हुये हमने अपने वियतनामी एजेंट से पूछा,” तुम भूखी होगी, तो क्यों ना हम कॉफी शॉप में कुछ खा लें.”




.
.
उसने कहा कि हम कमरों में अपना सामान रखते हैं और फिर बाहर चल कर वियतनामी खाना खाते हैं. सामान रख कर हमारा वापस मिले और टहलते हुये एक वियतनामी रेस्टोरेंट में जा पहुँचे. मुझे ज़्यादा भूख नहीं लगी थी इसलिये मैं ने एक सलाद मंगवा लिया. क्रंची सलाद में कुछ चीज़ें तो जानी पहचानी लगीं जैसे तुलसी की पत्तियाँ, लट्यूश वगैरह लेकिन एक गुलाबी सी क्रंची और क्रिस्पी चीज जो पतली पतली पट्टियों में कटी थी और जिसे मैं ढ़ूंढ़ कर बड़े चाव से खा तो रहा था लेकिन समझ नहीं पा रहा था कि यह है क्या! खैर मैंने सारा सलाद चट करने के बाद अपने वियतनामी एजेंट से पूछा कि मोहतरमा वो गुलाबी वाली स्वादिष्ट चीज क्या थी? उन्होंने मुस्कुरा के पूछा,” तुमको पसंद आई?”
.
”हुम्म, बहुत बढ़िया था!!!”
.
”मुझे मालुम था कि तुमको पसंद आया होगा. मेरे सभी मेहमानों को पसंद आता है और मुझे भी बहुत पसंद है.”
.
मैं ने विनम्रता से कहा,” तुमने मेरे लिये बहुत बढ़िया सलाद पसंद किया. मैं तुम्हारा बहुर शुक्रगुज़ार हूँ. लेकिन वह था क्या?”
.
”सुअर के कान थे. उन्हें कच्चा ही कतर कर सलाद में डाल दिया जाता है. मुझे खुशी हुई कि तुमको पसंद आया. और मंगवाऊँ?”
.
मैं ने अपनी बनावटी मुस्कान बिखेरते हुये कहा,” जी नहीं फिलहाल मुझे भूख नहीं है.”
.
तो यूँ शुरू हुआ मेरा सफरनामा ! कान के कच्चे होना तो सुना था लेकिन सुअर के कच्चे कान चबाना झेल भी लिये.
.
रात को हमारी आधिकारिक बैठक थी तो रात का खाना होटल में ही खाया. आश्चर्य यह हुआ कि होटल के मेन्यू में सभी पकवानों के दाम वियतनामी मुद्रा के स्थान पर अमरीकी डॉलर में लिखे थे.
.
सुबह का नाश्ता भी होटल में ही किया. नाश्ते के समय वियतनामी एजेंट ने बताया कि वियतनाम की सबसे मशहूर डिश है “बीफ़ नूडल्स” और वह नाश्ते में उपलब्ध है. मैं ने घुमा फिरा कर पूछ लिया कि भाई इसमें कच्चा मांस तो नहीं होता है. जब पूरी तसल्ली हो गयी तभी मैं ने नूडल्स खाये जो कि वाकई बहुत उम्दा थे और स्वाद में सिंगापुर में मिलने वाले नूडल्स से काफी अलहदा थे.
.
सुबह की बैठक के बाद, दोपहर का खाना भी होटल में ही खाया. होटल के रेस्टोरेंट में सी फूड का बुफे था और मैं ने सी फूड के प्रति कमजोरी होने के कारण बुफे चुन लिया. उम्मीद यह थी कि मछली, छींगे, केकेड़े या ऑक्टोपस वगौरह खाने में होंगे. लेकिन जब प्लेट ले कर परस रहे थे तो एक डोंगे के पास लिखा देखा “मगरमच्छ”. हम थोड़ा रोमांचित हो गये और एक छोटा सा टुकड़ा उठा लिया – वैसे स्वाद कोई बुरा नहीं था.
. .
मजेदार घटना हुई रात के खाने पर. रात को हमारी कोई आधिकारिक बैठक नहीं थी तो हमने होटल से बाहर जाकर वियतनामी खाना खाने का कर्यक्रम बनाया. हमारी वितयनामी मित्र हमें एक ऐसे रेस्टोरेंट में ले गयीं जहाँ सिर्फ मुर्गे के व्यंजन मिलते थे. हमने खाना मंगवाया और जब खाने का इंतज़ार हो रहा था हमारी वियतनामी एजेंट ने पूछा,” क्या तुम लोग वाइन पीना पसंद करोगे?”
.
”बिलकुल, क्यों नहीं.” फिर मैं ने अपनी सहकर्मी से पूछा,” लाल या सफेद?”
.
वियतनामी जी बोलीं,” यहाँ लाल या सफेद वाला मसला नहीं है. यहाँ पर इससे वाइन का चयन करते हैं कि वाइन में पड़ा क्या है. और मैं आपको आगाह कर दूँ कि यहाँ वाइन में मांस पड़ा रहता है.”
.
” ये तो बहुत रोचक है. वैसे मैं तो चीनी मूल की हूँ और किसी भी प्रकार के मांस से मुझे कोई परहेज नहीं है. मैं हर चीज़ का मांस खा सकती हूँ. हाँ, अनुराग तुम बताओ कि क्या तुम मांस पड़ी वाइन पियोगे?” मेरी चीनी मूल की सहकर्मी ने बड़े आत्मविश्वास से कहा.
.
मैं ने कहा,” देख कर तय करते हैं कि क्या पीना है. क्या हम वाइन की बोतलें देख सकते हैं?” मैं ने पूछा.
.
हाँ, हाँ क्यों नहीं! चलो बार काऊंटर पर चलो वहीं चयन कर लेंगे.” वियतनामी जी ने कहा.
.
बार पर पहुँच कर मैं ने वाइन के जो जार देखे तो चयन करना तो मेरे लिये असम्भव हो गया और मैं ने उनकी फोटो खींच ली। आप भी देखिये;



.






.




वाइन को तेज़ करने के लिये और उसे अलग अलग स्वाद देने के लिये उसमें नाग, छिपकलियाँ, भालू का पंजा और जंगली तीतर डाले गये थे.
.
वियतनामी जी ने पूछा,” अनुराग, कौन सी वाली पीना पसंद करोगे?’
.
मैं ने कहा,” मैं चीनी मूल का नहीं हूँ, मैं भारतीय मूल का हूँ इसलिये मैं तो यह पीने की हिम्मत ना कर पाऊंगा.” अपनी चीनी मूल की मित्र से मैं ने कहा,” तुम चीनी मूल की हो तो मेरे ख़्याल से तुमको ये वाइन पीने से कोई परहेज नहीं होगा.”
.
”अनुराग, मैं चीनी मूल की ज़रूर हूँ लेकिन मेरी पिछली कई पुश्तें सिंगापुर में ही जन्मी और पली हैं. इसलिये मेरा स्वाद और मेरी खाने की प्राथमिकतायें समय के साथ साथ बदल गयी हैं. साँप और छिपकली तो मैं भी ना ले पाऊँगी!”
.
हमने वाइन पीने का मूड बदल दिया और मुर्गा खा कर लौट आये. लेकिन वियतनाम से वापस आते हुये मैं ने साँप और बिच्छू वाली वाइन की एक बोतल जरूर खरीद ली जो अभी भी मेरे पास बंद रखी है. ये देखिये;




.
.
अगर आप लोग कभी सिंगापुर आयें तो मुझे सूचित करिये, वियतनाम की इस विशेष मधुशाला का एक प्याला आपको ज़रूर पेश करूँगा.