बुधवार, जनवरी 24, 2007

इंगलिस इस्कूल - भाग 4

राधे राधे बोलोगे तो कान्हा दौड़े आएंगे..
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लामाट के फार्म बंटने शुरू हो गये. निर्धारित तिथि को ठीक साढ़े आठ बजे जा कर पंक्तिबद्ध हो गये. घिसटते हुये कोई साढ़े बारह बजे काउंटर पर पंहुचे.
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फार्म देने से पहले पूछा गया - बच्चे का नाम, पिता का नाम, पता-ठिकाना फिर रजिस्ट्रेशन हुआ और फार्म देते हुये लिपिक महोदय ने कुछ हिदायतें भी दे डालीं," सुनो, रजिस्ट्रेशन जिस बच्चे के नाम से हुआ है, उसी नाम से बच्चे का फार्म भी जमा होगा - समझे! एक रजिएट्रेशन पर केवल एक ही फार्म मिलेगा - समझ रहे हो! ओरीजिनल फार्म ही जमा होगा, फोटोकापी नहीं - समझे कि नहीं! ये लो फार्म पकड़ो और जो अभी बताया है वह सब ठीक ठीक अपने साहबजी से बता देना - ठीक से समझे तो हो ना!"
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बताइये, हमें नौकर समझ लिया और ऐसे समझा रहा था जैसे हम निपट गंवार हों. पर क्योंकि हमें इंगलिस इस्कूल के कार्य कलाप की अधिक जानकारी नहीं थी और हम मुफ़्त में झगड़ॆ भी नहीं लेना चाहते थे, सो हमने चुप्पे-चाप फर्म लपका और वहाँ से सटक निकले.
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फ़्रांसिस में लाइन तो लम्बी थी लेकिन वहाँ रजिस्ट्रेशन वगैरह जैसी कोई औपचारिकता नहीं थी. दोनों फार्म ले कर हम घर पंहुचे, बीबीजी हो बड़े गर्व से फार्म यूं दिखाये मानो मुन्ने का H1B वीज़ा आ गया हो.
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बीबीजी ने उकसाया,"चलो, फटाफट भर लो और उल्टे पैर जा कर जमा भी कर आओ."
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"अरे, जल्द बाजी ना दिखाओ! एक ही फर्म मिला है, गलत भर गया तो सीधा रिजेक्ट हो जायेगा. मैं राजेश बाबू से पूछता हूँ."
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राजेश बाबू ने घनघोर बढ़िया राय दी," पहले तो इन फार्म की दस बीस फोटो कापी करवा लो - ठीक है. फिर उन फोटोकॉपी पर फार्म भरने की प्रैक्टिस कर लो - ठीक है. जब प्रैक्टिस हो जाये तो फिर ओरीजिनल फार्म भर लेना - ठीक है ना!"
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पड़ोसी हो तो ऐसा. मन किया वहीं पैरों पर लोट जायें पर समयाभाव के कारण ऐसा ना करते हुये हम सीधा फोटोकॉपी करवाने चले गये.
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रात भर फार्म भरने की प्रैक्टिस करी और फिर बाद में मंहगे वाले पारकर के पेन से (जो हमने 180 रुपये में सिर्फ़ इसलिये खरीदा था कि मुन्ने के दाखिले के फार्म भर सकें) फार्म भरे. घड़ी में साढ़े छ: बजे का अलार्म लगाया और सो गये.
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सुबह उठ कर नहाये धोये, पूजा करी, मंदिर गये, भगवानजी की मूर्ति के चरणों के पास 'ड्यूली फिल्ड' फार्म रखे, सच्चे मन से भगवान जी की पूजा करी, सवा किलो प्रसाद की मन्नत माँगी और फिर इस्कूल जा कर फार्म जमा कर दिया.
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पहले लामाट से इंटरव्यू का बुलावा आया, हमारे घर में तो खुशी की लहर दौड़ गये - मतलब कि हमारा फार्म रिजेक्ट नहीं हुआ. रात भर जाग कर प्रैक्टिस करके फार्म भरना सफल रहा! राजेश बाबू की टिप भी बहुत याद आयी.
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हम झटपट "रिट्ज़ स्वीट्स" की दुकान से सवा किलो मोतीचूर के लड्डू लाये और सीधा भगवानजी को प्रसाद चढ़ा दिये. साथ ही पाँच किलो प्रसाद की नयी मनौती भी कर आये.
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अब एक नयी समस्या खड़ी हो गयी! लामाट जैसे इस्कूल में हम अपने खटारा एल एम एल 150 पर कैसे जाते? अरे भाई 'टोयोटा' या 'शेवरले' ना सही कम से कम 'मारुति' की सवारी तो चाहिये ही ना - आखिर इंगलिस मीडियम इस्कूल है.
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ऐसे में केवल अपने पड़ोसी, राजेश बाबू का सहारा नज़र आया. हमने सकुचाते हुये उनसे अपने मन की बात कह दी. बहुत सज्जन इंसान हैं, तुरंत मान गये," ठीक है गुरू, हम अपनी गाड़ी में छोड़ि आवैंगे - फिकर नॉट."
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इंटरव्यू के एक दिन पहले टोनी के पास जा कर टाई में गठ्ठी बंधवाई और इंटरव्यू वाले दिन हमने अपना सूट निकाला, शादी के बाद पहली बार पहन रहे थे. थोड़ी बहुत तोंद वगैरह निकल आने की वजह से कोट के आगे के बटनों ने बंद होने से साफ इंकार कर दिया. कोई बात नहीं, हमने कोट बटन खुले छोड़ दिये, चुस्त कोट के भीतर से हमारी संपन्नता की निशानी (तोंद) बड़ी शान से झाँक रही थी. फिर हमने अपने "नाइकी" के नये वाले जूते चढ़ाये (जो शायद बिल गेट्स या बिल क्लिंटन के लिये बने रहे होंगे) और सेंट-वेंट लगा कर - बाल सेट करके तैयार हो गये.
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बीबीजी ने सबसे भारी वाली बनारसी साड़ी पहनी - मैचिंग पर्स - मैचिंग सैंडल और मुन्ने ने नया वाला बाबा सूट पहना. ऐसा जान पड़ता था कि हम लोग बस किसी की शादी में ही जा रहे हों - सब के सब एक दम स्मार्ट!!
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हम सब ने मंदिर में पूजा करी, अम्मा और बाऊजी के पैर छूकर आशिर्वाद लिया, अम्मा ने मुन्ने को दही चीनी खिलाया और दही से ही मुन्ने का टीका भी किया. शगुन के लिये गेट के पास पानी से भरी एक बाल्टी रखी गयी.
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राजेश बाबू सही समय पर अपनी गाड़ी ले कर आ गये, हम तीनों लोग पीछे ही बैठे जिससे कि देखने वाले यह समझें कि केवल कार ही नहीं हमारे पास ड्राइवर भी है (यह बात राजेश बाबू से भी बता दी और उनको बिलकुल भी फील नहीं हुआ) . रास्ते में राजेश बाबू ने पूछा," यार, तुम लोग वापस कैसे आओगे?"
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इस बारे में तो हमने कुछ सोचा नहीं था इसलिये हम चुप ही रहे. हमारी परेशानी राजेश बाबू तुरंत भांप गये और बोले," ऐसा करना, जब इंटरव्यू खत्म हो जाये तो मुझे फोन कर देना मैं आ कर तुम लोगों को पिक अप कर लूंगा." हमें बड़ी खुशी हुयी और हमने ऑफर तुरंत स्वीकार कर लिया.
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कार से उतार कर राजेश बाबू ऊंचे स्वर में बोले,"मालिक आप लोग काम करिये, जब तक मैं गाड़ी सर्विस करवा कर आता हूं." राजेश बाबू के प्रेम व्यवहार ने तो हमारा दिल ही जीत लिया.
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गाड़ी से उतर कर चले तो कमबख़्त नया जूता ('नाइकी' वाला जो कि शायद बिल गेट्स या बिल क्लिंटन के लिये बना रहा होगा) हमारे पैर काटने लगा. हमने भी हिम्मत नहीं हारी और यदा-कदा एड़ियों को बल उचकते हुये ऑफिस की तरफ बढ़ चले. हमें इस प्रकार उचकता देख, पता नहीं क्यों, कई महिलाएं अपने पल्लू या दुपट्टे में मुंह छिपा कर और पुरुष दूसरी ओर मुंह फेर कर खिलखिला रहे थे – समझ में नहीं आया !
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ऑफिस के बाहर बहुत सारे बच्चे और गिनती में उनसे भी दुगने उनके मम्मी पापा बैठे हुये थे. ‘लास्ट मिनट प्रेपरेशन’ चल रही थी. बच्चे A-B-C-D और 1-2-3-4 और कुछ पोयम वगैरह दोहरा रहे थे. मम्मियां उनके मथ्थे पर गिरते हुये बालों को उंगली से बार बार संवारतीं पर वो फिर गिर जाते. ऐसे में तंग आ कर, एक माताजी ने ‘चुप्पे’ से उंगली में थोड़ी सी थूक लगाई और बालों को उससे गीला कर के बाल सेट कर दिये. जुकाम से ग्रसित एक बच्चे से जब नहीं रहा गया तो उसने अपनी कमीज की आस्तीन से रुमाल का काम लिया, उसकी अम्मा ने देखा तो मारे गुस्से के उसके कान पर ‘चुप्पे’ से नाख़ूनों वाली तेज़ चिकोटी काट ली बेचारे बच्चे के मुंह से एक मरियल सी ‘उई’ निकल कर रह गयी. चुटकी का फ़ायदा यह हुआ, कि अगली बार जब बच्चे को रुमाल की ज़रूरत हुयी तो उसने ‘चुटकी’ के डर से आस्तीन की जगह अपनी अम्माजी की मंहगी वाली ‘टसर सिल्क’ की साड़ी का प्रयोग किया और वह भी ‘चुप्पे’ से.
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पूरे माहौल में तनाव सा था. मैंने सोचा ऐसे में इस्कूल को अम्बुलेंस का इंतजाम जरूर रखना चाहिये, भगवान ना करे लेकिन कहीं घबराहट के मारे किसी को दिल का दौरा पड़ जाये तो तुरंत मदद तो मिल सकेगी.
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लोगों को बारी बारी ऑफिस के अंदर बुलाया जाता और 5-6 मिनट में वह बाहर भी आ जाते. ये इंगलिस इस्कूल वाले भी बहुतै इस्मार्ट होते हैं बस्स 5-6 मिनट में ताड़ लेते हैं कि आपका बच्चा उनके स्टैंडर्ड का है या नहीं – सिर्फ 5-6 मिनट में. और एक हम लोग हैं कि तमाम ‘कॉंफिडेशियल रिपोर्ट’ या ‘अप्रेज़ल रिपोर्ट’ भरने या पढ़ने के बाद भी यह नहीं जान पाते हैं कि अगला ऑफिस में रहने लायक है या नहीं.
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कुछ लोग तो बहुत हंसी खुशी निकल रहे थे – बच्चे को गोदी में उठाये प्यार से पप्पी लेते हुये मानो कि इंडिया कोई क्रिकेट मैच जीत गया हो और कुछ ऐसे निकल रहे थे कि मानो अंदर करण जौहर की फिल्म दिखाई जा रही हो – माने कि फुल ऑफ टेंशन. एक सज्जन तो ‘चुप्पे’ से बच्चे का हाथ ही उमेठे हुये थे और बच्चे की आँखों से मोटे मोटे आँसू टप्प-टप्प गिर रहे थे – हम समझ गये कि लगता है पापाजी ठीक से सवाल का जवाब नहीं दे पाये तो बच्चे तो ही निचोड़े दे रहे हैं. देख कर हमको टेंशन हुआ और हमने अपनी जेब से छोटी वाली डायरी निकाल कर रिवीज़न करना शुरू कर दिया (यह मॉडल पेपर मिसेज डिक्रूज़ ने दिया था) –
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Sar, my name is Anurag.
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Sar, my son is Munna.
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Sar, I go to office everyday.
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Sar, I want my son to study in your esteemed school because ‘Gadar’ film was shot here.
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Sar,…..
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तभी हमारा नाम बुलाया गया. ऐसा लगा कि जल्लाद ने चिल्ला कर कहा हो ‘तुम्हारी फाँसी का वक्त हो गया है, उठो और चलो.....’
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हमारा छोटा सा परिवार गैस चेम्बर की ओर चला, चार कदम का रस्ता चार जीवन से भी लम्बा लगने लगा. गला और होंठ अचानक ही सूख गये. ऐसा लगा कि बैकग्राउंड में इनमें से कोई गाना बज रहा हो “जिया धड़क धड़क - जिया धड़क धड़क - जिया धड़क धड़क जाये” या “ धक धक करने लगा उं उं उं मोरा जिअरा डरने लगा उं उं उं”
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हमने अपनी घबराहट पर काबू रखा और फुल कांफिडेनस के साथ ऑफिस में घुसते ही ‘लाउड और क्लियर’ आवाज़ में बोले,” गुड मार्निंग फ़ॉदर!”
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“Good Morning! Have a seat please. By the way, I’m not a ‘Father’.
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कसम से हमतो बहुत घबरा गये, सूखे गले के साथ अब दिसंबर की ठंड में हमें पसीना भी छूट गया. पर बीबीजी की संगत का असर था सो बात को सम्हालने की कोशिश करी, “Sar, I was thinking because this a ‘convent iskool’, so you are ‘phathar’.”
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अभी तो आसमान से ही गिरे थे, अब खजूर में जा अटके,” This is NOT a 'convent' school, Mr. Srivastava.”
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बिना पूछे हुये ही दो सवाल गलत! हमारी आँखों से आगे अंधेरा छा गया – बोलती बंद. पूरे इंटरव्यू चुप चाप बैठे रहे.
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मुन्ने का इंटरव्यू शुरू हुआ,
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“What’s your name, young man?”
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“Sir, my good name is Munna.”
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“..and what’s your father’s name?”
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“My father’s good name is Shri Anurag Srivastava.”
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“Very Good! Do you know your ABCs?”
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“Yes, ABCDEFGHIJKLMNOPQRSTUVWXYZ”
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“That’s very smart! Now come closer and recognize the animals from this book.”
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इतना कह कर ‘फॉदर’ ने (अब भाई और क्या कह कर बुलायें??) मुन्ने को पास बुलाया और एक किताब से जानवरों की फोटो दिखाने लगे.
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“This is a zebra.”
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“Very good.”
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“This is a giraffe.”
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“Very Good.”
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इतने सारे “Very Good” सुन कर मुन्ना जोश में आ गया और जरूरत से ज्यादा अच्छे जवाब देने लगा.
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“ शेर, यह शेर है, इसे लायन भी कहते हैं.....यह डॉगी है – कुता – डॉग....यह है ‘गोट’ – बकरी – बकरियाँ .....”
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बीबीजी ने साड़ी के पल्लू से आँसू पोछने शुरू कर दिये. मुझे तो यूं लगा कि मुन्ना की सिटी बैंक वाली नौकरी बिना लगे ही छूट गयी और वह बिना अमरीका गये ही वापस इंडिया आ कर मोमफली का खोमचा लगाये बैठा है.
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हमें बताया गया कि परिणाम डाक द्वारा भेजे जायेंगे. मन में तो आया कि कह दें कि भैया रहै दो, अइसनै पता चलि गवा – डाक की का जरूरत है. पर मुंह से आवाज़ ही ना निकली.
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बाहर राजेश बाबू गाड़ी लिये खड़े थे, हमारे चेहरे की मायूसी देख कर मामला समझ गये और बिना पूछ ताछ किये हमको घर लिवा ले गये.
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दो दिन के बाद फ्रांसिस में जाना हुआ. वहाँ भी वैसा ही जाना पहचाना सा माहौल था. इस बार हम बहुत केयरफुल थे सो घुसते ही “गुड मार्निंग फादर” नहीं बोले. बल्कि हमने पूछा,” Sar, good morning! Sar, is this a convent school?”
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“ Good Morning! No this is not a ‘convent’ school. If I may so ask you sir, what may have been the purpose of you asking that marvelous question?”
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“Simple Sar, because if this not ‘convent’ school then you not a Father.”
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“Mr. Srivastava, this may not be a convent school but I am very much a ‘Father’.”
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बीबीजी का सुबक सुबक कर सिस्की लेना हमें साफ सुनाई दे रहा था. हमारा भी दिमाग कुछ ऐसा घूमा कि याद भी नहीं है कि क्या सवाल पूछे गये और हमने क्या जवाब दिये. वहाँ भी बताया गया कि परिणाम डाक से भेजे जायेंगे – भेजो या ना भेजो भैया – मेरी बला से!
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डेढ़ महीने बाद अड़ोस पड़ोस में पार्टियों का शोर सुन कर हम समझ गये कि इस्कूलों के रिजल्ट आने शुरू हो गये. हम भी फाटक पकडे खड़े रहते कि डाकिया आज शायद मुन्ने के दाखिले की चिठ्ठी ले कर आता होगा, लेकिन जब ऐसा नहीं हुआ तो एक दिन बीबीजी ने आकर पूछा,” अब आगे क्या सोचा है?”
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हम उसके कन्धे पर सिर रख कर फफक कर रो पड़े. वह भी बेचारी रो पड़ी. हम दोनो एक दूसरे के गले में हाथ डाल कर झूला झूलते हुये खूब रोये. जब गंगा-यमुना थमीं तो बीबीजी ने पूछा,”कहाँ नाम लिखवाना है?”
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“नाम तो कॉंनवेंट में ही लिखवायेंगे.”
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“सही कह रहे हो, तो फिर चलो मुन्ने को सेंट रैदास कांवेंट में भर्ती करवा आते हैं.”
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अगले दिन हम राधे हलवाई की दुकान यानि सेंट रैदास कांवेंट जा पहुंचे. टेबल पर राधे लाल बैठे थे. जब हम लोगों ने एक दूसरे को देखा तो वो बेचारे थोड़ा झेंप भी गये. मेरे भी मुँह से भी करीब करीब निकल ही गया,” राधे, पाव भर खट्टा दही बाँध दो – कढ़ी वाला.”
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खैर कंट्रोल करके बोले,” बच्चे का नाम लिखवाना है.”
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“अरे, लिखवाना क्या है भाईसाहब, लिख गया! लीजिये फार्म भरिये – फीस जमा करिये और कल से बच्चे को भेजिये अपना भविष्य संवारने के लिये.” ऐसी फीलिंग आई कि जैसे बी एस एन एल का फोन कटवा कर रिलायंस का कनेक्शन ले लिया हो – झटपट काम हुआ लाइक सिटी बैंक – लगा कि बच्चा यहां रह कर फिट फार सिटी बैंक हो जायेगा !
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पता नहीं काहे को, हमारे मुंह से निकल गया," राधे, सॉरी प्रिंसिपल सा'ब, बच्चे की फीस क्या उसका वज़न लेकर तय करेंगे या फिक्स्ड फीस है, मतलब कौनो भी डिब्बा सब मिक्स्ड मिठाई है सब डिब्बे 180 रुपये किलो."
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"वज़न से कौनो मतलब नहीं है - सब बराबर फीस बच्चा मोटा हो या छोटा हो. वजन वाले धंधे में नफा मुनाफा नहीं रहा - यही मारे तो ई धंधवा सुरू किये हैं. निस्चिंत रहैं फीस मार्किट रेट से कमै लगिहै. दूसरे बच्चे का नमवा भी हिंयई लिखवा दैं तो फिसिया में फिप्टी परसेंट आफौ मिलिहै."
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नाम लिखवा कर वापस आ रहे थे तो रास्ते में सैय्यद चचा और चंद्रा अंकल मिले,” क्यों भई कहाँ से आ रहे हो. बच्चे को लामाट या फ्रांसिस में डाल दिये?” उन्हें रिजल्ट का पता नहीं था – डाक से आने का यही तो फायदा है. हमने सिचुएशन संभाल कर कहा,” आप लोग ठीक ही कहते थे, अंग्रेजी इस्कूल वाले ठीक से पढ़ाते नहीं हैं, नींव भी पुख़्ता नहीं करते हैं, बच्चे सिगरेट वगैरह पीने लगते हैं, यह सब सोच कर हमने फैसला किया है कि हम मुन्ने को राधे के देशी सेंट रैदास इस्कूल में पढ़ायेंगे.”
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चचा बोले,” जियो बर्ख़ुरदार जियो!” चन्द्रा अंकल ने भी धीरे से हाथ उठा कर आशीष दिया.
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मोहल्ले भर में बात फैल गयी कि सेलेक्शन हो जाने के बावजूद भी हमने मुन्ने को देशी इस्कूल में ही भर्ती किया, सैय्यद चचा और चंद्रा अंकल की मदद से हमने जस तस लंगोटी से इज्जत ढ़की, नहीं तो आप तो समझ ही सकते हैं ज़ालिम मुहल्ले वालों ने बातें करना शुरू ही कर दिया था - 'बाप मरा अंधियारे में, बेटवा पावर हाउस' और 'बाप ना मारिस मेंढ़की, बेटवा तीरंदाज़' वाली तर्ज़ पर.
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जिन्दगी फिर से ढ़र्रे पर आ गयी. अम्मा-बाऊजी का ‘संस्कार’ और ‘आस्था’ चैनल, बीबीजी का ‘स्टार प्लस’ शुरू हो गया. मेरा बिल गेट्स या बिल क्लिंटन वाला जूता बीबीजी ने बर्तन वाले को दे कर बदले में स्टील के दो ढक्कनदार डोंगे खरीद लिये और मेरा गुटखा चबाना फिर से शुरू हो गया.

और मुन्ना, वह अपने नये इस्कूल, माफ़ करियेगा स्कूल से बहुत खुश है, 15 अगस्त और 26 जनवरी को शुद्ध देशी घी के लड्डू जो बंटते हैं स्कूल में.
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(इति)

सोमवार, जनवरी 22, 2007

इंगलिस इस्कूल - भाग 3

साथी हाथ बढ़ाना !

पूरा कुनबा मुन्ने के दाखिले की तैयारी में लग गया। हमने टाई बांधना सीखा, थोड़ी बहुत अंग्रेजी बोलनी भी सीखी और बीबीजी के दबाव में आ कर गुटखा खाना भी छोड़ दिया। फिर एक दिन हज़रतगंज गये, बाटा की भूरी वाली चप्पल की जगह एक जोड़ी जूता लेने, जब जूतों के भाव देखे तो बिना जूता खरीदे हुये ही घर लौट आये।

घर में घुसते ही बीबीजी ने पूछा,” जूता लाये?”

“अरे! ढ़ाई-ढ़ाई हज़ार रुपये के जूते मिल रहे थे, मेरी हिम्मत नहीं पड़ी! बिना लिये ही चला आया। ढ़ाई हज़ार में तो महीने भर की फल और सब्जी आ जाये और पैसे बच भी जायें, मुझे नहीं खरीदना जूता-वूता, हाँ नहीं तो!“

“तुम भी ना॰॰॰! अरे फल और सब्जी को मारो गोली, जूते ले कर आओ। महीने भर फल और सब्जी की जगह जूते खा लेना। चलो, अभी के अभी जाओ और जूते लेकर आओ।“

मन मार कर हम फिर निकल पड़े अपने मिशन पर। निकलते ही हमारे पड़ोसी राजेश बाबू मिल गये और भंवे उचकाते हुये पूछे,” कहाँ चले भैया?”

“अरे क्या बतायें, जूते लेने जा रहा हूं। ढ़ाई-ढ़ाई हज़ार रुपये के जूते मिल रहे हैं, मेरी तो हिम्मत ही नहीं होती है।“

“सस्ते वाले चाहिये क्या?”

“हाँ, एक ही दिन तो पहनना है। इधर मुन्ने के दाखिले के लिये इस्कूल में इन्टरव्यू खत्म, उधर हमने जूते लपेटे और ऊपर टाड़ पर रखे – फिर तो सीधे मुन्ने की शादी पर ही निकलेंगे !”

“तो फिर बैठो इस्कूटर पर, हम लिवाये लाते हैं।“

राजेश बाबू हमारे बहुत अच्छे पड़ोसी हैं। इस्कूटर पर बैठा कर सीधा लालबाग ले गये। वहाँ की जूता मार्किट देख कर तो भैया, यह समझो कि हम तो बौरा गये – लालबाग के मैदान में तो जूतों का पूरा मेला लगा था। राजेश बाबू अपनी रेगुलर दुकान में ले गये। इतना अच्छा कलेक्सन देख कर हम भी बहुत सिलेक्टिव और चूजी हो गये। दुकानदार से बोल दिया कि भैया हम बेस्टेस्ट क्वालटी का जूता दिखाओ – मतलब कि “नाइकी” वगैरह्।“

दुकानदार ने झटपट डिब्बा खोला और “नाइकी” का जूता पेश किया। ऐसा सुंदर कि देखते ही आँखों को भा गया। उसमें एक पतली सी, सुंदर सी गोल्डन चेन लगी थी – क्या खूबसूरत जूता – बिलकुल दुबई इश्टाइल का। अंदर सफेद रंग से कंपनी का नाम भी लिखा था “NIKI”.

नाम की स्पेलिंग देख कर हमें थोड़ा शक हुआ, सो हमने बिना डरे दुकानदार से पूछ लिया, “भैया, असली “नाइकी” है ना? स्पेलिंग गड़बड़ लग रही है।“

दुकानदार ने हमें कुछ ऐसे देखा कि हमसे बड़ा मूढ़ मानो इस दुनिया में ढ़ूंढ़े से भी ना मिलेगा और फिर बोला,” साहब, हमारे यहाँ चार सौ बीसी वाला काम नहीं होता है। इस मंडी में पचास से ऊपर दुकानें हैं, लेकिन हम अकेले ही है जो ईमानदारी से धंधा कर रहे हैं – बाकी तो सब लूट खसोट कर रहे हैं, साहब। गल्ले पर हाथ रख कर कह रहा हूं, नकली जूता ना कभी बेंचा है ना बेचूंगा, भीख मांग लूंगा पर ग्राहक से दगाबाज़ी॰॰॰॰कभी नहीं, ऊपर वाले को क्या मुंह दिखाऊगा? और आप तो राजेश बाबू के साथ आये हैं, हमारे छोटे भाई जैसे हैं – आपसे गलत बात – ना ना।“ अपनी बात की पुष्टि कराने के लिये वह राजेश बाबू की ओर देखते हुये बोला,” क्यों राजेश बाबू, गलत कह रहा हूं क्या? आप इतने साल से हमारी दुकान पर आ रहे हैं, कभी शिकायत का मौका दिया है आपको?” राजेश बाबू ने सिर हिला कर उसकी ईमानदारी को सत्यापित कर दिया। लेकिन मेरी शंका अभी भी दूर नहीं हुयी थी सो मैं ने दबी आवाज़ में पूछा,” अरे भई वो तो ठीक है लेकिन “नाइकी” की स्पेलिंग॰॰॰?”

दुकानदार ने मेरी शंका का निवारण किया,” देखिये भाई साहब, मैं केवल एक्सपोर्ट रिजेक्ट माल बेंचता हूं। यह पूरा लाट फारेन से इसी लिये वापस आ गया था क्योंकि इसमें “नाइकी” की स्पेलिंग N-I-K-E की जगह N-I-K-I छप गयी थी, नहीं तो साहब, आज बिल क्लिंटन या बिल गेट्स इस जूते को पहन रहे होते। हुआ कुछ यूं कि नाम छापने वाले ब्लाक में “E” की पड़ी डंडियां टूट गयीं तो जो “E” था वह “I” बन गया, यह प्राब्लम सारे जूते छप जाने के बाद पता चली और पूरे का पूरा कन्साइनमेन्ट वापस आ गया। बोहनी के टाइम आपसे झूठ नहीं बोलूंगा – आप बिलकुल इत्मिनान रखिये।“

दुकानदार की सामान्य जानकारी, सत्यता और ईमानदारी से हम बहुत प्रभावित हुये। पूछा,” कित्ते का दोगे?”

“आप तो सब जानते हैं, हज़रतगंज में यही जूता ढ़ाई हज़ार का मिल रहा है, चलिये आप पंद्रह सौ दे दीजिये।“

हम तो तुरंतै पैसा निकाल कर दुकानदार की हथेली पर रखने वाले थे, अरे कोई बावला 2500 का सामान 1500 में बेंचे तो ज्यादा सोच-विचार करके सौदा हाथ से गंवाना नहीं चाहिये। कहीं अगले का मूड बदल गया तो नुकसान तो अपना ही होगा ना। लेकिन राजेश बाबू ने भी जबरदस्त मोल-भाव करके “नाइकी” का वह जूता जो शायद बिल गेट्स या बिल क्लिंटन के लिये बना रहा होगा, मुझे 475 रुपये में दिलवा दिया।

इतना सस्ता!! इतना सस्ता तो शायद कानपुर या आगरा में बना हुआ डुप्लीकेट या नकली जूता भी ना मिलता। चलते चलते दुकानदार भी बोला,” राजेश बाबू, आप के चलते आज घाटे में सौदा करना पड़ा।“

गजब राजेश बाबू, गजब!!

घर आये, शान से बीबीजी को जूता दिखाया। वो भी बहुत इंप्रेस!! दाम सुन कर बोलीं कि तुमने तो दुकानदार को लूट ही लिया!!! और फिर बड़ी सही बात बोलीं कि इन जूतों को ऐसे ही डिब्बों में लपेट कर धर दो नहीं तो गंदे हो जाएंगे – इंटरव्यू वाले दिन निकाल कर पहनना - बिलकुल नये और चमाचम। हम पूछ बैठे," क्या सबसे चमकदार जूते पहनने वाले के बच्चे का दाखिला गारंटीड है का?" बिना हमारे सवाल का जवाब दिये बीबीजी ने हमें कस कर घूरा सो आगे बिना कोई सवाल पूछे हुये हमने जूते सहेज कर धर दिये।

दाखिले की बाकी तैयारियाँ भी चलती रहीं, अम्मा और बाऊजी का ‘संसकार’ और ‘आस्था’ चैनल देखना बंद करवाया और उनको ‘GOD’ चैनल देखने के लिये प्रेरित किया। पर ना, अम्मा और बाऊजी मुन्ने के दाखिले में ज्यादा रुचि नहीं दिखा रहे थे। अम्मा तो "GOD" चैनल लगा कर उसके सामने बैठ कर ऊंघती ही रहती थीं और बाऊजी मजे से बैठ कर अखबार पढ़ते रहते। जब मैं कहता 'अम्मा, बाऊजी टी वी देखिये - इंगलिस इंप्रूव होगी।' तो सिर उठा कर थोड़ी देर टीवी देखते और फिर ऊंघने लगते।

बीबीजी रोज सुबह एक झोले में पाँच छ: ईंटें भर कर मुन्ने के कंधों पर लटका कर मुन्ने को 300 मीटर चलवाती थीं, जिससे मुन्ना इस्कूल के भारी बैग लटकाने के लिये अभ्यस्त हो जाये। शाम को मुन्ना जब बदन दर्द, कमर दर्द और पीठ दर्द की शिकायत करता तो अम्मा कड़ुवे तेल में हल्दी, अजवाइन और ना जाने क्या-क्या डाल कर गर्म करतीं और फिर उससे मुन्ने की मालिश कर देतीं।

मुन्ने के लिये अमीनाबाद से 175 रुपये का नया बाबा सूट खरीदा, साथ में ड्रेस से मैचिंग एक जोड़ी मोजा (नायलान का, जिस पर ‘एक्सपोर्ट कवालटी’ का स्टिकर भी लगा था) भी मुफ़्त मिला। हलांकि मुन्ने, मुझे और बीबीजी को हरे रंग वाली आर्मी वाली ड्रेस बहुत पसंद आई थी – जिसमें फुल पैन्ट, कमीज, आर्मी वाली टोपी, बिल्ले-बैज, नकली पिस्तौल वगैरह भी होती है। उसमें मुन्ना स्मार्ट भी बहुत लगता, गोरा है ना इसलिये उस पर कोई भी रंग फबता है, और इंटरव्यू में भी छा जाता लेकिन वह 225 रुपये की थी सो हमने नहीं ली।

मुन्ने की कोचिंग, अम्मा-बाऊजी का इंगलिस इस्पीकिंग, बीबीजी का ‘स्टार वर्ल्ड’, मेरा टाई लगाना और शरीर की दुर्गंध दूर रखने का अभ्यास जोर शोर से चल रहा था। देखते ही देखते दिन कैसे गुज़र गये कि पता ही ना चला और फिर दोनों इस्कूलों ने दाखिले के लिये फार्म बांटने भी शुरू कर दिये।
( क्रमश: )

शुक्रवार, जनवरी 19, 2007

इंगलिस इस्कूल - भाग 2

प्रिलिमिनरी इंटरव्यू

मिसेज डिक्रूज़ ने कोचिंग में दाखिला लेने से पहले मुन्ने का बाकायदा इंटरव्यू लिया;

“Gud mornin’ young man. How are you?”

“आई ऐम फाइन, थैंक यू” मुन्ने ने बिना उनकी ओर देखे शर्माते हुये और मेज को उंगली से कुरेदते हुये जवाब दिया। हम मियां-बीबी की तो बांझें खिल गयीं। अपना मुन्ना अंग्रेजी में बोला।

“Wotz your naime?”

“Munna”

“Wotz your father’s name?”

“Papa”

“Nou, nou…not ‘phapha’ wotz his naime?”

हमें बड़ी लज्जा आई, बीबीजी ने तुरंत सिचुएशन को संभाला (इंटरव्यू गड़बड़ा जाता तो दाखिला भी ना मिलता) “बेटे आ-ओन्ठी ज़ी खो फाफाज़ी खा नाम भथाइये, फ्लीज़” और फिर मिसेज डिक्रूज़ की ओर मुखातिब होकर बोलीं, “वैसे थो ये इंगलिश भोल लेहता है, अबी शैद थोडा नेरवोस हो रा है, घर पे बी हम इंगलिश ही बोलते हैं, you know how kidz are” यह कह कर उन्होंने कनखियों से मुन्ने को घूरा।

बीबीजी का कांवेन्टिया उच्चारण सुन कर हम तो स्तब्ध रह गये। सच में बेचारी मुन्ने के भविष्य के लिये बड़ी मेहनत कर रही थी। बेचारी ने बहुत सेक्रीफाइस भी किया, “स्टार प्लस” छोड़ कर “स्टार वर्ल्ड” देखना शुरू कर दिया था। भारतीय महिला के लिये “स्टार प्लस” की आहुति दे देना कोई मज़ाक नहीं है। इतनी खूबसूरती के साथ उसने सिचुएशन संभाली कि मेरा हृदय प्रेम और श्रद्धा से द्रवित हो उठा। ईश्वर ऐसी जीवन संगिनी विरलों को ही देता है। धन्य हूं मैं जो मुझे ऐसी पत्नी मिली।

बीबीजी की कनखियों से डर कर मुन्ने ने झट से सही जवाब दिया, “ My phadar’s name ij Guddu.”

“ख्या ये ठीक बथा रा है?” मिसेज डिक्रूज़ ने हमसे पूछा। इसके पहले कि हम कुछ कह पाते, मुन्ना बोला, “ हां, और नहीं तो क्या झूठ बोल रहा हूं? दादी से पूछ लीजिये! वो भी पापा को गुड्डू कहती हैं।“

बीबीजी एक बार फिर देवी का रूप लेकर अवतरित हुयी,” बेठा, फाफा ज़ी का घर का नाम नईं, स्खूल वाला नाम बथाओ॰॰॰ और इंगलिश में!!”

“अच्छा! My phader’s school name in inglis is Anurag.”

“Very Good!” मिसेज डिक्रूज़ ने मुन्ने की तारीफ़ करते हुये पूछा, “ Do you know A B C D?”

मुन्ने ने प्रश्नवाचक दृश्टि से बीबीजी को देखा। बीबीजी ने रेस्क्यू मिशन चालू रखते हुये कहा, “ बेठा ‘ए’ फ़ो ‘ऐपल’, ‘बी’ फ़ा ‘बैयबी’ सुनाइये॰॰॰”

“अच्छा, ‘ए’ फार ‘अप्पल’, ‘बी’ फार ‘बाआल’, ‘सी’ फार ‘काएट’॰॰॰”

“Nau, nau, no not like this Munna, thell me the alphabets only….” मिसेज डिक्रूज़ ने कहा।

“पोयम वाला ‘ए’, ‘बी’, ‘सी’, ‘डी’ सुनाओ॰॰॰” बीबीजी बोलीं।

“ए बी सी डी
ई एफ़ जी
एच आई जे के
एल एम एन ओ पी

एल एम एन ओ पी
क्यू आर एस टी
यू वी डबलू
एक्स वाई ज़ी

नाओ आई नो माई
ए बी सीज़
नेक्सट टाइम
यू टू सिंग विध मी।“

मिसेज डिक्रूज़ बहुतै इंप्रेस हुयीं, तुरंत टेबल का दराज खोला और ‘पारले किस मी’ वाला एक कम्पट मुन्ने को इनाम में देती हुयी बोलीं, “ Gud boy! Now you can go outside and play, Mamma and Phapha’d join you shortly.”

मुन्ने के बाहर जाते ही मिसेज डिक्रूज़ ने कहा, “आपका बच्चा बहुत स्मार्ट और इंटेलिजेन्ट है।“

हम मारे खुशी के ऐसा मुस्कुराये कि मानो किसी ने उस्तरे से हमारे होठों को कान तक चीर दिया हो।

बीबीजी: “जी आप सही कह रही हैं, स्मार्ट तो बहुत है। सात महीने में ही चलना भी शुरू कर दिया था।“

मिसेज डिक्रूज़: “आई सी, लेकिन उसकी इंगलिश पर काफ़ी मेहनत करनी होगी।“

बीबीजी: “वैसे थो मैं घर पर मुन्ने से इंगलिश स्पीकिंग करती हूं, बट सिन्स हम ज्वाइंट फ़ैमिली में रैते हैं, इस वजे से कुछ प्राब्लम्स फ़ेस करनी पड़ती हैं। मेरे इन-लाँज़ आर नाट इंगलिश एडुकेटेड, वो मुन्ने से आलवेज़ हिन्दी में स्पीक करते हैं। वैसे मैंने उनको भी कन्विन्स करके इंगलिश स्पीकिंग कोर्स ज्वाइन करवा दिया है। यू सी आय ऐम ट्राइंग माई बेस्ट“

मिसेज डिक्रूज़: “आई सी! छलिये खोई बात नहीं, पर मेरे हिसाब से तीन महीने की खोचिंग से मुन्ना अप तू द मार्क नहीं आ फायेगा। आई थिंक इसे सिक्स मन्थ खोचिंग करवाइये – दैट इज़ इफ़ यू वान्ट सिरियसली गुड रिज़ल्टस।“

मैं: “जी फीस कितनी पड़ेगी॰॰॰?”

मिसेज डिक्रूज़: “सिक्स मन्थ खोचिंग – थर्टी थाउज़ेन्ड!”

बीबीजी: “जी कोई बात नहीं, हम मैनेज कर लेंगे। बच्चे के फ़्यूचर का क्वेश्चन है।“

इस प्रकार मुन्ने का कोचिंग में दाखिला तो नक्की हो गया, मानो किला फ़तह हो गया हो। पल भर में मैंने अपना भविष्य देख डाला कि आज से 20-25 साल बाद मैं कैसे शान से लोगों से कहूंगा – मेरा बेटा मुन्ना – बी टेक फ़्राम आई आई टी कानपुर इन कमप्यूटर साइंस और एम बी ए फ़्राम आई आई एम अहमदाबाद, आज कल सिटी बैंक का ग्लोबल हेड है – अमरीका में सेटल्ड है। सोच कर ही ऐसी गुदगुदी कि मैं मुस्कुराने लगा।

अभी सपना पूरा भी नहीं हुआ था कि मिसेज डिक्रूज़ ने कहा, “ मिसेज श्रीवास्तव आपतो काफ़ी वेल ड्रेस्ड हैं, लेकिन श्रीवास्तवजी आपको अपना पहनावा ठीक खरना पड़ेगा। ये बाटा की ब्राउन चप्पल्स की जगै एक जोडी जूता खरीदिये, एक टाई भी लीजिये और हां यह पान मसाला खाना भी बंद खरिये – यह बड़ा खराब इंप्रेशन डालता है।“

अपनी तारीफ़ सुन कर बीबीजी मंद मंद मुस्काईं और फिर मुझे ऐसे देखा जैसे कि कह रही हों कि ‘देखा मैं तो पहले से ही कहती थी कि तुम पूरे जोकर लगते हो। तुमसे शादी करके मेरा तो वही हाल हुआ कि जैसे लंगूर के मुंह में अंगूर“ हमने हिम्मत करके कहा,” मैडमजी टाई बांधनी तो हमको आती ही नहीं है, एकै बार टाई लगाई थी, शादी के समय, वह भी टोनी भाई साहब ने नाट बांध कर दे दी थी, हमने तो केवल गले में कस ली थी। टोनी भाई साहब मर्चेन्ट नेवी में हैं उनको टाई-वाई बांधनी आती है। और गुटखा छोड़ना तो मेरे लिये बहुत मुश्किल होगा जी॰॰॰”

मिसेज डिक्रूज़: “देखिये बच्चे के फ़्यूचर के लिये इतना तो खरना ही होगा, और हां किसी डेन्टिस्ट के पास जा कर अपने दांत भी साफ़ करवा लीजिये। सौ-सवा सौ रुपये का एक डिओडरेन्ट भी खरीद लीजिये ताकी आपके घुसने से कमरे में घुटन का माहौल ना पैदा हो जाये।“

मैं: “जी वैसे तो मैं तन्दरुस्ती की रक्षा करने वाले साबुन से नहाता हू॰॰॰”

बीबीजी मेरी बात बीच में ही काटती हुयी बोलीं,” आप डोन्ट वरी मैं सब संभाल लूंगी।“

मुन्ने का मिसेज डिक्रूज़ की कोचिंग में सेलेक्शन हो जाने की खुशी में शाम को हमने घर पर एक जोरदार पार्टी रखी, यार दोस्त आये। इस पार्टी में हमने चाय, समोसे, खस्ते और गुलाबजामुन के स्थान पर पास्ता, पीत्ज़ा, सैण्डविच, काफी, कोका-कोला और पेस्ट्री रखी। इस प्रकार मुन्ने की कोचिंग का शुभारम्भ हुआ।

( क्रमश: )

इंगलिस इस्कूल - भाग 1

सेंट रैदास कान्वेन्ट, राधे हलवाई, लामाट और फ़्रांसिस

काल चक्र बड़ी तेजी से घूमता है और इस बात का अहसास मुझे तब हुआ जब मेरे बेटे ने अपने तीसरे जन्मदिन का केक काटा।

मुझे तो ऐसा लगा कि मैं पल भर में हरियाले देवानंद से पतझड़िया ए के हंगल बन गया - लीडिंग रोल्स बंद और कैरेक्टर रोल्स शुरू। दुख इस बात का अधिक हुआ कि अब सुमन भाभी की छोटी बहन, जो फ़ैज़ाबाद से लखनऊ पढ़ायी करने आई हुयी है, मुझे ‘हाय अनुराग’ की संती कहीं ‘नमस्ते अंकल’ कहना ना शुरू कर दे। सोच कर ही करंट लग गया और साथ ही साथ मारे टेंशन के दस बीस बाल भी सफ़ेद हो गये।

खैर, काल चक्र को कौन रोक पाया है?

अपनी परेशानी बीबीजी के कही,” मुन्ना अब सयाना हो गया है, हमें उसकी भावी ज़िंदगी के बारे में सोचना चाहिये।“

बीबीजी ने आंखें बाहर निकालते हुये मुझे प्रश्नवाचक दृश्टि से देखा और फिर खिलौनों के खाली डब्बों से खेलते हुये मुन्ने की ओर देखा। मैं उनकी शंका समझ गया,” देखो अब समय आ गया है कि मुन्ना अपनी जिम्मेदारियां समझे, अच्छे अभिभावक का यह दायित्व है कि वह अपनी संतान को सामाजिक चुनौतियों के लिये सक्षम बनायें। अभी तक तो हम यह करने में पूरी तरह असफल रहे हैं, देखो तो नालायक को अपनी जिम्मेदारियां भूल कर कैसे खेल रहा है॰॰॰॰॰”

“॰॰॰ कैसी अजीब सी बातें कर रहे हो!”, बीबीजी ने बीच में ही बात काटते हुये कहा, “ अभी तो तीन ही साल का हुआ है॰॰॰।“

“तो? क्या सारी ज़िंदगी उसे गोद में बैठाए रहोगी? दुनिया बदल गयी है, कम्पटीशन बढ़ गया है, उसे अच्छे स्कूल में ऐसे ही दाखिला नहीं मिल जायेगा, बहुत मेहनत करनी पड़ेगी जिसके लिये हमें अभी से ही कमर कसनी पड़ेगी।“

बीबीजी को मेरी बात समझ में आ गयी, “ सही कहते तो, देखो तो नालायक को कैसे खेलने में मस्त है, यही हाल रहा तो एक दिन खानदान की नाक कटवायेगा, अभी बताती हूँ॰॰॰।“ बीबीजी लपक कर उसके पास पहुँचीं और उसकी गैर-जिम्मेदाराना हरकतों के लिये उसे एक कंटाप रसीद किया, “ चल बैठ कर पढ़! दिन भर या तो खेलता रहता है या टी वी देखता रहता है॰॰॰।“ इससे पहले कि सकपकाया हुआ मुन्ना कुछ समझ पाता, बीबीजी ने खींचते हुये उसे सोफ़े पर जा पटका और किताब थमाते हुये हुक्म दिया, “ पढ़ो बैठ कर ॰॰॰ आज से टी वी देखना, खेलना-कूदना, पिक्चर-शिक्चर सब बंद!!”

हमारे बेचैने दिल को कुछ सुकून मिला और बीबीजी का हौसला बढ़ाते हुये हमने कहा, “ बिलकुल ठीक किया तुमने! इस नालायक को एक और लगाओ – तब अक्ल ठिकाने लगेगी!”

नालायकियत की हद देखिये, वहीं सोफ़े पर बैठ कर, सकपकाया हुआ, आँखें फाड़-फाड़ कर हमें देखे जा रहा था मानो कि उसे कुछ समझ में ही ना आया हो, यह नहीं हुआ कि पढ़ना शुरू करे। यकीन मानिये मन तो किया कि पाँच छ: हाथ मैं भी जड़ दूँ, लेकिन मेरा नेचर काफ़ी शांत टाइप का है मुझे गुस्सा नहीं आता है – गुस्से से विवेक की हानि होती है।

बीबीजी ने मेरे पास आकर पूछा, “ क्या सोचा है?”

“अगले साल इस्कूल में नाम लिखाना है, इंगलिस इस्कूल में नाम लिखवाने की सोच रहा हूं।“

“सही सोचा, इंडिया में बिना इंगलिस के काम नहीं चलता है, हिन्दी फिल्मों में काम करने वाले भी अंग्रेजी में ही इन्टरव्यू देते हैं, हिन्दी फिल्मों की पत्रिकायें भी अंग्रेजी में छपती हैं, वह दिन दूर नहीं जब शायद हिन्दी साहित्य भी इंगलिस में ही लिखा जायेगा। कौन सा इस्कूल सोचा है ॰॰॰॰?“

“कानवेन्ट इस्कूल के बारे में सोच रहा हूं, अब हमारे शहर में तो दो ही कानवेन्ट इस्कूल हैं ॰॰॰ “

बीबीजी की बड़ी गंदी आदत है, बीच में ही बात काटते हुये बोल पड़ीं, “ कैसी बात करते हो, तमाम कानवेन्ट इस्कूल हैं, अभी पिछले हफ़्ते ही डंडहिया की सब्जी मंडी में एक नया कानवेन्ट खुला है “सेन्ट रैदास कानवेन्ट इस्कूल”

“अरे, वह नकली कानवेन्ट इस्कूल हैं, वहां पर हिन्दू टीचरें पढ़ाती हैं। असली कानवेन्ट में ‘फ़ादर’ होते हैं और ईसाई टीचरें पढ़ाती है। किलास में ईसा मसीह की सूली वाली मूर्ति लगी होती है, बड़ा सा प्ले-ग्राउंड होता है, बच्चे इंगलिस में बतियाते हैं – ‘सेन्ट रैदास’ हुंह॰॰॰ राधे हलवाई ने खोला है तुम्हारा यह ‘सेन्ट रैदास कानवेन्ट’, मिठाई की दुकान नहीं चली तो इस्कूल खोल लिया है॰॰॰॰।“

“तो फिर कौन सा इस्कूल सोचा है?”

“या तो लामाट या फिर फ़्रांसिस।“

“लामाट ज्यादा अच्छा है, वहां ‘गदर’ फिल्म की शूटिंग भी हुयी थी। वहां के बच्चे भी फ़र्राटेदार इंगलिस बोलते हैं, बिलकुल शाहरुख खान की तरह। एक दिन मुन्ना भी शाहरुख की तरह गिट-पिट इंगलिस बोलेगा – यू बगर, यो मैन, हे बेबे, ओह शिट, खूल मैन, यू डम्बो॰॰॰॰।“

“हां, लेकिन वहां एडमिशन बड़ी मुश्किल से होता है, अभी से ही मुन्ने से इंगलिस में बोलना शुरू करो।“

“I तो always talking to Munaa in inglis, लेकिन Amma and Babuji speaks to Munna always in Hindi. I teaches him cat, dog, cow but Amma and Babuji speaking बिल्ली, कुत्ता, गाय। तुम उनको भी समझा दो, आखिर if he can not getting admission in good inglis iskool तो you are only blaming to me in future, हाँ।”

“अब, अम्मा और बाऊजी को कहां इंगलिस आती है कि मुन्ने से अंग्रेजी में बात करेंगे?”

“लो तुम भी तो हिन्दी में ही बात करते हो, तो Amma and Babuji you send them inglis speaking course – learn inglis in 90 days. I speaks good inglis तो I am helping to them to learning in good inglis when they are in home.”

“OK, I talking with them.”

“मेरा नाम मत लेना, नहीं तो कहेंगे कि बहू ने ही कान भरे हैं। तुम तो मेरा नेचर जानते हो मैं तो कुछ बोलती ही नहीं हूं।“

बड़ी मुश्किल से अम्मा और बाऊजी को बच्चे के भविष्य का हवाला देते हुये “Learn English in 90 days” वाला कोर्स ज्वाइन करवाया।

अम्मा और बाऊजी के कोर्स ज्वाइन करते ही, यह बात आग की तरह पूरे मोहल्ले में फैल गयी कि हमने मुन्ने को कानवेन्ट या असली इंगलिस इस्कूल में डालने का फ़ैसला किया है। एक के बाद एक मोहल्ले के लोग अपनी मुफ़्त सलाह देने लगे।

सैय्यद चचा मिले,”और बर्ख़ुरदार, सुना है साहबज़ादे को अंग्रेज़ी तालीम देने का ख़्याल रखते हैं आप।“

“जी, चचा।“

“मियाँ, बुरा मत मनना, ये कमबख़्त अंग्रेज़ी स्कूल ठीक से तालीम नहीं देते हैं। महज़ अंग्रेज़ी बोलना सिखा देते हैं। नींव पुख़्ता नहीं बनाते – हमारे और आप के मुकाबले में अंग्रेज़ी स्कूल के पढ़े लोग खड़े ही ना हो पायेंगे। अंग्रेज़ी भी काफ़ी गलत-सलत बोलते हैं और लिखते तो इतनी ख़राब हैं कि, मियाँ लाहौल विला कुव्वत, सिर्फ़ तरस ही आती है। आप हमारे ज़ाकिर साहब के भतीजे से नहीं मिले हैं, ताउम्र उन्होंने मदरसे में तालीम पायी और अब लंदन में रहते हैं और माशा अल्लाह क्या अंग्रेज़ी बोलते हैं कि गोरे भी पानी भरें!”

हमें भी मानो अचानक जैसे मिर्गी का दौरा पड़ गया था जो हम बोल बैठे, “चचा, ऐसी बात नहीं है, इंगलिस इस्कूल में भी अच्छी पढ़ायी होती है ॰॰॰॰॰”

“अमाँ जाओ, तुमसे तो बात करना ही बेकार है, जब देखो बहस करने लगते हो। बड़ों की बात ना मानने की तो तुमने जैसे कसम खायी है, जो तुम्हारी मर्ज़ी में आये करो। सत्तर साल की उम्र में वालिद को अंग्रेज़ी सिखवा रहे हो, शर्म नहीं आयी तुम्हें – नामाकूल।“

सैय्यद चचा की बात बड़ी पिन्च करी, लेकिन हमने यह सोच कर उन्हें क्षमा कर दिया कि बेचारे पुराने ख़्यालात के बुजुर्ग इंसान हैं और उम्र के चलते कुछ सठिया भी गये हैं।

चंद्रा अंकल मिले उन्होंने भी चेता,” अंग्रेजी इश्कूल में पढ़ाओगे तो लड़का ईसाई बन जायेगा, फिर रोना जब वह मंदिर में अगरबत्ती की जगह मोमबत्ती जलाएगा। बेगैरत इंसान ! हिन्दी पढ़ने वाले क्या सब भीख मांगते हैं जो तुमको अंग्रेज़ियत का भूत सवार है। अरे, अपने धर्म के बारे में तो कुछ सोच लिया होता।“

हमने भी गुस्से में उन्हें चार बात सुना दीं,” अंकल आपको हमारा हुक्का पानी बंद करना हो तो करो, लेकिन हमने भी ठान ली है – मुन्ने को असली वाले अंग्रेजी इस्कूल में ही पढ़ायेंगे।“

“ हां, हां पढ़ाओ, वहां जाकर ड्रग्स लेना सीखेगा तब मिलना, बेशरम!”

ऐसे में हमारे बचपन के मित्र राजू ने बड़ी हिम्मत बंधाई। उसने हमें बताया कि मुन्ने को मिसेज डिक्रूज़ की कोचिंग में डाल दो। राजू के अनुसार मिसेज डिक्रूज़ कुछ बीस हज़ार रुपये फ़ीस लेती हैं और उनके यहां तीन महीने की कोचिंग पाकर मुन्ना पक्के तौर पर लामाट या फ़्रांसिस में दाखिला पा जायेगा। साथ में मिसेज डिक्रूज़ बच्चे के पापा और मम्मी की भी ट्रेनिंग करती हैं जिससे इंटरव्यू में वो भी अच्छा इंप्रेशन जमा सकें।

बिना वक्त बर्बाद किये हुये, अगले दिन हमने अपना एल एम एल 150 निकाला, आगे मुन्ने को खड़ा किया और पीछे बीबीजी को बैठा कर चल पड़े मिसेज डिक्रूज़ के घर।
( क्रमश: )

गुरुवार, जनवरी 11, 2007

गुसल गवैये

हम गुसल गवैया हैं, गुसलखाने में घुसते ही सारे नये-पुराने गाने याद आ जाते हैं और हम पंचम सुर में बिना रेडियो वाले अपने पड़ोसियों को मुफ्त में ही विविध भारती सुना देते हैं.
.
गाते-नहाते एक दिन ख्याल आया कि हमारे देश के नामी गिरामी लोग गुसलखाने में कौन सा गीत गाते होंगे, सो हमने अपने हरी राम नाई को सम्मन भेजा और आदेश दिया कि जाओ हरी राम और लप-झप करके खबर खोद कर लाओ कि कौन क्या गा रहा है.

जो खबर आई है वो आपके सामने है;
.
अटल:

कितने लोगों से मैं मिल कर भूल जाता हूं
मेरी आदत है अकसर मैं भूल जाता हूं
देखो फिर कुछ भूल गया मुझको याद दिलाना
मेरा क्या नाम है.....

.
....अंजाना

.
मनमोहन:
.
उसको तो ना देखा हमने कभी, पर उसकी ज़रूरत क्या होगी
ऐ माँ, ऐ माँ तेरी सूरत से अलग भगवान की सूरत क्या होगी


(हरी राम ने यह भी सूचना दी है कि शावर के नीचे यह गाना गाते समय सिंह साहब के मुखमण्डल से अपार श्रद्धा के भाव टपक रहे थे, उन्होनें आंखें मूंद रखी थीं और हाथ जुड़े हुये थे)

मुलायम:

वादा करो नहीं छोड़ोगी तुम मेरा साथ
जहां तुम हो वहां मैं भी हूं

.
अमर:
.
अरे बचना ऐ हसीनों लो मैं आ गया
हुस्न का आशिक
हुस्न का दुश्मन
अपनी अदा है यारों से जुदा
हे..हो..

शिबू:

तनहाई..ई...ई...ई..ई
तनहाई...
दिल के रास्ते पर कैसी ठोकर मैंने खाई
टूटे ख्वाब सारे एक मायूसी है छाई
हर खुशी सो गयी
ज़िंदगी खो गयी...


शरद:
.
जो सोचें जो चाहें वो करके दिखा दें
हम वो हैं जो दो और दो पांच बना दें
अरे..तूने अभी देखा नहीं देखा है तो जाना नहींईईई...


लालू:
.
रेल गाड़ी छुक छुक छुक छुक
रेल गाड़ी छुक छुक छुक छुक
बीच वाले टेशन बोलें
रुक रुक रुक रुक रुक रुक
उ..उ..उ..ऊ...


सोनिया:
.
खुशियाँ यहीं पे
मिलेंगी हमें रे
अपना है अपना
ये देश – परदेश


उधर उत्तर प्रदेश कांग्रेस के वे तमाम कार्यकर्ता जो विधान सभा चुनाव में टिकट की आशा लगाये बैठे हैं, राहुल बाबा की फोटो गुसलखाने में टांग कर यह गाना गाते पाये गये;
.
नन्हे मुन्ने बच्चे तेरी मुठ्ठी में क्या है
नन्हे मुन्ने बच्चे तेरी मुठ्ठी में क्या है


(हरी राम नाई ने बताया कि साहब दैवीय चमत्कार हो गया और राहुल बाबा फोटो के अंदर से ही गाने लगे)
.
मुठ्ठी में है तकदीर तुम्हारी
मुठ्ठी में है तकदीर तुम्हारी
हमने किस्मत को बस में किया है

(हरी राम ने बताया कि यह गीत सुन कर सारे कार्यकर्ता आती जाती हर बस में घुस घुस कर देख रहे हैं कि कहीं उनका टिकट किसी बस में रख कर तो नहीं भेजा जा रहा है. एक हताश कार्य कर्ता आज सुबह गुसलखाने में यह गाता पाया गया)

ना कुछ तेरे ‘बस’ में जूली
ना कुछ मेरे ‘बस’ में


चुनाव आ रहे हैं तो फिर गठबंधन भी होंगे, लोग अब गुसलखाने से बाहर निकल कर और गाना गा गा कर एक दूसरे को खुलेआम रिझा भी रहे हैं. आज हरी राम नाए ने माया के घर के सामने कल्याण को यह गाना गाते सुना
.
वई वई
आया हूं मैं तुझको ले जाऊंगा
अपने साथ तेरा हाथ थामके

.
(हरी ने बताया कि हुज़ूर अंदर से भी गाने की आवाज़ आई)
.
वई वई
नहीं रे नहीं मैं नहीं जाऊंगी
तेरे साथ तेरा हाथ थाम के


हरी राम अभी भी अपने काम पर लगा है, और खबर आते ही आगे भी बताऊंगा. इस बीच आप संगीतप्रेमियों को भी कोई खबर मिले तो मुझे अवश्य बताइयेगा. तब तक हम चले गुसलखाने – कुछ गाना वाना गाने.
.
ठंडे ठंडे पानी से नहाना चाहिये
गाना आये या ना आये गाना चाहिये...

बुधवार, जनवरी 10, 2007

पीकदान महादान

रक्तचाप की शिकायत होते ही मैं ने योगासन करना शुरू किया। जिन गुरूजी के पास योगासन सीखने गया उन्होंने पहली शर्त यह रखी कि मैं धूम्रपान छोड़ दूं।

अब जैसे पारो को भुलाने के लिये देवदास चंद्रमुखी की शरण में आया था वैसे ही सुट्टा छोड़ने के लिये हमने गुटखे का सहारा लिया। पारो तो छूट गयी लेकिन हम चन्द्रमुखी के गुलाम बन गये। गुरूजी की शर्त के अनुसार हमने सुटटा तो छोड़ दिया पर तम्बाकू का नशा और योगासन साथ साथ चलते रहे।

पैंट की जेब में आफिस में मिले घूस के मुड़े तुड़े नोटों के साथ गुटखा के पांच छ: पाऊच भी सुस्ताते रहते थे। घर हो या आफिस, दिन भर जुगाली चलती ही रहती थी।

गुटखा खाने के कई फ़ायदे भी हैं जैसे कि जब कोई सवाल पूछे तो आप मुंह ऊपर उठा कर मुंह में भरी हुयी पीक से गरारा करते हुये कुछ भी बोल दीजिये ‘गुड़ गुड़’ करते हुये, जब उसको समझ में नहीं आयेगा तो अगली बार वह खुद ही आपसे प्रश्न पूछने नहीं आयेगा और आप बिना डिस्टर्ब हुये अपने आफिस की कुर्सी पर शान से बैठ कर चैन की नींद सो सकेंगे या वेद प्रकाश शर्मा का लिखा नया जासूसी उपन्यास पढ़ सकेंगे – इच्छा आपकी।

एक फ़ायदा और अगर आफिस में बास परेशान करता है तो चुप्पे से उसके स्कूटर की सीट पर अपनी पीक के साथ साथ अपनी कुंठा भी उगल दीजिये – लगातर 30 दिन तक कर के देखिये आपको कैसे अनंत आंतरिक सुख की प्राप्ति होएगी। मन बड़ा हल्का रहेगा और घर में भी आपको बास के द्वारा दी गयी गालियां याद नहीं आयेंगी। बास अगर बहुतै खड़ूस टाइप का है तो सीट के साथ साथ स्कूटर की हैण्डिल पर भी एक पिचकारी मार दीजिये और फिर आंखें मूंद कर बोलिये,

॰॰॰अहहा॰॰॰आनंदम्॰॰॰आनंदम !!!

फ़ायदों की बात चली है तो यह कैसे भूलें कि गुटखा खाने वालों को ट्रेन और बस में हमेशा खिड़की वाली सीट मिलती है। वह इसलिये कि उन्हें बार बार पिकियाना जो होता है। मान लीजिये कि खिडकी वाली सीट पहले से ही भरी है तो आप ‘विनम्र के साथ’ खिड़की पर बैठे यात्री से बोलिये,”भाई साहब, मैं मसाला खाता हूं और बार बार थूकना पड़ता है, मेहरबानी करके मुझे खिड़की पर बैठने दें।“ 60 प्रतिशत मामलों में तो अगला आपको अपनी सीट दे देगा, लेकिन अगर कोई स्वार्थी और असंवेदनशील cयक्ति ऐसा नहीं करता है तो भी आप निराश ना हों।

आप शान से उसके बगल में बैठ कर अपना गुटखा चबाइये, जब मुंह पीक से लबालब भर जाये तो होठों को गोल करके, नीचे वाले जबड़े को नीचे की तरफ़ करते हुये – कुछ इस टाइप का मुंह बनाइये कि अगला देखते ही समझ जाये कि अब आपके मुंह में मख्खी घुसने भर की भी जगह नहीं है। अब शान से अपनी उंगली को गोल गोल घुमाते हुये खिड़की पर बैठे स्वार्थी और असंवेदनशील व्यक्ति को इशारे से बताइये कि वह आपको खिड़की तक जाने का और थूकने का ‘सेफ़ पैसेज’ दे। अब आगे का विवरण जरा ध्यान से सुनिये, थूकने के लिये खिड़की की तरफ़ जाते हुये यह ध्यान रहे कि आपका लबालब भरा हुआ मुंह उसके ऊपर से होता हुआ जाये। अगर बस या ट्रेन में धक्के लग रहे हैं तो उसका पूरा फ़ायदा उठाइये, कुछ इस तरह के भाव चेहरे पर लाइये कि आपकी पीक बस उस पर टपकने ही वाली है और आप एक सभ्य नागरिक की तरह उसे अपने मुंह में ही कैद रखने का भरसक प्रयास कर रहे हैं। खिड़की तक पहुंचने में बिलकुल भी जल्दबाज़ी मत दिखाइये – आराम से उस व्यक्ति के ऊपर अपना पीक युक्त मुह ऐसे डोलाते रहिये जैसे लैण्ड करने के पहले हवाई जहाज दिल्ली या मुंबई हवाई अड्डों पर देर तक घूमते रहते हैं। कनखियों से उसके चेहरे के भाव देखिये – आपको सीट ना देने का पश्चाताप उसके चेहरे पर साफ़ नज़र आयेगा। अब आप खिड़की तक पहुंचने की चेष्टा करते हुये उसके ऊपर लगभग लेट ही जाइये, अपने शरीर का सारा बोझ उसके ऊपर लाद दीजिये। फिर खिड़की से सिर निकाल कर पीकत्याग कीजिये। इससे आपको दोहरे आनंद की प्राप्ति होगी, थूकते समय आंखें मूंदिये और मन ही मन कहिये;

॰॰॰अहहा॰॰॰आनंदम्॰॰॰आनंदम !!!

बस या ट्रेन से पीकत्याग करते समय अपनी पीक की दिशा पर खास ध्यान रखिये। कहीं ऐसा ना हो कि आपकी पीक किसी राह चलते या पीछे वाली सीट पर बैठे भले मानस के वस्त्रों को मुफ़्त में ही रंग डाले। चलती बस से थूकना भी एक कला है। खिड़की से सिर निकालने के पश्चात अपनी मुंडी थोड़ी सी बस की तरफ़ घुमा कर ‘हाई प्रेशर’ के साथ अपनी पिचकारी बस की बाडी पर मारिये, इससे आपकी पवित्र पीक के इधर उधर भटकने की संभावनायें बड़ी ही सीमित रहेंगी।

पीकत्याग करने के पश्चात जो दो-चार बूंदें होठों के नीचे लुढ़क जाती हैं, उसे अभी पोंछिये मत, उन बूंदों के साथ अपनी मुंडी भीतर करिये और फिर मंडराइये उस व्यक्ति के ऊपर ऐसे कि मानों बूंदें अब टपकी या तब। अब धीरे से अपनी सीट पर वापस आइये, मुंह पोंछिये और मुस्कुरा कर सौम्यता से कहिये, “ थैंक यू भाई साहब।“

थुकाई का यह री-टेलीकास्ट एक बार और करिये और तीसरी बार जब आप थूकने के लिये उठेंगे तो वह खुद ही आपसे कहेगा,”भाई साहब, आप खिड़की पर बैठिये मैं उतर कर पैदल ही चला जाता हूं।“ आप इत्मिनान से खिड़की पर बैठ कर मुफ़्त में ही ठंडी ठडी हवा का आनंद लीजिये, दोनो आंखें मूंद कर मन ही मन कहिये - ॰॰॰अहहा॰॰॰आनंदम्॰॰॰आनंदम !!!

सच में पीकत्याग का आनंद ही कुछ और है! आप शायद ना जानते हों, लेकिन क्रिकेट में जैसे भिन्न प्रकार के स्ट्रोक होते हैं, उसी प्रकार पीक थूकने के भी कई तरीके हैं।

मुझे सबसे अधिक पसंद है आफिस में टेबल के नीचे रखी कचरे की टोकरी में थूकना। इसके लिये आप दाहिने हाथ से कचरे की टोकरी को उठाइये और उसको कमर की उंचाई तक लाइये, फिर अपने कमर के ऊपर के हिस्से को दाहिनी तरफ़ झुकाइये और सिर को कुछ इस तरह एडजस्ट करिये कि आपका मुंह टोकरी से कुछ 3 या 4 इंच दूर रहे। अब आंखें मूंद कर, होठों को गोल बना कर अपनी जिह्वा को तालू की तरफ़ और गालों को अंदर की तरफ़ दबाइये। मुंह की मांस पेशियों के इस तरह चलने से मुंह में भरी कत्थई रंग की खुश्बूदार पीक स्वत: ही आपके होठों के बीच से होते हुये टोकरी में लुढ़कने लगेगी। आंखें बंद रखिये, लुढ़कती हुयी पीक को महसूस कीजिये और स्वर्ग तुल्य आनंद लोक में स्वयं को खो जाने दीजिये।

॰॰॰अहहा॰॰॰आनंदम्॰॰॰आनंदम !!!

चलती हुई कार से पीक थूकने के समय यह देखिये कि आप दूसरे की कार में बैठे हैं या अपनी कार में बैठे हैं। यदि आप दूसरे की कार में हैं तो नि:संकोच खिड़की से सिर बाहर निकालिये और पिचकारी छोड़ दीजिये। इस प्रक्रिया से कार के ऊपर आपकी सुगंधित पीक के प्रेम चिह्न अंकित हो जायेंगे। वैसे भी मित्रों के बीच प्रेम की निशानियों का लेन-देन तो होता ही रहता है। सोचिये, जब आपका मित्र अपनी कार साफ़ करेगा तो आपके द्वारा दी गयी प्रेम की इस निशानी को देख कर कितना प्रसन्न होएगा और मंद मंद मुस्कुरा कर कैसे प्रेम से आपको याद करेगा।

खिड़की से थूकने के बाद, सुगंधित पीक की दो-चार बूंदें जो आपकी ठुड्डी पर लुढ़क गयी थीं, उनको धीरे से अपने अंगूठे के नाखून से ऐसे साफ़ करें मानो कि आप शेव कर रहे हों। अब ‘चुपके’ से अपने अंगूठे को कार के सीट कवर पर पोंछ दीजिये।

॰॰॰अहहा॰॰॰आनंदम्॰॰॰आनंदम !!!

यह तो रही बात दूसरे की कार से थूकने की, अब बात करते हैं अपनी कार से थूकने की। इसमें थोड़ा केयरफुल रहने की आवश्यकता है। इसको करने के लिये आपको एक वैज्ञानिक का दिमाग और एक कलाकार का हृदय दोनो चाहिये होगा।

कार चलाते हुये देखिये कि आपके आगे की सड़क पर अधिक भीड़ भाड़ तो नहीं है, अब धीरे से अपने बगल वाला दरवाज़ा खोलिये – ध्यान रहे यह बड़ा ही टेक्निकल मामला है – दरवाज़ा बहुत थोड़ा सा ही खुलना है (बस इतना कि आपकी पीक कार के किसी भी भाग को बिना सहलाये हुये बाहर का रास्ता ढ़ूंढ़ ले) नहीं तो कोई कमबख़्त मोटरसाइकिल पर सवार, सूरदास की तरह आपको ओवरटेक करता हुआ आपके दरवाज़े को ही ले उड़ेगा और फिर बाद में बेफ़िजूल आपसे झगड़ा भी करने लगेगा। जी हां, बिलकुल ठीक कह रहे हैं आप – उल्टा चोर कोतवाल को डांटे। अब आजकल के लड़के अंधाधुंध चलाते हैं इस चीज़ का लिहाज ही नहीं कि भाई आगे वाली गाड़ी का दरवाज़ा अचानक खुल सकता है – पता नहीं काहे को इतनी हड़बड़ी में रहते हैं हर वक्त! अब भाई अगर कार में बैठ कर कोई संभ्रांत व्यक्ति गुटखा चबा रहा है तो थूकने के लिये दरवाज़ा तो खोलेगा ही ना – यह तो खुद ही समझ लेने वाली बात है।

ख़ैर, अब आप एक हाथ से दरवाज़ा पकडे हैं और एक हाथ से स्टीयरिंग और आपकी नज़रें अभी भी सामने सड़क पर ही हैं। अगर सामने मैदान (सड़क) साफ़ है तो अपने शरीर के ऊपरी भाग को इतना झुकाइये कि आपका सिर दरवाज़े के निचले हिस्से तक जा पंहुचे और फिर गालों को कस कर दबाते हुये पिचकारी मारिये – पिच्च से सड़क पर!

॰॰॰अहहा॰॰॰आनंदम्॰॰॰आनंदम !!!

पीकने की यह इश्टाइल बड़ी ही एडवेन्चरस है, मैं तो अब भीड़ भाड़ वाले रस्ते में भी इस प्रकार पिकिया लेता हूं, लेकिन हां भीड़ भाड़ वाली सड़कों पर यह काम किस्तों में करता हूं। मतलब, थोड़ा थूका फिर मुंडी उठा कर देखा कि सड़क क्लियर है या नहीं फिर थोड़ा थूका ऐण्ड सो आन। हाई वे पर इस तरीके से थूकना बहुत थ्रिलिंग लगता है – लाइक जेम्स बाण्ड।

थूकने की इस विधि में यह अवश्य देखियेगा कि हवा किस तरफ़ से आ रही है, यदि हवा का रुख कार के पीछे से है तो इस विधि का प्रयोग कदापि मत करिये और हवा का रुख बदलने तक अपनी थुकास पर काबू रखिये, कंट्रोल ना कर पायें तो निगल जाइये लेकिन किसी भी अवस्था में कार को साइड में खड़ा कर के मत थूकियेगा ऐसा करना कम सब पीकबाज़ों का घोर अनादर होगा। थूको तो शान से थूको – चलती हुयी कार से थूको आनंदित मन से कहो ॰॰॰अहहा॰॰॰आनंदम्॰॰॰आनंदम !!!

पैदल चलते हुये सड़क पर थूकना भी बहुत आनंदमयी है। ऐसा करते हुये मुझे लगता है कि मैं किसी पौराणिक महाकाव्य का पूजनीय चरित्र हूं। जब मैं अपनी धारदार लाल पीक सड़क पर मारता हूं तो ऐसा लगता है कि मानो मैं ने अपने तरकश से तीर खींच कर धरती (सड़क) का सीना बींघ दिया हो और उसमें से रक्त की धार फूट पड़ी हो। ऐसा लगता है कि मैं हाथों में धनुष उठाये, सिर पर मुकुट धारे, युद्ध भूमि में श्याम वर्णीय असुरों का वध करके मानव जाति की रक्षा कर रहा हूं। कैसी अद्भुत अनुभूति है – आनंद की चरम सीमा – देवत्व - ॰॰॰अहहा॰॰॰आनंदम्॰॰॰आनंदम !!!

हम पीकत्यागियों के आदर में हमारे नगर के सभी भवनों की दीवार का निचला 3 फ़ुट का हिस्सा गेरू से रंगवा दिया गया है।

पीक के कारण आज धर्म से मुंह मोड़ चुका समाज पुन: धर्म से जुड़ रहा है – घर या भवन की जिन दीवारों पर पथिक थूका करते थे वहां लोगों ने धार्मिक टाइल्स लगवाने शुरू कर दिये हैं। ध्यान रहे कि इन टाइल्स पर बनी छवियां किसी एक ही धर्म या जाति की नहीं है – इसमें हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई, सिख, जैन सभी धर्मों का समावेश है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि पीकत्यागियों के कारण देश में धार्मिक एकता का वातावरण बन रहा है।

आप सब भी गुटखा खाइये, पीकदान अपनाइये, सभी धर्मों का आदर करना सीखिये, हमसे जुड़िये, शान से थूकिये और आंख मूंद कर मन ही मन कहिये

॰॰॰अहहा॰॰॰अहहा
॰॰॰अहहा॰॰॰अहहा
॰॰॰आनंदम्
॰॰॰आनंदम !!!

पीकदान – महादान!

सोमवार, जनवरी 08, 2007

तरकश पर तीर

मैंने पहली बार अपनी किसी पोस्ट पर अन्य चिठ्ठाकारों के नामों का प्रयोग किया है. यह कहना तो मुश्किल है कि 'चरित्र' काल्पनिक हैं लेकिन यह जरूर सच है कि घटनायें, विवरण, साक्षात्कार, बातचीत या उनके द्वारा कहे गये कथन पूर्णरूप से मनगढ़ंत हैं. इस लेख (?) में केवल खुराफ़ात ही भरी हुयी है और किसी भी प्रकार की कोई विचार धारा तो है नहीं. इसलिये, यह कहना बेकार ही होगा कि इस लेख की विचारधारा लेखक की अपनी है. वैसे आप मान्यवरों को यदि कोई विचारधारा दिख जाये तो मुझे अवश्य बताइयेगा - मैं भी बुद्धिजीवियों की श्रेणी में आ जाऊंगा.
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इस लेख को एक आँख से पढ़िये और दूसरी से निकाल दीजिये. किसी प्रकार का निष्कर्ष निकालना आपके मानसिक संतुलन के लिये हानिकारक साबित हो सकता है.
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श्री समीरलाल, श्री संजय बेंगाणी, श्री पंकज बेंगाणी, श्री शुएब और 'कविराज' श्रेष्ठ और नामची चिठ्ठाकार हैं और इस लेख को मैं उनको समर्पित करता हूं.

तरकश पर तीर


श्री नरेन्द्र मोदी की छत्र छाया में बैठ कर, धनाड्य बनने की अभिलाषा से स्व-व्यवसाय में लिप्त, पूंजीवादी बेंगाणी बंधुओं ने महात्मा गाँधी की “स्वावलंबन” की विचारधारा पर एक बार फिर कुठाराघात किया है.

बेंगाणी बंधुओं द्वारा संचालित “तरकश” ने हाल ही में “हिंदी के उदीयमान चिठ्ठाकार” प्रतियोगिता का आयोजन किया, जिसके परिणाम 7 जनवरी 2007 को घोषित किये गये. पाश्चात्य सभ्यता की ओर उन्मुख बेंगाणी बंधुओं द्वारा आयोजित इस बोगस प्रतियोगिता के परिणाम पहले से ही जग जाहिर थे.

स्वर्ण, रजत और कॉस्य की तीन श्रेणियों के लिये चार विजेता घोषित किये गये. इन चार विजेताओं में से दो ब्लगोड़े ‘विदेशी’ हैं. यह अत्यंत लज्जा का विषय है कि राष्ट्र भाषा के उत्थान का जामा पहन कर बेंगाणी बंधुओं ने विदेशी शक्तियों का सहारा लिया. इससे भारतीय जनता पार्टी की विदेशियों पर निर्भर रहने की तथा विदेशियों के हाथों आत्म सम्मान बेंच देने की सोच साफ नज़र आती है. आश्चर्य का विषय है कि जिस भाजपा ने पिछले चुनाव के पश्चात श्रीमती सोनिया गाँधी के विदेशी होने के मुद्दे पर बवंडर खड़ा किया था, उसी भाजपा के अनधिकारिक प्रतिनिधि (बेंगाणी बंधु) आज हिंदी के उदीयमान चिठ्ठाकार का ताज स्वयं विदेशियों के सिर पर पहना रहे हैं.

हमारे विचार से यह पूरा चुनाव उत्तर प्रदेश के चुनावों को ध्यान में रख कर पूर्व नियोजित तरीके से करवाया गया था. अल्प संख्यक समुदाय को लुभाने के लिये, चार विजेताओं में से एक ब्लगोड़ा अल्पसंख्यक समुदाय का जानबूझ कर रखा गया था, जिससे भाजपा धर्म निरपेक्ष होने की अपनी झूठी छवि से चुनाव कर्ताओं को रिझा सके.

इस प्रकरण के विषय में हम ने, इस चुनाव से जुड़े कुछ लोगों से बात चीत करने की चेष्टा करी.

सर्व प्रथम हमने श्री पंकज बेंगाणी से संपर्क करना चाहा. उन से मिलने के कई असफल प्रयासों के बाद यह पता चला कि श्री पंकज दिल्ली में चल रहे ‘प्रवासी भारतीय दिवस’ में प्रवासी भारतीयों को लुभाने के लिये अपने बंदरों के साथ मदारी का नाच दिखाने गये हुये हैं.

हमने स्वर्ण कलम विजेता श्री समीरलाल से कनाडा में संपर्क किया. उनसे बातचीत के कुछ अंश;
हम: स्वर्ण कलम से नवाज़े जाने की मुबारकबाद!

श्री समीरलाल: थैंक यू, जी यह तो होना ही था, आफ़्टर ऑल वी डेलिवर द क्वालिटी स्टफ़, यू सी!
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हम: और कोई बात जो आप शेयर करना चाहेंगे?

श्री समीरलाल: ऑफ़ कोर्स, अपार्ट फ्राम क्वालिटी, वी आल्सो फोकस्ड ऑन दी पब्लिसिटी एण्ड प्रमोशन. दैट इस अनदर इंपार्टेंट आस्पेक्ट.

हम: आप अपनी गुणवत्ता इतनी अच्छी कैसे बनाये रखते हैं...?

श्री समीरलाल: चलिये यह सीक्रेट भी आप को बता देते हैं – हम आउटसोर्सिंग करवाते हैं – इंडिया में हमारा एक ऑफ शोर ब्लाग चलता है, वहीं से हम बेहतरीन रचनायें लिखवाते हैं और फिर उनको अपने नाम से छाप देते हैं.

हम: मतलब यह कि रचनायें आप स्वयं नहीं रचते...???!!!

श्री समीरलाल: (सकते में आ जाते हैं और घबरा कर बोलते हैं) अरे मैं तो मज़ाक कर रहा था – आप अन्यथा ना लें – लीजिये स्माईली भी लगा देता हूं :) :) :)

श्री समीरलाल हड़बड़ा कर फोन काट देते हैं. हमारे कुछ प्रश्न रह ही गये जैसे कि उन्होंने वोट पाने के लिये वोटर्स को कितनी टिप्पणियां घूस में दी और बूथ कैप्चरिंग के लिये बेंगाणी बंधुओं को क्या किकबैक दिया.

हमने दूसरे विदेशी ब्लगोड़े श्री शोएब से संपर्क किया;

हम: आपको रजत कलम की बधाई.

श्री शोएब: इनायत!

हम: आपको ऐसा नहीं लगता कि आपको पुरस्कृत करके भाजपाई आपके अल्पसंख्यक होने का लाभ उठा रहे हैं? आपको ऐसा नहीं लगता कि आप के नाम से उत्तर प्रदेश में अल्पसंख्यकों के वोट बैंक पर सेंध लगाने का अवसर ढ़ूंढ़ा जा रहा है?

श्री शोएब: आप इतने वाहयात तरीक़े से सोच कैसे लेते हैं....?

हम: जी हम आदत से मजबूर हैं, हमारी सोच ही ऐसी है, हमें हर पहलू में चालबाजी और राजनीति दिखायी देती है. गरीब मरे तो राजनीति और जिये तो राजनीति, देश तरक्की करे तो राजनीति और पिछड़े तो राजनीति, दंगे हों तो राजनीति और ना हों तो भी...यही तो बुद्धिजीवी होने का प्रमाण है, कुछ ना कुछ तो बोलना ही है ना अन्यथा लोग भूल जायेंगे. जब भूल जायेंगे तो फिर वोट कैसे देंगे? खैर, आपने हमारी बात का जवाब नहीं दिया....

श्री शोएब: (बड़ी मुश्किल से हंसी रोकते हुये) भैये, अगर भाजपा मेरे नाम से अल्पसंख्यक वोट मांगेगी तो चुनावी रैलियों में उनको सड़े अण्डे और टमाटरों के अलावा कुछ ना मिलेगा. हमारे नाम से ‘वह’ क्या तूफ़ान उठायेंगे, हम तो खुद ही तूफ़ान हैं – हमें उठाया तो हम तो (उनकी) हस्ती ही मिटा देंगे....

श्री शुएब से बात करके लगा कि भाजपाइयों उनको पुरस्कृत कर उनके मन में अपनी मीठी मीठी बातों का विष भीतर तक घोल दिया है. एक ‘विदेशी’ होने के कारण श्री शोएब यह देख नहीं पा रहे हैं कि इसमें भाजपा समर्थित ‘और भी बड़ी’ विदेशी ताकतों का हाथ है जो भारतीय अर्थव्यवस्था तो पूर्णरूप से अपने चंगुल में ले कर भारत को परनिर्भर बनाना चाहती हैं. और यही तो चाहते थे बेंगाणी बंधु, ताकि वह अपने पूँजीवादी इरादों में सफल हो सकें. ऐसी गूढ़ चाल, ऐसा भयंकर षडयंत्र ! विदेशियों (एन आर आई – नेवर रिटर्निंग इंडियंस) के साथ मिल कर बेंगाणी बंधु हमारी भाषा पर डाका डालना चाहते हैं, हमारी विचारधारा और सोच को पंगु और गुलाम बनाना चाहते हैं.

अंत में हमने श्री संजय बेंगाणी से बात करी;

हम: ‘तरकश’ पर बोगस चुनाव करवाने के लिये आपको श्री नरेन्द्र मोदी ने क्या प्रलोभन दिया? क्या आप हो अगले आम चुनाव में भाजपा का टिकट मिल रहा है?

श्री संजय: ऑयें...??!! अरे यह क्या बाउंसर है भाई?

हम: इतना भोले बनने का प्रयास मत करिये, हम भी बुद्धिजीवी और दूरदर्शी हैं आपकी घिनौनी मानसिकता को साफ़ देख सकते हैं. विज्ञापन का कारोबार है ना आपका! और उसके माध्यम से आप विदेशियों को प्रमोट कर रहे हैं! देशी ब्लगोड़ों की आपको कोई चिंता नहीं! यह पैसे वाले पूंजीवादी विदेशी अपने पैसों, प्रमोशन और आडम्बरों से हिंदी ब्लागजगत में छा जायेंगे तो हमारे स्माल स्केल ब्लागर्स का क्या होगा? उनके ब्लाग की रेटिंग्स कैसे बढ़ेगी?

श्री संजय: अरे आप तो....

हम: ...आपको हमारे सवालों का जवाब देना ही होगा!

श्री संजय: हां मैं वही तो कह रहा हूं कि इसमें....

हम: ( विनोद दुआ की चिपकू, अझेल और इरीटेटिंग इश्टाइल में) संजय जी आप जवाब दीजिये, जनता आपसे प्रश्न पूछ रही है...!

श्री संजय: अरे भाई साहब बोलने तो दीजिये! पहले यह बताइये कि ‘तरकश’ पर हुये चुनाव और इस पर हुयी धांधली का समाचार आप तक पंहुचा कैसे?

हम: आपको क्या लगता है कि हम अफ़ीम खा कर सोये पड़े हैं. आपकी इस धांधली से कई देशी चिठ्ठाकार बहुत आहत हुये हैं, उन्ही में से एक ने ‘व्हिसिल ब्लोअर’ का काम करके हमें सूचित किया है.

श्री संजय: (मेरे हाथ में पांच सौ रुपये का नोट थमाते हुये) जी, आप उस आहत प्राणी का नाम बतायेंगे.
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हमने अपना दूसरा हाथ भी आगे बढ़ाया जिस पर पांच सौ रुपये का एक नोट और लैण्ड किया.
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हम: हें..हें..हें..संजय जी आप तो प्रापर बिज़नेस मैन निकले. उस आहत प्राणी का नाम है श्री गिरिराज जोशी ‘कविराज’....
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वाक्य पूरा होने से पहले ही श्री संजय एक हाथ में लोहे का राड, एक हाथ में हॉकी स्टिक, गले में सायकिल की चेन और सिर पर सोडा वाटर की बोतलों की एक क्रेट रख कर यह बड़बड़ाते हुये कमरे से कूच करते दिखे,” कविराज...गुर्र..गुर्रर्र...”

सुना है “कविराज” ने कुछ समय तक ब्लागजगत से तड़ीपाल रहने की सोच ली है और पाकिस्तान की खुफ़िया एजेंसी आई एस आई से मदद मांगी है को बिन लादेन की तरह उनको भी कहीं ऐसी जगह ‘लुप्त’ कर दिया जाये जहां श्री संजय तो क्या अमरीकी जासूस भी उनकी भनक तक ना पा सकें.
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आप मान्यवरों में से कोई यदि कोई भी एक हजार रुपये का नगद पुरस्कार प्राप्त करना चाहता है तो श्री संजय बेंगाणी को “कविराज” का पता ठिकाना बता कर प्राप्त कर सकता है.

चलते चलते: पता चला है कि समस्त बीमा कम्पनियों ने “कविराज” की बीमा पॉलिसी को निरस्त कर दिया है. और रही बात पूंजीवाद या समाजवाद के पके हुये फोड़ों से बहते मवाद की, तो भैया उससे हमें क्या? हमें तो हजार रुपये नगद मिल गये और हम चले बिरयानी खाने. मेरे हिसाब से तो सबसे बढ़िया ‘वाद’ है “मायावाद” सारी दुनिया माया की माया में उलझी हुयी है. एक मिनट, मेरा फोन बज रहा है

!! रुकावट के लिये खेद है !!

हम: हैलोओओ....”

फोन से: हलो, मैंने तुम्हारी बात सुनी, सच कहते हो “मायावाद” ही सर्वोत्तम ‘वाद’ है. अगले चुनाव में तुमको बहुजन समाज पार्टी का टिकट देना चाहती हूं....

हम: अरे बाप रे..... !! ”कविराज” हमें भी छिपा लो अपने साथ.....हमारा भी ‘कल्याण’ करो....
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आकाशवाणी: अबे चुप्पे चाप निकल लो, कहीं ‘कल्याण’ ने सुन लिया तो वो भी टिकट ले कर आ जायेंगे.......