गुरुवार, अगस्त 02, 2007

अनुगूँज 22: हिन्दुस्तान अमरीका बन जाए तो कैसा होगा - पाँच बातें

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ये अनुगूँज में भी कहाँ - कहाँ से टॉपिक उठा लाते हैं, हाँ नहीं तो. बोले कि सोचो क्या होगा गर हिन्दुस्तान बन जाये अमरीका. हमने भी सोचा कि भैया कोई दिक्कत नहीं, केवल सोचने को ही तो कह रहे हैं, सही में थोड़े ही ना बना जा रहा है. लेकिन जब सोचा तो भइया सोच कर ही रूह भीतर तक काँप गयी. ऐसा झटका लगा कि मानो फ़िल्मों की सारी हिरोइनें अपना मेक-अप धो-धा कर सामने आ कर खड़ी हो गयी हों. दिल घबरा गया, धड़कन तेज़ हो गयी और मारे घबराहट के सू-सू आ गयी.
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सू-सू एक ऐसा ब्रह्मास्त्र है जो कि आपको विकट से विकट संकट से भी मुक्ति दिला सकता है. क्लास में मन नहीं लग रहा है – हाथ उठाइये और बोलिये टीचरजी सू-सू आई – और ये ल्यो भइया मिल गयी बाहर जाने की इजाज़त. ऑफिस में डेस्क पर बैठ कर ब्लॉग पढ़ते और लिखते बोर हो रहे हैं तो जाइये, सू-सू के बहाने घूम आइए.
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अब ये सब बातें पढ़ कर आप ये ना समझने लगिये कि मैं सैर करने बाहर जा रहा था. भई हमको तो डर के मारे सच्ची की सू-सू आ गयी. तो हम उठे और चल दिये ऑफिस के बाहर. अब आप सोच रहे होंगे कि ऑफिस के बाहर क्यों? तो भई, ऐसा नहीं है कि हम पहले से ही ऑफिस के बाहर सू-सू करने जाते थे. दो साल पहले तक तो हम ऑफिस के अंदर ही बना हुआ शौचालय इस्तेमाल करते थे. दो अलग अलग शौचालय थे हमारे ऑफिस में हुम्म! एक के दरवाज़े पर लिखा था “शौचालय पुरुष” और दूसरे के दरवाज़े पर लिखा था “शौचालय महिलाएँ”.
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अब क्या हुआ कि दो साल पहले किसी मनचले ने ‘महिलाएँ’ से ‘म’ मिटा दिया, तो भई दरवाज़े पर सिर्फ़ ये लिखा रह गया “शौचालय हिलाएँ”. उन्हीं दिनों एक नए रिक्रूट आये ऑफिस में, अब उनको पता नहीं था कि “शौचालय पुरुष” और “शौचालय हिलाएँ” में किधर जाना है. पता नहीं कि मनचले टाइप के थे या गलती से मिस्टेक हो गयी बेचारे “हिलाएँ” में चले गये. अब पूछिये मत, अंदर से जब साहब बाहर निकले, तो गाल पर सैंडिलों के निशान, मथ्थे पर गूमड़ और आँख ले नीचे काला. बात बड़े साहब तक पहुंची, और उन्होंने फैसला सुनाया कि आज से पुरुषों का शौचालय इस्तेमाल करना बंद. उस दिन के बाद से दोनो ही शौचालय “शौचालय हिलाएँ” बन गये हैं और हमें जाना पड़ता है ऑफिस के बाहर.
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तो ख़ैर साहब हम चले ऑफिस के बाहर ये सोचते हुये कि भारत यदि अमरीका बन गया तो क्या होगा? सबसे पहली बात जो हमारे मन में आई वो थी;
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1. भारत की सारी नई इमारतें कमज़ोर ही बनेंगी:
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आप पूछेंगे कि भइया वो कैसे? तो वो ऐसे कि ऊपर बताये प्रंसंग के बाद हम पुरुषों ने बाहर जुगाड़ ढ़ूँढ़ने शुरू किये. वो तो भला हो कि ऑफिस से लगे हुये खाली मैदान के चारों ओर पी.डब्लू.डी. ने दीवार बनानी शुरू कर दी और हमारी खोज वहीं समाप्त हो गयी. ऑफिस की तमाम पुरुष जाति ने एकमत होकर यह सोचा कि राष्ट्र के मज़बूत भविष्य के लिये हम भी योगदान देंगे. हमने ये फैसला किया कि मैदान के चारों ओर बनाई जा रही सरकारी दीवार की हम नियमित रूप से तराई किया करेंगे. बस, वो दिन था और आज का दिन है, हम सरकारी दीवार की तराई में अविरत लगे हुये हैं.
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भाई साहब, आप मानियेगा नहीं, आज दो साल हो गये हैं उस दीवार को बने हुये और ये हमारी तराई का ही नतीजा है कि उस दीवार पर लगाया गया पी.डब्लू.डी. का बालू ज़्यादा और सीमेंट कम वाला प्लास्टर भले ही धुल कर बह गया हो, भले ही उस दीवार की एक एक ईंट दिखती हो, लेकिन वह आज भी वैसे ही मजबूती से खड़ी हमारी अविरत तराई की दाद देती है.
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अगर भारत, अमरीका बन गया तो हमसे दीवारों पर सू-सू (तराई) करने का अधिकर छिन जायेगा. राष्ट्र निर्माण में सदुपयोगी सिद्ध होती सू-सू ना ही केवल सीवर लाइन के जरिये नदियों में मिल कर उनको प्रदूषित करेगी, बल्कि नये राष्ट्र की नई इमारतों को कच्चा करेगी.
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2. ज़मीन बंजर हो जायेगी:
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रेल गाड़ी में तो आपने अवश्य ही यात्रा करी होगी. रेल की पटरी के दोनों ओर हरे-भरे लहलहाते हुये खेत कितने मनभावन लगते हैं. क्या कभी आपने ये सोचा है कि वो कौन सी ताकत है जो रेलवे लाइन के किनारे के खेतों को हरा भरा रखती है? क्या आप हरियाले के उन अनजान सिपाहियों को जानते हैं जिनका नाम इतिहास के पन्नों में नहीं मिलता? अगली बार ट्रेन से यात्रा करते हुये ज़रा ग़ौर से देखियेगा (मुंबई की लोकल ट्रेनों के यात्रियों को बिना गौर किये ही दिख जायेगा), उन झाड़ियों के पीछे हमारे गाँव के जागरूक नागरिक, स्वेच्छा से और निःस्वार्थ भावना से ट्रेन की पटरी के किनारे अपना मल-दान करते हुये दिख जायेंगे.
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आगे बढ़ने से पहले आइये, हम इनके योगदान की सराहना करते हुये, इनके प्रति नतमस्तक होकर दो मिनट का मौन धारण करें.
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सोचिये, अगर भारत अमरीका बन गया तो मल-दान करते हुये, हरियाली के इन सिपाहियों को “अभद्र प्रदर्शन” के इल्ज़ाम लगा कर कारागार में डाल दिया जायेगा. बिना इनके आये, धरती प्राकृतिक उर्वरक के लिये तरसेगी. भूखी रह जायेगी हमारी हिरण्यगर्भा. सूख जायेंगे हरे भरे खेत. सोचिये क्या आप चेहरे हो अपने पंजे से ढ़ाँक कर (मनोज कुमार उर्फ़ भारत इश्टाइल में) ये गाना गा पायेंगे “मेरे देश की धरती सोना उगले..” नहीं ना!!
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ज़मीन को बंजर होने से बचाइये, हिन्द को हिन्द ही रहने दो कोई नाम ना दो.
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3. सारे पेड़ कट जायेंगे:
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एक मुश्किल ये भी कि भइ पेड़ धड़ाधड़ कट जायेंगे. पूछिये कि भाई वो कैसे? हाँ, तो वो ऐसे कि हम हिन्दुस्तानी अपनी नित्य क्रिया करने के पश्चात पानी के स्वयं को साफ़ कर लेते हैं. लेकिन अमरीका बनने के पश्चात हमें कागज़ या टायलेट पेपर इस्तेमाल करना पड़ेगा. (टायलेट पेपर के विकल्प के रूप में हम ‘द टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ इस्तेमाल नहीं कर पायेंगे क्योंकि अमरीका बनते ही वह भी बंद हो जायेगा).
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अब उस भयानक समय की कल्पना करिये जब कि तकरीबन 1,20,00,00,000 भारतीय (या अमरीकी) सुबह सुबह कागज़ का प्रयोग करेंगे. आपको तो महसूस भी ना होगा और आपके बैठे बैठे कितने ही पेड़ शहीद हो जायेंगे.
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1,20,00,00,000 लोगों की इस तुच्छ सी दैनिक माँग को पूरा करने के चक्कर में इतने पेड़ कटेंगे कि धरती सूनी हो जायेगी.
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4. शादी की बर्बादी हो जायेगी:
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हिन्दुस्तानी शादियों की चमक दमक के बारे में क्या बतायें. समझिये कि मेला ही लगता है. लोग कितने दिनों से तैयारियाँ करते हैं कि फलाने की शादी में जायेंगे. बीबी जी साड़ी और गहने खरीदती हैं और इसी बहाने मियाँ जी को भी एक ठो पैंट और कमीज मिल जाती है. बन्ना-बन्नी गाने का रियाज़ किया जाता है – बन्ने काला कोट सिलवाना, उसमें सोने के बटन लगाना. कुछ एक बन्नों को देख कर सोचता हूँ कि यदि इसने काला कोट सिलवा कर पहन लिया तो ये तो पता ही नहीं चलेगा कि बन्ना कहाँ खतम हुआ है और कोट कहाँ से शुरू हुआ है.
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लपक धपक सब शादी में पहुँचते हैं. महिला संगीत के बहाने महिलायें ढोलक पीट पीट कर ऊँचे सुरों में बन्ना-बन्नी गाती हैं. अरे इससे हमें क्या कि पड़ोसी के बच्चे का हाई-स्कूल का इंतहान है. पड़ोसी भी मन मसोस कर सिर्फ़ इसलिये चुप रह जाता है कि ‘गाओ, बेटा गाओ, पिंटू की शादी में लाउड स्पीकर लगवा कर महिला संगीत करवाऊँगा तब झेलना.’
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बीबी जी को मस्ती मारते देख कर मियाँ जी भी जोश में !! इधर बारात निकली और उधर मियाँ जी ने सोनी ब्रास बैण्ड वाले को बीस रुपये का पत्ता थमा कर फ़रमाइश करी – ‘नागिन वाना मन डोले मेरा तन डोले’ और ‘नया दौर वाला ये देश है वीर जवानों का’ वाला गाना बजाओ.
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बैण्ड वाला शुरू – और मियाँ जी ने जेब से रुमाल निकाल कर झाड़ा, एक कोना मुँह दाँतों के बीच में दाबा, दूसरा कोना हाथों में थामा और सपेरा बन कर शुरू, बन्ने के ताऊ जी भी जोशिया गये, सिर के ऊपर दोनों हथेलियाँ टांगी और अपनी थुलथुल तोंद और कमर हिलाते हुये नागिन बन कर नाचना शुरू. पूरा पिरोगिराम सड़क के बीचों-बीच. क्या मज़ा आता है.
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धीरे धीरे सारे बराती, बन्ने के दोस्त, ताऊ, चाचा, बाऊ जी, बाऊ जी के दोस्त सब के सब अपनी थुलथुली तोंद और कूल्हे हिलाते हुये सड़क पर चक्का जाम करते हुये नाचना शुरू. अब ट्रैफिक जाम, एम्बुलेंस या फायर ब्रिगेड के रुकने जैसी छोटी छोटी बातों से काहे अपना मूड खराब करें भाई. शादी कोई रोज़-रोज थोड़े ही ना होती है.
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शादी के दूसरे दिन होती है भात की रस्म. भात के समय नाते-रिश्ते, गली-मोहल्ले की औरतें मिल कर बरातियों को गालियाँ गाती हैं. गालियाँ सुन कर बराती इन महिलाओं को शगुन भी देते हैं.
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अब अगर भारत बन गया अमरीका तो जैसे ही औरतों ने ढ़ोल पीट कर गाना शुरू किया वैसे ही पड़ोसी ने मिलाया 911. इधर आप सड़क पर ट्रैफिक जाम करके नाचे उधर सारे के सारी बराती गये ‘ससुराल’. भात के समय महिलाओं ने गालियाँ गायीं तो समझो कि बरातियों ने उनको भी अभद्र भाषा के प्रयोग करने का लगाया इल्ज़ाम और जेल में किया उनका इंतजाम.
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शार्ट में ये समझिये कि शादियों से रस ही खतम हो जायेगा. वो बड़े बुज़ुर्ग जो आज युवाओं पर जोर डाल कर हकते हैं कि बेटा जल्दी से मेरे लिये एक बहू ला दे, वही कहेंगे कि मत कर शादी, ये भी कोई शादी है – ये तो शादी की बर्बादी है.
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अब जवानी कोई फिक्सड डिपासिट में रखने की चीज़ तो है नहीं, जवान लड़के-लड़कियाँ इसे बिना शादी के ही खर्च करने लगेंगे, इससे समाज का नैतिक पतन होगा. मान्यताओं को ठेस लगेगी. और सबसे बड़ी बात ये कि हम सड़क पर नाच नहीं पायेंगे!!
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ये तो हुयीं चार बातें.
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5. और भी ग़म हैं:
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- हम हाई वे पर उल्टी दिशा में गाड़ी नहीं चला पायेंगे.
- सड़क के किनारे लगे पान-सिगरेट के खोमचे उठ जायेंगे, असुविधा होगी.
- नेता जी अपनी प्रेयसी को गर्भवती करके, बदनामी से बचने के लिये उसकी हत्या नहीं करवा पायेंगे – ग्रॉड ज्यूरी को झेलना पड़ेगा
- सबके पास कार हो जायेगी जिसके चलते ट्रेनों में भीड़ कम हो जायेगी. इसका दुष्परिणाम यह होगा कि मुंबई की लोकल ट्रेनों में जो मुफ़्त की मालिश मिलती है वो बंद हो जायेगी.
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वैसे तो बहुत सी बातें हैं, लेकिन फ़िलहाल इतना काफ़ी!!

7 टिप्‍पणियां:

Neeraj Rohilla ने कहा…

बहुत दिनों के बाद दिखे लेकिन पूरे रंग में दिखे....

बहुत बढिया, मजा आ गया पढकर..

बेनामी ने कहा…

पेड कटना महसूस होगा अथवा नहीं,पता नहीं कागज का प्रयोग जरूर महसूस होगा। महाराष्ट्र के औरंगाबाद से कागज के जल उठने की खबरें भी आ सकती हैं। खुराक के हिसाब से सरंजाम जुटाए जाएँगे,कागज के ज्वलनशील गुण के कारण 'द्वि कंकडाणि'को यथोचित विकल्प माना जाए अथवा नहीं इस पर फ़ोर्ड फ़ाउन्डेशन सेमिनार आयोजित करेगा।

Dr Prabhat Tandon ने कहा…

इस भयनक सच का बोध करा के आपने हमरी आँखे खोल दीं , मजेदार कृति, बधाई !

आलोक ने कहा…

बढ़िया - खासतौर पर अफ़लातून की टिप्पणी।

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत हंसे भाई. अजब निराला अंदाज है. बहुत बढ़िया.

ePandit ने कहा…

हे हे, मजेदार, खूब फेंके हो भईया। :)

अनूप शुक्ल ने कहा…

सही है। इसीलिये हम लोगों को भारत को अमरीका बनने का विरोध करना चाहिये।