शुक्रवार, नवंबर 10, 2006

"El Ningun Fumar"

कल दोपहर को एक फोन आया। फोन पर जो नंबर दिख रहा था वह था तो सिंगापुर का लेकिन अपरिचित सा। सोचा ना जाने किसका फोन होगा, सकुचाते हुये फोन लिया, " हलो…!?"

"क्यों बे पहचाना?"

" अरे तुमको कौन भूल सकता है भाई!", मेरे पुराने मित्र रोहित जिनके साथ मैं 1991 में 'जग पालक' नाम के जहाज पर Sail किया था। पुराने दिनों की बातें छिड़ीं, कुछ इधर की कुछ उधर की फिर मैं ने रोहित को शाम को Dinner का न्योता दिया।

"नहीं यार खाने वाने पर आना मुश्किल है। हम यहां बस bunkering (re-fueling) के लिये रुके हैं और 4 - 5 घंटे में sail out कर जाएगे। हम तो बस anchorage से ही सिंगापुर की skyline निहार कर चलते हो लेंगे।"

इस छोटी सी वार्तालाप के खत्म होते ही एक पुरानी बात याद आ गयी। 1991 में 'जग पालक' पर हम दोनो साथ थे। 'Aviation Gasoline' load करने के लिये हमारा जहाज़ 'फ़्रांस' के 'लवेरा' बंदरगाह गया। उस समय हम Second Officer और रोहित Cadet हुआ करते थे। हम दोनो जहाज पर 'रात के राजा' के नाम से पुकारे जाते थे, और वो इसलिये क्योंकि पोर्ट में हम दोनों के duty hours हुआ करते थे 18:00 hours to 06:00 hours, यानि कि शाम के 6 बजे से सुबह के 6 बजे तक हम cargo watch पर रहते थे, मतलब सारी रात जगे रहते थे - इसलिये 'रात के राजा'।

अब क्योंकि रात भर जागते थे तो दिन भर की छुट्टी रहती थी, तो दिन में हम लोग घुमैय्या करने shore leave पर निकल जाया करते थे।

लवेरा में हमारा जहाज सुबह 10 बजे berth हुआ। मतलब यह कि मैं और रोहित शाम के 6 बजे तक यानि कि पूरे 8 घंटे मुक्त! सोचा कि चलो भैया घुम्मी घुम्मी कर आयें। नहा धो कर, सेंट वेंट लगा कर हम दो छड़े निकल पड़े।

Gangway से उतर कर कुछ दूर चले थे कि रोहित ने बड़े दार्श्निक अंदाज़ में पूछा, "अबे इस जगह का नाम क्या है?"

"लवेरा"

"लवेरा तो पूरे पोर्ट का नाम है, इस जेट्टी का क्या नाम है?"

"क्यों?"

"इसलिये कि लौटते समय 'कैबी' से क्या कहोगे कि भैया 'यहां' जाना है!"

"हां यार, सही कह रहे हो…लेकिन मुझे मालुम नहीं है। देख, कहीं आस पास कोई साइन बोर्ड लगा होगा - जिस पर यहां का नाम लिखा हो…।"

हम दोनों ने गिद्धों की तरह इधर उधर नज़रें घुमायीं।

रोहित की आंखें शायद ज़्यादा तेज़ रही होगी, फट्ट से बोले, " अबे वो देख सामने बोर्ड लगा है, गेट के पास।"

मैं ने बटुए से एक पुरानी मुड़ी तुडी रसीद निकाली और पेन लेकर बोर्ड की ओर बढ़ लिये। पास पंहुचे तो मैं थोड़ा झुंझला भी गया," अबे ये केवल फ़्रेन्च में ही क्यों लिखते हैं, इंगलिश में भी लिखना चाहिये ना!"

"की फ़रक पैंदा यार, स्क्रिप्ट तो रोमन ही है ना! तू लिख मैं स्पेलिंग बोलता हूं।"

रोहित की बताई स्पेलिंग मैं ने ध्यान से लिख ली, जगह का नाम कुछ इस प्रकार का उभर कर आया “EL NINGUN FUMAR”.

“बड़ा अजीब नाम है!” मैं ने प्रतिक्रिया करी।

“हमें क्या करना, इनका देश है जो चाहे नाम रखें…वैसे भी फारेन में तो मुझे हर चीज अजीब लगती है। स्याले अपना देश इतना साफ़ कैसे रख लेते हैं, यह भी अजीब लगता है…।“ बिना मतलब की इस टिप्पणी पर हम दोनो हें हें करके खूब हंसे!

खैर गेट के बाहर से एक कैब पकड़ कर शहर गये, घूमे-फिरे, फ़्रेन्च काफ़ी पी, वाइन वगैरह चखी, घर फोन किया बातें करी और फिर रोज मर्रा की चीज़ें खरीद कर वापस जहाज़ पर आने की सोची।

सड़क के किनारे एक कैब को फ़्लैग किया, उसने गाड़ी रोकी और खिड़की से मुण्डी बाहर निकालते हुये कहा, “ काला अक्षर भैंस बराबर।“ (मतलब कि भगवान जाने उसने फ़्रेंच में क्या कहा हमारे लिये तो वह काला अक्षर भैंस बराबर ही था।)

“लवेरा पोर्ट्।“

“काला अक्षर भैंस बराबर।“

“ल वे ए रा आ पो ओ ओ र त”, हमने धी ई ई ई ई ई रे - धी ई ई ई ई ई रे अपनी बात कही।

“काला अक्षर भैंस बराबर।“

तभी रोहित को पर्ची का ख़्याल आया, “ अबे इसे पर्ची दिखा, समझ जाएगा।“

मैं ने झट पट जेब से पर्ची निकाली और कैबी हो दिखाई। उसने ध्यान से पर्ची देखी फिर बड़े ही विस्मित भाव से हमारी ओर देखते हुये कहा, “काला अक्षर भैंस बराबर।“ और हंसते हुये वहां से गाड़ी ले कर फुर्र हो गया।

हमें बड़ी गुस्सा आई। Anyway, हमने फ़ैसला किया कि हम कैब स्टैंड से जाकर कैब लेते हैं। वहां पहुंचे तो 6 -7 कैब्स खड़ी थीं।

हम पहले वाले के पास गये और बिना टाइम वेस्ट किये हुये उसको पर्ची थमा दी और उंगली से पर्ची की ओर इशारा करते हुये कहा, “ Go here.”

“काला अक्षर भैंस बराबर।“

“Yes, yes go here…go here…”

“काला अक्षर भैंस बराबर।“ बड़बड़ा कर वह ज़ोर ज़ोर से हंसने लगा। हमें थोड़ा गुस्सा आया, थोड़ी झुंझलाहट हुयी और काफ़ी शर्म सी भी आयी। खैर उसको छोड़ कर हम अगले कैबी के पास गये लेकिन वहां भी ऐसा ही कुछ हुआ।

रोहित के लिये यह अब असहनीय होता जा रहा था, अगले कैबी तक पहुंचते हुये बोला “अबे पर्ची फेंक मैं बोल कर ही समझाता हूं।“

अगले कैबी के पास आकर रोहित बोला, “लवेरा पोर्ट!”

“काला अक्षर भैंस बराबर।“

रोहित ने तमाम Sailors की सबसे लोकप्रिय भाषा यानी सांकेतिक भाषा का प्रयोग करने की सोची और फिर मुंह पर हाथ लगा कर जहाज़ के भोंपू की आवाज़ निकाली, “ भों ओ ओ ओ …।“

“काला अक्षर भैंस बराबर।“ कैबी बोला।

रोहित डटा रहा और अपनी ‘डम्ब शेराड’ की योग्यता का अविरत परिचय देता रहा, इस बार उसने अपने हाथ पंखों की तरह दायें बायें उठा कर इधर से उधर झूमने लगा बिलकुल वैसे ही जैसे खराब मौसम में जहाज़ Rolling करता है। और साथ में बोलता भी गया, “ Ship…..Loading…..Petrol…..Boat…..Port……Big Ship…… Foreign….. Come in……Go out…….Sea……Seaman……Seafarer……” उसका यह तरीका मुझे बड़ा रोचक लगा और सोचा कि मैं भी इसमें कुछ योगदान करूं।

तो उधर रोहित संकटमोचन को याद करके हनुमान चालिसा बांच रहे थे इधर मैं भी हाथ उठा कर Rolling करते हुये सुंदर काण्ड का पाठ करने लगा, “ Tanks….Tanker….Oil Tanker….. Ship Tanker….. Port….. Quay….. Jetty….. Berth…. Harbour…..”

भगवान जाने इतने सारे शब्दों में से उसे कौन सा समझ में आया अचानक वह बोला, “Ok Ok….” और हमें कैब में बैठने का इशारा किया। हमारी सांस में सांस आयी और इसके पहले कि वह अपना दिमाग बदलता हम लप्प से कैब में घुस गये।

कैब चल तो पड़ी लेकिन लगता था कि कैबी को हमारी बात पूरी तरह से समझ में नहीं आई थी। वो भी काफ़ी देर तक इधर उधर भटकते रहे। हम दोनों भी अपनी अपनी खिड़कियों से look out रखे हुये थे कि शायद कोई जाना पहचाना landmark दिख जाये। तभी दूर हमें अपने जहाज़ की Funnel (जिससे धुंआ निकलता है – चिमिनी) दिखी, हम दोनों ने लगभग कूदते हुये एक साथ बोला, “There…there….our ship.”

इस तरह रो पीट कर हम जैसे तैसे ‘अपने घर’ पंहुचे।
बाद में पता चला कि बोर्ड से हमने अपनी पर्ची पर जो "El Ningun Fumar" टीपा था वह दरअसल उस जगह का नाम नहीं था बल्कि वह एक चेतावनी लिखी थी जिसका अर्थ होता है "धूम्रपान निषेध"। लौट के बुद्धू घर को आये।

हर नाविक का अपने जहाज़ से एक अजीब सा नाता होता है। मालूम तो होता है कि कुछ ही महीनों में इस जहाज़ से विदा लेकर ‘घर’ वापस जाना है। लेकिन कुछ दिन या कुछ महीने जो उस जहाज़ पर बिताता है, वो उसकी ज़िंदगी का हिस्सा बन कर हमेशा उसके साथ जीते रहते हैं। कभी भी जब उन जहाज़ो की फोटो देखता हूं, जिन पर कभी काम किया था तो मुंह से यही निकलता है, “My Ship!”.

मेरे आफिस की खिड़की से सिंगापुर हार्बर दिखता है, लंगर गिराये खड़े हुये जहाज़ भी दिखते है। और उन जहाज़ों के डेक्स पर एक अलग किस्म की ज़िंदगी सांस लेती हुयी दिखायी देती है।

शहर की तेज़ी से भागती, नोंच खसोट करती, दूसरे को धक्का देती हुयी, कुचलती हुयी, प्रदूषण से भरी ज़िंदगी से दूर एक ऐसी ज़िंदगी जहां 9 से 5 नहीं है, हवा में प्रदूषण नहीं है, गले में टाई नहीं है, सेमिनार नहीं है, Cocktails & Curtains down नहीं है…

शोर है तो बस समुद्र की लहरों का, रात है तो इतनी अंधेरी की सारे तारे बिलकुल साफ़ नज़र आते हैं, सुबह का सूरज रोज़ सुबह समुद्र से नहाते हुये निकलता है, धुंये और गर्द का कंबल ओढ़े हुये नहीं। और इन सबके बीच में क्षितिज के उस पार अपनी मंजिल की ओर बढ़ता एक जहाज़ है, एक नाविक है जो बिना रास्तों के महासागर में भी अपने रास्ते बनाता हुआ मंज़िल पाने का हौसला रखता है, तूफ़ानों से लुका छिपी खेलता है - एक ऐसा गुमनाम इंसान जिसके पैरों के निशान तक हम पानी में नहीं ढ़ूंढ पाते हैं…। लेकिन फिर भी उसके दिल में उमंग है और होठों पर है यह गीत,

We’re on the road
We’re on the road to anywhere

With never a heartache
With never a care

Got no homes
Got no friends

And thankful for anything
The Good Lord sends
EOSP @ 17:30 hrs on 10-Nov-2006.

बुधवार, नवंबर 08, 2006

संघर्ष हमारा नारा है


सारी उम्र हमने अपनी ‘रचनायें’ तमाम पत्र – पत्रिकाओं में छपवाने की मंशा से भेजीं लेकिन हर बार यह पर्ची हाथ लगी – “संपादक के अभिवादन परंतु खेद सहित”। हमारे पास इन पर्चियों का एक बेहतरीन कलेक्शन हो गया। भारत का कोई ऐसा पत्र या पत्रिका नहीं थी जिसने हमें यह पर्ची ना भेजी हो। कुछ ही वर्षों में हम इतने नामी गिरामी हो गये कि तमाम संपादक गण तो हमारा हस्त लेख भी पहचानने लगे और फिर लिफाफा खोलने की भी ज़हमत नहीं करते थे, इधर हमारी डाक पंहुची और उधर उन्होंने अगली ही डाक से हमारी ‘रचना’ बिना पढ़े और हमारा लिफाफा बिना खोले सट्ट से हमें वापस भेजा।

यहां हम फाटक पकड़े खड़े हैं कि डाकिया बाबू आकर कोई शुभ समाचार देंगे उधर डाकिया बाबू आकर हमारी ही चिठ्ठी हमें धरा गये। यकीन मानिये बहुत फील हो जाता था। हमारे अंदर भवनाओं का सागर लहरा रहा था और हम एक से बढ कर एक रोमांटिक कविता लिख रहे थे और ये ससुरे संपादक थे कि छापते ही नहीं थे। इससे पहले कि मैं अपनी cयथा-कथा आगे बढ़ाऊं आप खुद ही मेरी एक अद्वितीय कविता का आनंद लीजिये, और खुद की देखिये कि हम भी कैसे श्रेष्ठ कवि हैं;

प्रिये मैं तुमको प्रेम करता हूं
प्रिये मैं तेरी सांसो में रहता हूं
प्रिये स्वप्न में तेरे दर्शन कर लिये
तुझे आलिंगन में भर चुंबन लिये

तेरे बच्चे जियें
बडे हो कर तेरा खून पियें।

(ऊप्स! यह अंतिम दो पंक्तियां गलती से यहां आ गयी हैं, इनका इस कविता से कोई लेना देना नहीं है। यह पंक्तियां उन मरदूद संपादकों के लिये लिखी गयी थीं जो मेरी विश्वस्तरीय रचनाओं को छापने से इंकार करते रहते थे।)

तो क्या कहना है आपका? श्रंगार रस की चासनी में डूबी मेरी यह रचना है ना दिल को छू लेने वाली! वैसे यह मेरी श्रेष्ठतम रचना है, बाकी की रचनायें भी एक-एक करके अपने ब्लाग पर डालूंगा ताकि आप लोग भी खूब ‘इन्जाय’ कर सकें।

जब मेरी सुंदर रचनायें नहीं छपीं तो मुझे लगा कि ज़रूर कोई गड़बड़ है, मैं ने कार्य सिद्ध करने का एक पारम्परिक तरीका अपनाया। एक प्रतिष्ठित पत्रिका के संपादक को मैं ने cयक्तिगत पत्र लिख कर कहा कि ‘माननीय महोदय, यदि आप मेरी रचना अपनी पत्रिका में छापते हैं तो मुझे जो भी पारिश्रमिक मिलेगा उसका आधा मैं आपको भेंट चढ़ा दूंगा।‘ फिर भी जब कोई जवाब नहीं आया तो मैं ने आफ़र और बढ़ाते हुये कहा कि भैया पूरा ही पारिश्रमिक धर लो लेकिन कम से कम मेरी रचना तो छापो। ऐसा बद्तमीज़ संपादक था कि छापना तो दूर उसने हमारे पत्र का जवाब तक नहीं दिया। बताइये कर्टसी नाम की कोई चीज ही नहीं रही। नामाकूल!

हमें इससे थोड़ी पीड़ा तो ज़रूर हुयी लेकिन हमने हिम्मत नहीं हारी। देखिये, हम पक्के हिन्दुस्तानी हैं और अपने देश की परंपरा से पूरी तरह वाकिफ़ भी हैं। बुरा मत मानियेगा, लेकिन हमारे देश में प्रतिभा का आंकलन करने वालों की बहुत भयंकर कमी है। सही कह रहा हूं कि नहीं? टैलेन्ट की कोई कद्र ही नहीं है। साहिर साहब भी कह गये हैं ‘ये बस्ती है मुर्दा परस्तों की बस्ती’। हम भी साहिर साहब की बातों से सहमत हो गये।

हमने किस्मत को भी बहुत कोंसा। यही अगर हम अमरीका में पैदा हुये होते, तो किसी फेमस बैंण्ड के लिये गीत लिख रहे होते। अगर किसी हार्ड राक बैंण्ड में शामिल गये होते तो काम और भी आसान हो जाता, गाना – वाना तो लिखना नहीं होता है बस पंद्रह बीस चुनिंदा गालियां लिखते और बन जाते गीत कार। पूर्वजन्म के पापों का फल है कि ‘यहां’ पैदा हो गये जहां कोई भी हमारी प्रतिभा को नहीं पहचानता है।

आप भी हमारी हिम्मत की दाद दीजिये हम हताश नहीं हुये। ‘नर हो ना निराश करो मन को’ का नारा लगाते हुये मुन्ना भाई की तरह लगे रहे। अपनी लेखनी की स्याही को कभी सूखने नहीं दिया – घसा-घस कागज पर घिसते रहे भका-भक एक के बाद एक बेहतरीन से बेहतरीन कवितायें लिखते रहे। कविता रस तो मुहासों से भी तेजी से फूट रहा था और हम भी जमे रहे, एक ही दिन में कभी बीस तो कभी पचास कविता लिख देते। मैक्सिमम रिकार्ड है एक ही दिन में 67 कविता लिखने का। हमें मालुम था कि जब हम आपको यह बताएंगे तो आप सभी ज्ञानी आत्मायें दाँतों तले उंगली दबा कर भौंचक्के रह जायेंगे। अब, आप लोग शर्मिंदा मत होइये हमारे जैसा ‘गिफ़्टेड’ इंसान हर एक नहीं हो सकता है ना! अपने अंदर हीन भावना मत आने दीजिये। प्लीज़ हाँ!

ज़माने ने भले ही हमें हज़ार ठोकरें मारी हों, लेकिन हमारे मित्रों ने कभी भी हमें हताश नहीं होने दिया। शाम को हम सब मित्र लल्लन की चाय की दुकान पर मिलते थे और वहीं मैं अपनी दिन भर की रचनायें अपने मित्रों को बांचता । सब बड़ा ध्यान लगा कर सुनते और मेरी कल्पनाओं की दाद देते। अरे, लल्लन तक हमारा कायल हो गया, हमारी कविता सुन कर हमें मुफ़्त में ही चाय देने लगा। आपने वह गज़ल तो सुनी होगी,

“तेरे जहान में ऐसा नहीं के प्यार ना हो
जहां उम्मीद हो इसकी वहां नहीं मिलता”

हमारे साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा था, लल्लनवा तक हमारी कविता समझता और तारीफ़ करता और वो मुये संपादक हमारी कद्र ना कर सहे। ससुरे जरूर घूस दे कर या राजनीतिक दबाव डलवा कर संपादक बने होंगे। अरे यहीं तो धोखा खा गया इंडिया! खुदा मेहरबान तो गधा पहलवान – जुगाड़ी लोग ऊंचे आसन पर और हम जैसे प्रतिभावान पैरों तले।

इन्हीं बैठकों में मैने एक कविता सुनाई थी जो मेरे मित्रों को (और लल्लन को भी) बहुत पसंद आई थी। आगे चलने से पहले आप भी सुन लीजिये, अरे प्लीज कह रहा हूं सुनिये ना;

प्रिये…
तेरी जुल्फों में सुबह करूं शाम करूं
हसरतों को तेरे इश्क का ग़ुलाम करूं
लोग पत्थर का ताज दिया करते हैं
मैं तो ज़िंदगी ही तेरे नाम करूं

अरे पूछिये मत! शेर सुनते ही लोग बावले हो उठे – सबने बारी बारी हमें गले लगाया, राजिन्दर ने तुरंत बेनी लाल हलवाई की दुकान से पाव भर इमरती मंगवा कर सबका मुंह मीठा करवाया और लल्लन ने अपने गल्ले से सवा रुपया निकाल कर हमारे हाथ पर रखा और अंगौछे से अपनी डबडबाती आखों को पोछते हुये कहा, “ ई हमरी ओर से सगुन रख ल्यो, एक दिन बहुतै बड़े कवि बनिहौ, सूरदास अउर तुलसीदास कै माफिक।“

वैसे तो लल्लन भैया की बात बुरी लगी, अरे कहां हम और कहां ये मामूली पुराने जमाने के कवि कोई कम्पारिज़न है भला;

वैसे तो लिखते थे कविता तुलसी-सूर व काली दास
जब हमने थामी हाथ कलम, वो लगे छीलने घास

खैर इन्ही बैठकों में एक दिन हमारे मित्र राजू ने हमसे कहा, “ गुरू बिना इश्क लड़ाये और बिना दिल पर चोट खाये इतनी धांसू कविता लिख लेते हो, अगर तुमको इश्क हो जाये या दिल पर चोट लगे तो यार तुम्हारी कविता की दाल में हींग और लहसुन का छौंका लग जायेगा। गुरू इश्क लड़ा लो!”

राजू की बात में दम तो था, लेकिन इश्क की फील्ड में हमने अभी तक बैटिंग करी नहीं थी सो हम सकपका गये। उसी से पूछ लिया, “ यार मन तो बहुत है, लेकिन कोई राह नहीं सूझ रही है, तुम ही कोई राह बताओ…।“

“ओम्में कौन सी बड़ी बात है, कल सुबह साढ़े आठ बजे तैयार रहना, हम ले चलेंगे तुमको…”

राजू इतना क्विक इंतजाम कर दिये तो हमें बहुत शक हुआ और हमने साफ़ साफ़ कह दिया, “देखो भाई राजू, हमको कोई ऐसा-वैसा मत समझो! हम दिल पर चोट खाने के लिये कोई जोहरा बाई या चंद्रमुखी के कोठे पर नहीं जायेंगे, हमें लूज करक्टर आदमी मत समझिये आप - हाँ नहीं तो!”

“अरे काहे परेशान हो रहे हो यार, हमें मालूम है आपके चरित्र के विषय में – आपको चंद्रमुखी नहीं पारो से ही मिलवायेंगे, फिर आगे आपकी मर्ज़ी।“

इश्क करने और दिल तुड़वाने का ऐसा एक्साइटमेंट हुआ कि रात भर सो ना सके, सुबह छ: बजे बिस्तर से उठे स्नान किया, सर में बढ़िया खुश्बूदार ‘केयो कार्पिन’ का तेल मला (वैसे आम तौर पर हम सरसों का तेल लगाते हैं पर खास मौकों पर यह मंहगा वाला तेल लगाते हैं) बढ़िया से बाल सेट किये, साफ़ सफ़ेद पतलून पहनी और छींट वाली रेशमी बैगनी शर्ट पहन कर राजू का वेट करने लगे।

राजू ठीक समय पर आ गये और बाहर से ही कलेजा फाड़ फाड़ कर बुलाने लगे। हमने धप्प से साइकिल निकाली, आंख पर गागल (धूप का चश्मा) पहना और चल पडे राजू के साथ। रास्ते में राजू ने बताया कि हम “जी जी आई सी” यानि गारमेन्ट (कुछ लोग गवर्नमेन्ट या सरकारी भी कहते हैं) गर्ल्स इंटर कालेज, जा रहे हैं।“

वहां पहुंच हमने साइकिल स्टैंड पर चढ़ाई और आती जाती बालिकाओं को निहारने लगे, सोचते हुये कि इनमें से वह कौन सी भाग्यशाली बालिका होगी जो इस कवि की प्रेरणा बनेगी। नज़र घुमा कर देखा तो केवल हम और राजू ही नहीं थे लगता था शहर के सारे युवक वहां अपनी अपनी प्रेरणा की लालसा में वहां आये हुये थे।

कई दिनों तक हम स्कूल लगने और छूटने के समय बिना-नागा गारमेंट कालेज के सामने हाजिरी लगाते रहे, हमें तो हर लड़की से इश्क हो गया पर दूसरी ओर से किसी लड़की का कोई सकारात्मक रिस्पांस नहीं आया। फिर एक दिन दो बालिकाओं ने हमारी ओर देखा और फिर आपस में कुछ कह कर खिलखिलाने लगीं।

राजू ने भी देखा, भाग कर पास आकर बोला,” गुरू मुबारक हो, मेहनत रंग लायी्। वो लम्बी वाली तुम्हें देख कर हंसी – और जो हंसी वो फंसी। आखिर तुमने लड़की फंसा ही ली।“

बड़ी गुस्सा आई, मैं ने डांटते हुये कहा, “ कैसे सस्ते शब्दों और ओछी भावनाओं का प्रदर्शन कर रहे हो!! फंसी नहीं मेरे भाई, उसे मुझसे प्रेम हो गया है – पवित्र, पावन प्रेम – इश्क।“

उस रात मेरे भीतर कविता का रस ऐसा फूटा कि लगा कि इसके प्रवाह में पूरी सृष्टि कहीं बह ना जाये, आप भी सुन लीजिये, अरे प्लीज कह रहा हूं सुनिये ना;

प्रिये……
ऐ प्रिये……
तेरी किलकारियां दिल में समा गयी
मुझ वाइज़ को काफ़िर बना गयी
रात दिन इबादत किया मैं करता था
इश्क की मय मुझे पिला गयी

अगले दिन हमने हिम्मत करी और लम्बी वाली लड़की के पास जाकर बोल दिये, “एसकूज मी, आई लव यू!” बोलने की देर भर थी कि एक झन्नाटे दार थप्पड़ सीधा मेरे गाल पर – तड़ाक! और फिर ये शब्द, “ अबे मजनू के भतीजे, पापा से कह कर दोनो हाथ कटवा दूंगी ना खाने लायक रहोगे ना धोने लायक – बड़े आये हैं लव यू।“ लम्बी वाली लड़की पलट कर चल भी दी और हम वहीं खड़े के खड़े रह गये गाल पर हाथ धरे हुये। बड़ी ज़िल्लत हुयी बीच सड़क पर तमाचा खा गये। कनखिया के इधर-उधर देखा तो राजू भाई नीम के पेड़ के पीछे दुबक कर छिपे हुये थे। बाकी के आशिक , जो मेरी तरह दैनिक हाजिरी लगाने वहां आया करते थे, अपनी साइकिल पर भका-भक पैडल मारते हुये भागे जा रहे थे।

“यार बड़ी बद्तमीज़ लडकी है!” राजू पेड़ के पीछे से आते हुये बोले।

“नहीं राजू मुझे कोई ग़म नहीं है! देखो मैं ने एक ही दिन में इश्क भी कर लिया, दिल पर चोट भी खा ली और बेवफ़ाई भी देख ली! अब देखो कविता में तड़के का असर!”

उस रात मैन ने यह कविता लिखी आप भी सुन लीजिये, अरे फिर से प्लीज कह रहा हूं भाई सुनिये ना;

ओ वेवफ़ा
शीशा हो या दिल हो टूट जाता है
अच्छा सिला दिया तूने मेरे प्यार का
पत्थर के सनम जा तुझे माफ़ किया

कैसी लगी? है ना कविता में गहराई!

इन सब के साथ साथ मेरा “संपादक के अभिवादन परंतु खेद सहित” वाली पर्चियां इकट्ठा करने वाली दिनचर्या पहले ही तरह ही चल रही थी। मन में एक विचार आया सोचा क्यों ना अपने इस कलेक्शन से ही ख्याति प्राप्त करी जाये। लप-झप करके तुरंत “लिमका बुक” और “गीनिज़ बुक” को अपनी नायाब उपलब्धि के बारे में बताया, उन्होंने अपने प्रतिनिधि भेजे। हमारे कलेक्शन की गिनती हुई और फिर वो भी ये थमा कर चलते बने “अभिवादन परंतु खेद सहित” जाते जाते कह गये, “ आप तो टाप 100 में भी नहीं आते – बिना वजह हमारा समय खराब किया।“

ज़माने से हमारी जंग और हमारा संघर्ष ऐसे ही चल रहा था कि एक दिन राजू देव रूप धर हमारे सामने प्रकट हुये,” गुरू ये संपादकों को मारो गोली, अपनी कविता खुद क्यों नहीं छाप देते।“

“खुद!? कैसे भैया?”

“ब्लाग पर”

“मतलब?”

“मतलब अपना ब्लाग बनाओ, तुम ही लेखक, तुम ही संपादक और तुम ही प्रकाशक। इंटरनेट पर सारी दुनिया पढ़ेगी – विदेशों में भी लोग पढ़ सकेंगे।“

“विदेशी भी हिन्दी पढ़ते हैं?”

“विदेशी नहीं, अपने देशी जो वहां जाकर बस गये हैं ना, वो पढ़ते हैं। अब क्या करें बेचारे विदेश में उनको बहुत आइडेन्टिटी क्राइसिस हो जाती है तो काले-गोरों के देश में भूरे देशी अपनी पहचान बनाये रखने के लिये बहुत कुछ करते रहते हैं, हिन्दी पढ़ते-लिखते हैं, कुर्ता धोती पहनते हैं, विदेश में ‘थम्स अप’ और ‘किसान टोमाटो सास’ ढूंढते हैं…। भारत माता के प्रति उनका प्रेम और बढ़ जाता है। जब यहां रहते थे तो ‘फारेन – फारेन’ गाते थे और अब वहां पर दिन रात देश का नाम लेकर रोते रहते हैं – मेरा गांव मेरा देश। बेचारे ना घर के रहे ना घाट के।“

“यार ये ब्लाग तो बढ़िया चीज़ बता दिये हो, नेक काम में देर नहीं करनी चाहिये, मैं तुरंत बिस्मिल्ला करता हूं।“

इस प्रकार हम संपादकों के क्रूर हाथों से निकल कर आत्मनिर्भर होने की ठान ली जिससे मैं अपनी अभूतपूर्व प्रतिभा से अद्वितीय हिन्दी साहित्य का सृजन कर हिन्दी भाषा पर उपकार कर सकूं।

मैं जानता हूं इस कवि की संघर्ष गाथा सुन कर आपके हृदय द्रवित हो उठे होंगे तथा आपकी आंखे छलक गयी होगी। पर हर महान और क्रांतिकारी व्यक्ति का जीवन ऐसा ही होता है संघर्ष और चुनौतियों से भरा हुआ। मेरे महान व्यक्तित्व और उपलब्धियों से प्रेरित हो कर आप अपना निराशा भरा जीवन संवार सकें इसलिये मैं शीघ्र ही प्रेरणापूर्ण इस लेख की अगली कड़ी ले कर फिर आऊंगा।

तब तक, संघर्ष करो!

शुक्रवार, नवंबर 03, 2006

भगवान के संदेशवाहक

करीब हफ़्ता - दस दिन पहले की बात है, खाना-वाना खा कर हम बैठे बच्चों से बतिया रहे थे कि अचानक मोबाइल फोन से “टु टु टु टू टू टु टु टु टु” की परिचित आवाज़ आई। “पापा का SMS आया,” कह कर बेटाजी गये और हमारा फोन उठा लाये, आते आते बेटाजी ने इनबाक्स में जा कर संदेश खोल भी दिया और आकर फोन मुझे थमा दिया। मोबाइल देख कर हम तो कांप गये यह लिखा था,

Ignore mat karma
nahi to 1-2 saal tak
unlucky ho jaoge “
sabka malik ek”
8 logon ko
bhejo, ek achi
khabar milegee rat
tak.Its real..

पहली लाइन पढ़ कर भयावह दृश्य सामने घूम गया कि हम मुम्बई की लोकल ट्रेन में, गले में हारमोनियम टांगे “दिल के अरमां आंसुओं में बह गयेएएए…” वाला गाना गा गा कर कटोरा लिये घूम रहे हैं।

थोड़ा अच्छा भी लगा कि चलो भाई विदेश में आ कर हम अपनी ‘अच्छी वाली’ संस्कृति, ‘अच्छे वाले’ संस्कार और भाषा भले ही भूल रहे हों अपने अंधविश्वास पर अभी भी पूरी तरह कायम हैं। गुस्सा भी आया कि भेजा किसने? देखा तो और कोई नहीं हमारे एक परम हितैषी, भारतीय मित्र राजू जी, हमारे लिये संकटमोचन का वेश धरे बैठे थे।

यह गनीमत थी कि बीबीजी आस पास नहीं थीं, नहीं तो यह संदेश पढ़ कर लकड़ी की अनुपस्थिति में, घर का सारा फ़र्नीचर फूंक कर तुरंत हवन-पूजा शुरू कर देतीं और नारियल की अनुपस्थिति में मेरी मुण्डी ही फोड़ी जाती। हमने धीरे से फोन जेब में चेंपा और बच्चों से कहा कि जाओ भाई बहुत रात हो गयी है – सो जाओ! फिर रसोई में झांक कर देखा बीबीजी अभी भी काक्रोच मारक स्प्रे लिये cयस्त हैं।

हम पतली गली पकड़ कर बालकनी में गये और राजू का फोन घनघना दिये, अब पता नहीं कि साहब सोने की तैयारी कर रहे थे या हमारा फोन नहीं उठाना चाहते थे…काफ़ी देर घंटी बजने के बाद साहब ने फोने उठाया और मुर्दही आवाज़ में बोले,” हां भाई अनुराग, क्या हाल चाल हैं?”

“अबे, हाल चाल गया तेल लेने को ये क्या SMS भेजा है?”
थोड़ा खिसिया के बोले,” अरे यार वो……बस ऐसे ही……मुझे आया था तो तुमको भी भेज दिया।“

“बड़ा मिल बांट कर चलने वाली आदतें डाल रहे हो, हम तो भैया कायल हो गये तुम्हारे! कल अगर भगवान मेरे लिये गिफ़्ट रैप करवा कर कैंसर रोग लायेंगे तो हम भी उनसे कह देंगे – आधा राजू भाई को भी दे दो……”

“अरे शुभ शुभ बोलो यार, मुंह में सरस्वती का वास होता है, भगवान ना करे……“

“क्या हुआ? किसके कैंसर से कांप गये – मेरे या तुम्हारे…। रात बिरात ये टेंशनिया मैसेज भेजे हो इसका क्या करूं…?”

“करना क्या गुरू, आठ लोगों को बढ़ा दो।“

“भैया हम तो आठ देसियों को यहां जानते भी नहीं परदेस में, जिनको जानता हूं वो क्लाइंट्स हैं। अगर उनको यह भेजा तब तो तुरंत ही दुर्दिन शुरू हो जायेंगे।“

राजू भाई को यह बात बहुत ‘फन्नी’ लगी, हा…हा…करके हंसते हुये बोले,” प्राबलम है तब तो…किसी को भी नहीं जानते?”

“मेरे ज्यादातर मित्र तो लोकल हैं चाइनीज़, उनको भेजूंगा तो आठ के आठों रात भर फोन करके इसका मतलब पूछेंगे, सारी रात जगना पड़ेगा।“

यह बात राजू को और भी जोर से गुदगुदा गयी, पूरा फेफड़ा फाड़ कर हंसे। पैदा होने से लेकर आज तक जितनी कार्बन डाई आक्साइड उनके फेफड़ों में जमी थी, इस हंसी से पक्का निकल गयी होगी। हांफ हांफ कर बोले,” यार तुम बड़े ‘जोकी नेचर’ के हो…” और अमरीश पुरी की तरह हो हो करते हुये, बिना कोई राह सुझाये फोन भी धर दिये।

हमने फिर SMS पढ़ा “ek achi khabar milegee rat tak” हमने सोचा कि रात तो हो ही चुकी है मतलब कि अच्छी खबर आने की डेड लाइन तो एक्सपायर हो चुकी है, तो काहे को बिना वजह आठ लोगों की नींद हराम करूं और साथ में आठ SMS का खर्चा अलग। खर्चे वाली बात हमारी खोपड़ी में जल्दी घुसी और हमने लप्प से वह SMS delete कर दिया।

रात भर हम भगवान जी के बारे में सोचते रहे। इस घोर कलयुग में उनको भी ‘आइडेन्टिटी क्राइसिस’ हो गयी है।

पहले स्वर्ग का प्रलोभन और नर्क का भय दिखा कर अपनी सत्ता चला ले जाते थे लेकिन अब आज के बंदे हैं कि मरणोपरांत स्वर्ग जाना ही नहीं चाहते “यार स्वर्ग में अकेले बोर हो जायेंगे, यार दोस्त तो सारे नर्क में रहेंगे ना – मुझे तो उनके साथ ही रहना है, और फिर अर्जुन सिंह की कम्बल परेड भी तो करनी है।”.

यदा कदा लोग अपना अधूरा काम पूरा होने की कामना करते हुये मंदिर की चौखट पर घूम फिर आया करते थे, अब उसकी भी जरूरत नहीं, घूस घास दे कर काम ऐसे ही बन जाते हैं और अगर ना बने, तो किसी ‘भाई’ की शरण में जाकर बंदे को टपकवा सकते हैं – मंदिर की तुलना में ‘भाई’ का दरबार ज्यादा इफ़ेक्टिव है! मंदिर में तो फिर भी शंका रह जाती है कि पता नहीं भगवान जी सुनिहैं कि ना सुनिहैं लेकिन ‘भाई’ के दरबार में यदि आपने उचित प्रसाद चढ़ा दिया है - तो जजमान, काम अवश्य पूरा होगा।

और सोचा कि नाते रिश्तेदार, माता-पिता की तबियत खराब होने पर लोग बाग मंदिर जाते थे, उनकी सलामती की दुआ करने। कुछ लोग गाना वाना भी गाते थे, “मेरी विनती सुने तो जानूं, मानूं तुम्हें मैं राम, राम नहीं तो कर दूंगा सारे जग में तुम्हें बदनाम………।“ अब तो भैया इसका भी टेंशन लेने की जरूरत नहीं, इधर बाऊ जी ने गैस की वजह से भी अगर सीने में दर्द बताया, तो बेटवा तुरंत हार्ट अटैक का वरदान समझ कर बाऊ जी को बिना टाइम वेस्ट किये जमीन पर लिटा कर, सिरहाने एक दिया जला कर, मुंह में तुलसी की दो पत्तियां ठूंस चार पांच बूंद गंगा जल टपका कर बाहर जाकर तेरही का मेन्यू बनाना शुरू कर देता है।

बेचारे भगवान जी टेंशनिया गये होंगे, टी आर पी लगातार गिर रही है, कोई उन पर टिप्प्णी भी नहीं करता। अपनी सत्ता बचाने के लिये अब भगवान जी को भी नये नये हथकण्डे अपनाने पड़ते हैं। मुझे तो लगता है किसी ऐडवर्टाइज़िंग कम्पनी को हायर कर लिये हैं जो उनके अस्तित्व की पुनर्स्थापना हेतु ऐसे SMS भेजती है, हो ना हो यह भगवान जी के ही संदेशवाहक हैं। भगवान जी की दयनीय स्थिति के बारे में सोचते सोचते आंख लग गयी।

सुबह उठ कर कम्प्यूटर आन किया, मेल चेक करी। मेरे एक परम मित्र की ई-चिठ्ठी आयी थी उसमें एक परी की ‘फोटू’ बनी थी और कुछ ज्ञान की बातें लिखी थीं कुछ इस प्रकार से,

This is the image of Money Fairy, the fairy of wealth. Forward this message to at least 10 persons within 20 minutes of reading it and you’ll receive huge amount of money within four days.

Do not delete or ignore it else you’ll beg. Believe me – IT IS TRUE!

मित्र का चेहरा आंखों के सामने घूम गया। उसके विशाल हृदय में मेरे लिये कितना प्रेम है। मेरी कितनी चिंता है उसे और देखो मुझे धनाड्य बनाने के लिये कितना सरल सा रास्ता भी खोज लाया है। आगे आने वाले खतरों से कैसे सावधान कर रहा है ‘else you’ll beg’. मुम्बई की लोकल ट्रेन, गले में हारमोनियम, “दिल के अरमां आंसुओं में बह गयेएएए…” वाला गाना फिर सामने घूम गये।

ऐसा अतुल्य प्रेम देख कर मेरा छोटा सा हृदय द्रवित हो उठा और आंखें छलक उठीं। मैं ने दिल खोल कर अपने मित्र को खूब दुआयें दीं।

अब SMS Delete कर के भगवान जी से पंगा तो ले ही चुके थे सो ई–पत्र भी Delete कर दिया, सोचा अगर भगवान जी ज्यादा डिस्टर्ब हुये तो प्रायश्चित करके क्षमा मांग लूंगा।

मेल चेक करने के बाद सोचा कि अपने ब्लाग की टी आर पी चेक करी जाये। ब्राउज़र पर अपने ब्लाग का पता डाला तो खुला कुछ और। कई बार कोशिश करी हर बार कोई नयी साइट खुल जाये। सारे एन्टी वायरस – एन्टी स्पाई वेयर चला डाले पर संगणक जी टस से मस ना हुये। धीरे धीरे करके उनके ऊपर हुआ हमला और भी गंभीर होता गया। अब तो घुसपैठिये ने हमें डेस्कटाप तक ही सीमित कर दिया। शाम तक हम भी हिम्मत हार बैठे।

एक जगह ले जाकर चेक भी करवाया, साहब ने कम्प्यूटर में इतने सारे रोग और इतने लम्बे खर्चे बताये कि मैं ने सोचा नया पी सी खरीदना ही बेहतर होगा। इस बात से मुझे लगा कि हो ना हो भगवान जी ने नाखुश हो कर मुझे दण्ड देने की सोच ही ली है और धीरे धीरे मुझ पर वार करना भी शुरू कर दिये हैं। रात को हम भविष्य के विषय में सोचते हुये “दिल के अरमां आंसुओं में बह गयेएएए…” वाले गाने की प्रैक्टिस भी करने लगे।

फिर यह सोचा कि मंदिर जा कर भगवान जी से क्षमा मांग लेते हैं – कहा सुना माफ़, वो कहेंगे तो प्रायश्चित भी कर लेंगे। बीबीजी से कहा,” मैं कल देर से आऊंगा, सोच रहा हूं कि मंदिर हो आऊं!”

“किस देवी के दर्शन को जा रहे हो? विदेश में रहते हुये तुम्हारी नज़रें भी बदलती जा रही हैं। मुझे तो पहले से ही कुछ शक था, क्या बात है मुझे बताओ…आखिर वो कलमुही है कौन?!”

मैं ने सिर पीट लिया कान पकड़ कर बोला,” कहीं नहीं जाऊंगा मैया, मेरी तौबा जो फिर मंदिर का नाम भी लिया।“

भगवान जी के दर्शन के लिये झूठ का सहारा लिया। अगले दिन आफिस से बीबीजी को फोन किया, “ शाम को कुछ क्लाइंट्स आ रहे हैं, आने में देर हो जाएगी।“ बीबीजी ने प्यार से कहा,” कोई बात नहीं, मेहनत से काम करो, बोनस अच्छा मिलेगा तो हम नया प्लाज़मा टी वी खरीदेंगे।“

आफिस की घंटी बजते ही हमने सीधा मंदिर में हाजिरी लगा दी। पूरा मंदिर सून-सान, पंडित जी भी गायब थे, पता चला धंधा मंदा हो जाने के कारण पंडित जी ने इंडिया वापस जाकर कानपुर में पान मसाला बनाने की फ़ैक्ट्री लगा ली है।

मंदिर के प्रांगण में घुसते ही आवाज़ आई,” आओ अनुराग, कैसे आना हुआ?”

हमने खोपड़ी घुमा कर इधर उधर देखा, कोई नज़र नहीं आया, फिर से आवाज़ आयी,” घबराओ नहीं मैं हूं, भगवान!”

हमने लपक कर मूर्ति के पीछे झांक कर देखा कि ‘शोले’ इश्टाइल में कहीं कोई हमें बेवकूफ़ तो नहीं बना रहा है – वहां भी कोई नहीं था। हम तो स्तब्ध से वहीं खड़े रह गये। फिर आकाशवाणी हुयी,”क्यों विश्वास नहीं हो रहा है क्या!”

“पूरा विश्वास हो रहा है प्रभू, यदि मुन्ना भाई को गाँधी जी दिख सकते हैं, तो मुझ पापी को भी आप की वाणी सुनायी दे सकती है!” कहते हुये हम आष्टांग आसन लगा कर लेट गये।

“कैसे आना हुआ वत्स?”

“प्रभु! क्षमा याचना हेतु आया हूं। आपका एस एम एस और ई-पत्र आगे ना सरका कर आपकी आज्ञा की अवहेलना करी है प्रभु। बडी भूल हुयी इस अज्ञानी से, क्षमा प्रभु, क्षमा।“

“मैं ने तुम्हें कोई संदेश या पत्र नहीं भेजा वत्स!”

“आपके संदेशवाहकों ने भेजा होगा, on your behalf”

“अच्छा वो, जिसमें तुमको भिक्षुक बनने की और दुर्भाग्य प्राप्त होने की चेतावनी दी गयी थी!”

“जी प्रभु, वही वाले……”

प्रभु हंसे,” वत्स, मैं ईश्वर हूं। यह सृष्टि मेरी बनायी हुयी है। यह मेरी रचना है। इसके हर कण में मेरा वास है। मेरा मार्ग प्रेम का मार्ग है – भय, दु:ख या पीड़ा का नहीं। मुझे अपने अस्तित्व का खतरा नहीं है, क्योंकि जब तक आशा, प्रेम, दया, त्याग और ईमानदारी के भाव एक भी cयक्ति के हृदय में बाकी हैं – मेरा अस्तित्व सुरक्षित है।“

“तो प्रभु वह संदेश, क्या वह आपके संदेशवाहक ने नहीं भेजा था?”

“नहीं, वत्स! मेरा सच्चा संदेशवाहक केवल प्रेम का संदेश फैलाता है – भय का नहीं। भय का संदेश फैलाने वालों से थोड़ा सजग रहो, ये मेरे नहीं अपने अंदर बैठे हुये दानव का संदेश फैला रहे हैं ताकि तुम पथ भ्रष्ट हो कर प्रेम का और ईश्वर का शाश्वत मार्ग छोड़ दानव के पीछे भागते रहो। आम तौर पर यह दानव अपने मुख पर मेरा मुखौटा लगाये रहते हैं। मेरी ओट में खड़े होकर दानव वृत्ति का प्रचार करते हैं। इनसे बचो – प्रेम के मार्ग पर चलो।

“थैंक यू, प्रभु!” मैं कह कर मंदिर से निकल रहा था कि अचानक याद आया, ”प्रभु, मेरा लैपटाप तो ठीक हो जायेगा ना?”

“इस विषय में मेरा ज्ञान बहुत सीमित है, बेहतर होगा नया ही ले लो।“

परसों हमने नया पीसी खरीद ही डाला और रात भर जाग कर यह चिठ्ठा भी लिखा। हार्ड डिस्क क्रैश हो जाने से काफ़ी जानकारी से हाथ भी धोना पड़ा। मगर खुशी यह है कि भगवान जी ने मेरे मन से टेंशन वैसे ही दूर कर दिया जैसे पाकिस्तान से प्रजातंत्र दूर हो गया है।

चलते – चलते:

यह चिठ्ठा भगवान जी का प्रेम संदेश है :
पढ़ने के बाद इस पर टिप्प्णी करें तथा इसकी कड़ी कम से कम पांच लोगों को प्रेक्षित करें। अन्यथा:

क) यदि आप चिठ्ठाकार हैं तो;

1) आपके चिठ्ठे पर कोई टिप्पणी नहीं करेगा
2) आपकी टी आर पी नेताओं के चरित्र की तरह गिर जाएगी
3) आपका चिठ्ठा ‘चिठ्ठाचर्चा’ और ‘नारद’ से सदा नदारद रहेगा

ख) यदि आप चिठ्ठाकार नहीं हैं तो;

1) आप इंटरनेट पर किस प्रकार की साइट्स पर विचरण करते हैं इसका कच्चा चिठ्ठा आपकी बीबीजी को मिल जायेगा
2) बीबीजी को पता चल जाएगा कि आपकी कमीज़ पर जो लाल रंग का दाग है वह दरअसल टोमाटो साँस का नहीं वरन् किसी और चीज़ का है
3) घर तक यह बात पंहुच जाएगी कि आफिस के बाद किस ‘स्पेशल क्लाइंट’ के साथ आपकी मीटिंग्ज़ चलती रहती हैं।

हरि इच्छा!