बुधवार, मार्च 14, 2007

एकता कपूर - नोबेल पुरस्कार

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गत सप्ताहांत पर मेरे पुराने पड़ोसी राजेश बाबू हमारे शहर पधारे. कई दिनों बाद मिले थे, बड़ी खुशी हुयी, हंसी ठठ्ठा हुआ, इधर-उधर की बातें हुयी, यादों की गठरी खोली गयी, कई पुराने प्रसंग निकले जिन पर हम सब हो-हो करके खूब हँसे. दोपहर को शहर का सैर सपाटा करने निकल गये और सांझ होते, थके मांदे घर लौट आये.
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घर पहुँच कर, राजेश बाबू को बैठक में छोड़ कर मैं नहाने चला गया, लौट कर आया तो देखा राजेश बाबू आराम सोफ़े पर पालथी मार कर, एकता कपूर का धारावाहिक ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी’, बड़े ध्यान मग्न हो कर देख रहे हैं. मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ. आश्चर्य इसलिये क्योंकि एकता कपूर के धारावाहिक आमतौर पर महिलायें ही देखती हैं, किसी पुरुष का उनमें इतनी दिलचस्पी दिखाना मुझे थोड़ा अटपटा लगा.
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तमाम भारतीय मर्दों की तरह हमें भी एकता कपूर के धारावाहिकों से भयंकर ‘एलर्जी’ है, टीवी के पर्दे पर उनको देखते ही मेरा रक्त चाप बढ़ जाता है, पूरे बदन में खुजली शुरू हो जाती है और अचानक ‘मूड ऑफ’ हो जाता है. इन सब से बचने के लिये मैं ने राजेश बाबू को टोंकते हुये कहा, “ अरे राजेश बाबू! यह क्या बेकार का सीरियल लगा कर बैठ गये हैं?”
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हमने सोचा था कि राजेश बाबू झेंपते हुये कहेंगे कि ‘यार बोर हो रहा था सो ऐसे ही लगा लिया था, यह लो बंद करे देते हैं.’ लेकिन ऐसा नहीं हुआ ! राजेश बाबू ने बिना अपनी तन्मयता को भंग किये हुये, बिना कुछ बोले ही, मुंह पर उंगली रख कर इशारे से हमें चुप रहने को कहा और हथेली हिला कर बैठ जाने को कहा.
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हम मेजर साहब (फिल्म ‘हम’ में कादर खान का किरदार) की तरह खुजली करते हुये राजेश बाबू के बगल में बैठ गये. एक के बाद एक एकता कपूर के सारे धारावाहिक आते रहे और राजेश बाबू ध्यान मग्न होकर उन्हें देखते रहे. हमने खाना भी वहीं बैठ कर खाया. खाते हुये कभी विस्मय भरी नज़र से राजेश बाबू को देखते कभी तुलसी, पार्वती या प्रेरणा को देखते और बीच-बीच में बायें हाथ से (दाहिने हाथ से खाना खा रहे थे ना!!) खुजली भी कर लेते.
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खाना खत्म हो गया, जूठे बर्तन हट गये, मेज साफ हो गयी, फ़र्श पर पोंछा लग गया, गेस्ट रूम में राजेश बाबू के लिये बिस्तर भी तैयार हो गया लेकिन एकता कपूर के धारावाहिक अखण्ड रामायण की तरह चलते रहे, एक के बाद एक, मानो सीरियल ना हुये मुए मुम्बई की लोकल ट्रेन हों – चलते जाओ – चलते जाओ!
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अब क्या करें? ‘अतिथि देवो भव:’ राजेश बाबू को अकेला छोड़ कर सोने भी नहीं जा सकते थे तो मन मसोस कर जमीन पर पसर गये और खुजली करते हुये और अपने खून की उबाल को शांत करते हुये धारावाहिक देखने लगे.
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करीब साढ़े ग्यारह बजे के आस पास ‘स्लो प्वाइज़न’ यानि धारावाहिक खत्म हुये. दिन भर के थके हारे थे, मैं ने सोचा कि चलो भैया अब आराम से सोने को मिलेगा. पर कदाचित पूर्व जन्म में शायद कुछ ज्यादा ही पाप किये थे इसलिये एकता की यातना से अभी मुक्ति नहीं लिखी थी.
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धारावाहिक समाप्त होते ही राजेश बाबू ने क्लिक से टीवी बंद किया और मुझसे मुखातिब होते हुये बोले,” क्यों भाई अनुराग, तुम एकता जी के धारावाहिक नहीं देखते हो?”
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एकता जी !! ‘जी’ सुन कर खुजली का दौरा पड़ गया. रक्त चाप भी बढ़ गया और अचानक जी भी मिजलाने लगा. खैर राजेश बाबू बहुत ज्ञानी किस्म के शरीफ इंसान हैं. हर मनुष्य का सम्मान करते हैं. धर्म, दर्शन, साहित्य, कला आदि में बहुत रुचि रखते हैं और पुस्तकों से बहुत प्रेम करते हैं. ज्ञान का भंडार है उनके पास, इसलिये हमने अपने उद्वेलित मन को काबू में रखते हुये नम्र भाव से कहा,”राजेश बाबू, मैं नहीं देखता. बहुत बकवास सीरियल बनाती है.”
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मेरी बात सुन कर राजेश बाबू मंद-मंद मुस्काये,”बकवास से तुम्हारा क्या तात्पर्य है?”
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”अरे वही, सास-बहू, आपसी रंजिश, लड़ाई-झगड़े, लोगों का मर कर जिंदा हो जाना, चेहरे बदल कर वापस आ जाना, प्लास्टिक सर्जरी – पूरा बकवास ही तो दिखाती है!”
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राजेश बाबू मंद मुस्कान बिखेरते हुये बोले,”यही तो मानव जीवन है, यही तो ‘गीता सार’ है.”
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राजेश बाबू की टोन में एक अजब सी बात थी. सुन कर घर का माहौल ही बदल गया. मेरी खुजली अपने आप बंद हो गयी, रक्त चाप सामान्य हो गया, मन शांत हो गया. जब फिर से राजेश बाबू की ओर देखा तो विश्वास नहीं हुआ. सोचा कि शायद सपना देख रहा होऊँगा, इसलिये आँखें मिचमिचायीं, खुद को चिकोटी काटी और दुबारा राजेश बाबू की ओर देखा लेकिन फिर वही दृश्य. राजेश बाबू के सिर पर स्वर्ण मुकुट, हाथों में बाजूबंद, हाथ में चक्र, साक्षात श्री कृष्ण का अवतार लिये मेरे सामने खड़े थे. मुझे लगा कि मैं भी सहसा अर्जुन बन गया हूं.
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मैं ने हाथ जोड़ कर निवेदन किया,” हे सारथी! अज्ञानी को बताइये कि एकता कपूर के धारावाहिक और गीता का सार में संबन्ध कैसे?”
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प्रभु बोले,” सुनो पार्थ, तुमने आजतक अपनी नश्वर और क्षण भंगुर मन की आँखों से ही एकता के धारावहिकों को देखा है. मन बड़ा चंचल होता है. मन स्वयं तो भटकता ही है, साथ ही हमें भी भटकाता है. मन लालची होता है, मन विलासी होता है, मन में इच्छायें होती हैं, इच्छायें स्वार्थी होती हैं, स्वार्थ में केवल ‘स्व’ होता है, और जहाँ ‘स्व’ है वहाँ मैं नहीं हूं पार्थ.”
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”प्रभु...!”
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”तो वत्स, मन की आँखों से मत देखो. स्वार्थ से ऊपर उठो. आत्मा की आवाज़ सुनो. क्योंकि आत्मा भंगुर नहीं है. आत्मा स्वार्थी नहीं है. आत्मा प्रलोभनों से प्रदूषित नहीं होती. क्योंकि मैं ही आत्मा हूं – मुझसे मिलो, मुझे अपनाओ, मन से ऊपर उठो”
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कह कर प्रभु मुस्कुराये. मैं ने कहा,” हे सारथी, मैं अज्ञानी, लोभी, पापी सदा से ही मन की सुनता आया हूं. आत्मा की आवाज़ सुन नहीं पाता...”
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”मैं समझ गया पार्थ. तुम प्रभु से दूर हो, आत्मा की आवाज़ से दूर हो इसीलिये तो तुमको एकता के धारावाहिक ‘बकवास’ लगते हैं. जिस दिन तुम मेरी शरण में आ जाओगे, प्रभु की शरण में आ जाओगे, जीवन का अर्थ समझोगे, आत्मा की आवाज़ सुनोगे, उस दिन तुमको एकता के धारावाहिकों में मानसिक शांति और मोक्ष का मार्ग दिखायी देगा.”
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”हे सारथी! मुझे अपनी शरण मे लीजिये. मोक्ष का मार्ग दिखलाइये, एकता कपूर के धारावाहिकों में छिपा ज्ञान दिखाइये प्रभु.”
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प्रभु बोले,” सुनो पार्थ, तुम्हारा पहला कथन ‘आपसी रंजिश, लड़ाई झगड़े’. यही तो आदिकाल से चलता आया है. सास-बहू के झगड़े प्रतीक हैं सत्य और असत्य की लड़ाई के, आत्मा और मन के द्वन्दों के, बुराई और अच्छाई के, कौरव और पाण्डवों के. ऊपर से तैर कर मत आओ, डूब कर देखो – एकता के सारे धारावाहिक इन झगड़ों को ही तो दर्शाते हैं, हमारे भारत की परम्परा का चित्रण ही तो करते हैं. यह ‘बकवास’ नहीं है इसे ‘बकवास’ कहना उस सत्य को झुठलाना है जो हमारे सामने खड़ा हुआ है.”
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”प्रभु, मैं धन्य हो रहा हूं, क्षितिज से बादल छंट रहे हैं, मैं समुद्र की गहराईयों में डूब रहा हूं, ज्ञान का अथाह सागर प्रभु...वाह प्रभु वाह...आनंद का अहसास हो रहा है प्रभु...”
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प्रभु ने मुस्कुराते हुये कहा,” यह तो था तुम्हारे प्रथम कथन का स्पष्टीकरण अब दूसरा कथन ‘लोगों का मर कर जिंदा हो जाना’. हे पार्थ, तह ‘मर’ शब्द तुमने कहाँ से सीखा? क्या गीता सार नहीं जानते? आत्मा अजर और अमर है. इसी लिये वत्स – ‘मिहिर’ वापस आया – मिहिर का पुनर्जीवित हो कर वापस आना एकता ने इस विचार से किया था कि धर्म से उन्मुख हो रहे लोग एक बार फिर से धर्म और गीता में विश्वास करें. इस बात को समझ सकें कि ना कोई पैदा हुआ है ना कोई मरेगा – आत्मा अमर है.”
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मैं प्रभु के चरणों में लोट गया,”प्रभु....!”
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”उठो वत्स, दुख का विषय तो यह है कि कलयुग में अधर्म की ऐसी आँधी चली है कि धर्म की बातें लोगों को ‘बकवास’ लगती हैं.”
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”क्षमा प्रभु, क्षमा. मैं अज्ञानी हूं, लेकिन अब सब साफ़ दिख रहा है....!”
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”और अंत में तुम्हारा तीसरा कथन ‘चेहरे बदल कर वापस आ जाना, प्लास्टिक सर्जरी’. देखो यहाँ भी साध्वी एकता, गीता का यही संदेश तो देना चाहती है कि देह तो पुराने वस्त्रों के समान है. आत्मा पुराने देह से निकल कर नये देह को अपना लेती है. तो पार्थ यह बताओ, क्या नये देह का रूप भिन्न ना होगा?”
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”अवश्य होगा प्रभु, अवश्य होगा....मुझसे बड़ी भूल हुयी प्रभु....”
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”मुझे तो तुम प्रभु कह रहे हो, और मेरा दिया गीता ज्ञान फैलाने वाले एकता की धार्मिक बातों को ‘बकवास’ कहते हो, कैसी अजब विडम्बना है.”
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”अब ना कहूंगा प्रभु, अब मैं एकता मैया का मंदिर बना कर रोज सुबह पाव भर लड्डू, गेंदे के फूल और नारियल चढ़ाऊंगा और साथ में गुलाब और चंदन की अगरबत्ती भी जलाऊंगा.” मैंने प्रभु वंदन करने के लिये आँखें मूंद लीं. जब आँख खुली तो देखा कि सुबह हो चुकी थी.
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भाग कर राजेश बाबू के कमरे में गया, देखा वो जा चुके थे. याद आया कि उनकी सुबह 4 बजे की फ़्लाइट थी. कितने सज्जन हैं प्रभु, मुझे सोता हुआ देख कर बिना उठाये चले गये.
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प्रभु के दर्शन और अज्ञान का पर्दा हट जाने से मन बड़ा हल्का लग रहा था. मैं ने नहान किया और चाय की प्याली ले कर सुबह का अखबार पढ़ ही रहा था कि फोन घनघनाया.
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फोन पर राजेश बाबू थे. बोले,” अनुराग, मैं ठीक ठाक घर पहुंच गया और तुमने टीवी पर ताज़ा समाचार देखा क्या?”
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”नहीं, क्या हुआ?”
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”अरे भाई, एकता जी का नोबल पुरस्कार के लिये नामांकन हो गया है.”
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”यह तो बड़ी अच्छी खबर है. किस श्रेणी में हुआ है? साहित्य में या शांति में....?
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”नहीं भाई, आयुर्विज्ञान में.”
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”आयुर्विज्ञान मतलब मेडिसिन साइंस?? उसमें कैसे?”
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”भाई, हुआ यूं कि विश्व के समस्त डाक्टर समझ चुके हैं कि एकता कपूर जी के पास अवश्य ही कोई ऐसी दवाई है जिससे वह मरे हुए लोगों को भी जिन्दा कर देती हैं. वह यह भी जान गये हैं कि एकता जी के पास ऐसी एडवान्सड टेकनोलॉजी है जिससे वह लोगों के रूप, रंग और लम्बाई वगैरह भी बदल सकती हैं. और भाई यह तो हम सभी जानते हैं कि एकता जी अपनी वाह वाही बिलकुल भी पसंद नहीं करती हैं और इसीलिये वह अपनी खोज को जगजाहिर कभी नहीं करेंगी.”
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”हाँ, यह तो आप सही कह रहे हैं, राजेश बाबू.”
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”इसी लिये एकता कपूर जी से उनके अंवेषणॉं के प्रूफ़ भी नहीं मांगे जायेंगे. नामांकन हुआ है तो पुरस्कार भी पक्का ही समझो.”
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इतना कह कर राजेश बाबू ने फोन काट दिया. और हमने टीवी को गेंदे के फूलों की माला पहनाई, चार अगरबत्तियाँ जलाईं और हाथ जोड कर टीवी के सामने बैठ कर एकता जी के आध्यात्मिक धारावाहिकों को श्रद्धा और सम्मान भाव से देखने लगे.
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एकता जी की शरण ही धर्म की शरण है. धर्म से जुड़िये एकता जी के धारावाहिकों से जुड़िये !!
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अन्दर की बात यह है कि एकता कपूर को "NOBEL" नहीं "NOBLE" पुरस्कार के लिये नामांकित किया गया है. जो हमारे मोहल्ले की एक समिति देती है और जिसके अध्यक्ष राजेश बाबू हैं.

मंगलवार, मार्च 06, 2007

कांप उठी धरती

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आज ऑफिस में काम लगा हुआ था कि यहाँ के समयानुसार करीब 11:50 ऐसा लगा कि चक्कर आ गया! सिर उठा कर देखा तो खिड़की पर लगे ब्लाइंड्स और दीवार पर झूलती हर चीज़ हिल रही थी. साथ ही कमरे के बाहर से कुछ चीखने चिल्लाने की आवाज़ें भी सुनाई दीं.
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मेरी सेक्रेटरी धाड़ से दरवाज़ा खोल कर अंदर घुसी और पूछा,” अनुराग, तुमने भी महसूस किया क्या?” मैं ने कहा,” शायद हलका सा भूकंप (ट्रेमर) है.” उसने कहा,”मैं नीचे जा रही हूं.” मैं ने उसको चेताया कि ऐसे में उसे लिफ़्ट से नहीं जाना चाहिये. बेचारी घबराई तो थी ही बोली,”अनुराग, मैं पेट से हूँ, 37 मंज़िल से उतर कर तो जा नहीं सकती, लिफ़्ट से जा रही हूं – जो होगा देखा जायेगा.”
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कुछ देर झूला झुलाने के बाद हमारी बिल्डिंग का हिलना बंद हो गया और काम धाम फिर शुरू. दोपहर का खाना खाने के बाद करीब 1:50 मिनट पर जब मैं अपने ऑफिस में वापस आया तो बी.बी.सी. की साइट पर भूकंप की खबर पढ़ने के लिये जैसे ही उसे खोला, भगवान जी का झूला फिर शुरू. इस बार भगवान जी ने पेंग कम लम्बी भरी थी लेकिन पहले की अपेक्षा अधिक देर तक झूला झुलाया.
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इसी बीच बच्चों के स्कूल ने सभी अभिभावकों को ई-पत्र भेज कर तुरंत सूचित किया कि सारे बच्चे सुरक्षित हैं और उन्हें खुले मैदान में इकठ्ठा करके आपदा ड्रिल करवाई जा रही है.
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भूकंप की खबर यहाँ पर पढ़ी जा सकती है.
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सोच रहा हूं कि अगर भूकंप के ये झटके हल्के ना होकर तेज़ या विनाशकारी होते, तो गगनचुम्बी इमारतों में कार्यरत लोग अपना बचाव कैसे करते?