सोमवार, अक्तूबर 09, 2006

होत चीकने पात


रविवार की अलसाई दोपहर में मै कुछ देर ऊंघने का प्रयास कर ही रहा था, कि मेरे दस वर्षीय सुपुत्र ने आकर झंझोंक कर जगा डाला, ”पापा, आप अपने ब्लाग पर मेरी एक कविता डाल सकते हैं?”

अपने देश के संस्कार या भाषा अपनी अगली पीढ़ी को ना दे पाने की ग्लानि इस प्रसन्नता के नीचे दबा दी कि चलो भाई लेखन ना सही, कम से कम यह ब्लगोड़ापन तो अगली पीढ़ी को सौंप पाये!

चिहक कर बोले,” सुनाओ बेटा, ज़रूर छापेंगे।“

गला खखारते हुये साहबज़ादे शुरू,

“उसकी आंखों में आंसू
आंसू में पानी
पानी में खो गये हम
हो गये सुनामी

दस सेकंड में डूबा तेरा दिल
तेरा दिल…”

गीत सुना कर वह प्रश्नवाचक दृश्टि से मुझे देखते हुये मेरी प्रतिक्रिया का इंतज़ार करने लगा। बीबीजी बड़े गर्व से, मुस्की मारते हुये अपने सपूत पर निहाल हुये जा रही थीं।

हमने एक प्रभावशाली भारतीय पिता की तरह अपनी हतोत्साहिक भौंक निकाली,”यह क्या बकवास है! ऊट पटांग कवितायें बनाते हो? कुछ शर्म-ओ-हया है कि सब बेंच खाये हो?” बेचारा बेआबरू हो कर हमारे कूचे से निकल ही रहा था कि हमने अपनी ए के 47 फिर दागी,” तुमने लिखी है?”

“नहीं, मेरे स्कूल में एक लड़के ने सुनाई है।“

“तुमने नहीं लिखी?”, मेरी गर्जना तेज़ हुई।

“ “

“तो तुमने यह क्यों कहा कि ‘मेरी’ कविता छाप दीजिये?”, ये डायलाग तो इतनी ऊंची 'पिच' में था कि अगर हिन्दी फ़िल्मों में होता तो बैक ग्राउंड में बिजली कड़कने की आवाज़ जरूर डाली जाती।

“मैं ने थोड़े चेंजेस किये हैं, एक वर्ड चेन्ज किया है, तो फिर मेरी ही हो गयी ना।“

सुनते ही, मेरी तो बाछें खिल गयीं, सीना फूल कर 48 इंच का हो गया, बेटे का सुनहरा भविष्य साफ़ दिखाई देने लगा। लपक कर उसे सीने से लगा लिया, सर पर हाथ फिराते हुये उसे आशिर्वाद दिया,” जियो बेटे, एक दिन तुम खानदान और देश का नाम बहुत ऊंचा करोगे!! शाबास।“ < नासिर हुसैन इश्टाइल>

फिर बीबीजी से मुखातिब हो कर बोला,” देखा! आखिर बेटा किसका है!!” <बैकग्राउड़ में गाना 'वो तो है अलबेला, हज़ारों में अकेला, सदा तुमने ऐब देखा हुनर को ना देखा'>

बीबीजी अचरज में, “ अजीब इंसान हो तुम! जब वह कह रहा था कि मैं ने लिखी है तो भौंक रहे थे, अब जब वह कह रहा है कि टोपो मारी है तो आशिर्वाद दे रहे हो?”

दार्शनिक अंदाज़ में मैं ने कहा,” भविष्य में देख सकने की दिव्य शक्ति सबके पास नहीं होती, मैं जो देख रहा हूं वह तुम नहीं देख पा रही हो।“

“साफ़ साफ़ बताओ!”

“इसके लक्षणों से साफ़ ज़ाहिर है कि एक दिन यह हिंदी फ़िल्म की दुनिया में अपना कीर्ति पताका लहरायेगा।“

“?”

“अभी से यह दूसरे की रचनाओं को थोड़ा फेर बदल करके अपना बता रहा है, सोचो आगे चल कर हाँलीवुड की फ़िल्मों में थोड़ा बहुत फेर बदल करके कितनी धाँसू धाँसू फ़िल्में बनाएगा “टैक्सी नम्बर 9211”, “एक अजनबी” और ना जाने कितनी, सब की सब सुपर हिट और क्रिटिकली अक्लेम्ड।“

“हां, ये तो सही कह रहे हो, बेटा टैलेन्टेड तो है।“ बीबीजी ने उसके सर पर हाथ फिराते हुये गर्व से निरुपा राय की तरह कहा।

“और अगर फ़िल्में चुराने का मन ना करे तो टाँप संगीत कार बनने का एक और रास्ता है – दिन भर इसको एम टी वी दिखाया करो। आगे चल कर उन्हीं धुनों पर ढ़ोलक और तबला पीट कर एक अच्छी सी इंस्पायर्ड और पूर्णतया भारतीय या फ़्यूज़न या कन्फ़्यूज़न धुनें तैयार कर सकता है।“

“तो फिर बेचारा कन्नू मलिक क्या करेगा?”

“अरे, वो ट्रैफ़िक लाइट पर खड़ा हो कर हमारी गाड़ी के शीशे पर झाड़न मरेगा, और क्या! हम तो इसको ऐसा महान टोपो मास्टर बनायेंगे कि कन्नू मलिक जैसे 50 – 60 मिल कर भी इतनी धांसू इंस्पिरेशन (नकल) ना ले पायें।“

“ख़्याल तो बहुत बढ़िया है!”

“हां, और इस क्षेत्र में विकल्प भी बहुतेरे हैं, अगर संगीतकार भी ना बनना चाहे तो री-मिक्स एलबम बना सकता है। बेचारे पंचम दा ने सारी जिंदगी पसीना बहा बहा कर कर्ण प्रिय संगीत इसी लिये तो बनाया था कि हमारी दिवालिया पीढ़ी उनका कलात्मक बलात्कार करके हमको परोसती रहे और स्वयं री-मिक्स किंग की उपाधि से अलंकृत हो कर नोट खसोटती रहे।“

बीबीजी की आंखे खुल गयीं, बेटे से बोलीं,” ये मैथ्स की बुक अलमारी में वापस धरो, चलो – एम टी वी देखो - और हाँ आज से नो कार्टून नेटवर्क एण्ड नो डिज़्नी चैनल - ओनली एम टी वी!“

हम भी बेटे के सैटल हो जाने की खुशी से अपने सारे टेंशन छोड़ कर दोपहर को इत्मिनान से सोये।

शाम को जब आलू-प्याज़ लेने सब्जी मण्डी जा रहे थे, बीबीजी ने पचास डालर का पत्ता हाथ में पकड़ाते हुये कहा,” सारी लेटेस्ट इंगलिश फ़िल्मों की डी वी डी ले आओ। बच्चे के भविष्य के लिये अब हमें संजीदगी से सोचना चाहिये।“

हाथ में सब्जी का झोला टांगे, कल्पना रथ पर सवार हो आंखों में ऐश्वर्या राय से मिलने का सपना सजाये, सब्जी मण्डी की ओर पैर बढ़ाते हुये, बाँलीवुड की सैर पर निकल पड़े।

(घटनायें एवम् पात्र पूर्णतय: काल्पनिक हैं।)

अनुराग श्रीवास्तव
09 अक्टूबर 2006

गुरुवार, अक्तूबर 05, 2006

ब्लगोड़े की समस्या


चिठ्ठा जगत में प्रवेश करने के बाद, कल मैं ने चिठ्ठा जगत के नारद मुनि को अपने श्रद्धा सुमन अर्पित किये और उनका आशिर्वाद लिया। मेरी भक्ति से प्रसन्न हो कर नारद मुनि “नारायण नारायण” करते हुए कल मेरे चिठ्ठे पर आये और फिर अपनी वीणा उठाये सारे अन्तरजाल पर जा कर मेरे चिठ्ठे का ठिंठोरा पीट आये।

शाम होते होते, मेरे चिठ्ठे पर पाठकों का तांता लग गया। वहां लगे अतिथि सूचकांक पर सोये हुये अंक अचानक ऐसे बढ़ने लगे कि उसे देख कर भारत की बढ़ती जनसंख्या भी लज्जित हो जाये।

पाठकों की बढ़ती संख्या देख – मन बड़ा पुलकित हुआ। बड़ी ख़ुशी हुई कि हमारी भी रेटिंग्स बढ़ रही हैं। दिन भर हम अपना पन्ना खोले, बढ़ते हुये अंको को निहारते रहे। शाम होते होते कुल 70 लोगों ने हमारी बकवास पढ़ी। अच्छा लगा कि दुनिया में मेरे जैसे कम से कम 70 निठल्ले तो और हैं, जो काम धाम छोड़ कर मेरी बकवास पढ़ने का समय निकालते हैं।

फिर थोड़ी निराशा भी हुई कि एकता कपूर की बकवास तो करोड़ों लोग देखते हैं और मेरी बकवास सिर्फ़ 70 लोगों ने पढ़ी! भविष्य में हिन्दी ब्लागिया जगत की एकता कपूर बनने का विचार अंगड़ाई लेने लगा।

सोचा अगर मैं अपने पन्ने का नाम ‘चौपाल’ से बदल कर ‘कौपाल’ और अपने ब्लाग का नाम ‘पगड़ंडी’ से बदल कर ‘कगड़ंडी’ रख दूँ तो कदाचित भविष्य में मैं भी अपना मानसिक कचरा बेचने में सफल रहूँगा। एक अंक शास्त्री से मिलने का विचार भी मन में आया जो यह राय दे सके कि ‘कौपाल’ को ‘कौआ पाल’ और ‘कगड़ंडी’ को ‘काम मंडी’ लिखने से सफलता की संभावनायें और भी बढ़ सकती हैं।

इन योजनाओं पर शीघ्रता से उसी तरह अमल किया जाएगा जैसे सरकारी बैंकों में ‘त्वरित ड्राफ़्ट सेवा’ का काउंटर काम करता है।

इस बीच किसी हितैषी ने मेरी बीबी को फोन घुमा डाला,” अरे, तुमको पता चला! अनुराग ब्लगोड़ा हो गया है। ‘पगड़ंडी’ पर जा कर देखो।“

बीबी ने लाँग आँन किया और मेरी बकवास पढ़ी। बेचारी चक्कर खाकर गिरते गिरते बची।

शाम को घर में घुसते ही बीबीजी ठंडे पानी का गिलास लेकर तुरंत आ पहुंची, मानो कि बस मेरा ही इंतज़ार हो रहा हो। मैं उनके यह ‘केयरिंग’ तेवर देख कर थोड़ा घबरा गया और उनके माथे पर हाथ रख कर उनकी तबियत चेक करने वाला था कि उन्होंने वाक वाण बरसाने शुरू किये;

“आँफ़िस में मन तो लग रहा है ना?”

“हाँ”

“बाँस से कोई कहा सुनी तो नहीं हुई?”

“नहीं तो।“

“मुझसे ख़ुश तो हो ना?”

अब ये तो गुगली निकली। मैं ने तुरंत बैक फ़ुट पर जा कर सुरक्षात्मक पोजीशन ली।

“हाँ हाँ बिलकुल! ऐसे क्यों पूछ रही हो?”

“आँफ़िस में कोई नई सेक्रेटरी आई है क्या?”

ये तो बाउन्सर थी, सर पर हेलमेट भी चढ़ा लिया।

“नहीं!”

“तो क्या और कोई है?”

“मतलब?”

“मतलब कि मुझसे उकता गये हो क्या? कहीं कोई दूसरा चक्कर तो नहीं चल रहा है?”

अब ये कैसी बाँल थी? मन में तो आया कि बल्ला उठा कर मैदान से सटक लूं, पर 50 ओवर हुये नहीं थे इसलिये मन मार कर क्रीज़ में खड़े रहना पड़ा।

“कैसी बातें कर रही हो? तुमको छोड़ कर और किसी को देखा भी नहीं कभी।“

उनको थोड़ी ढ़ाढ़स हुई। भर्राए गले से पूछीं,

“तो फ़िर ब्लगोड़े क्यों बन बैठे हो? देखो, यह सब क्या ऊल जलूल लिखते रहते हो? अपनी चिता फूंक रहा हूँ, गिरगिट मार रहा हूँ, माँ का अचार सड़ रहा है! क्या है यह सब?”

उनके कहने का अंदाज़ कुछ ऐसा था कि मानो ब्लगोड़ी ‘अल कायदा’ के सदस्य होते हों।

“यह तो विचारों की अभिव्यक्ति है।“

थोड़ी देर तक मुझे दया भाव से देखती रहीं, फिर बोलीं, ”दीपावली पर इंडिया चलते हैं।“

“आंयें, अचानक…!”

“हाँ, थोड़ी आब-ओ-हवा बदल जयेगी और तुम टंडन अंकल से भी मिल लेना।“

“टंडन अंकल……?”

“पापा के दोस्त हैं। कुछ दिन पहले ‘नूर मंज़िल’ ज्वाइन किया है!”

“नूर मंज़िल (लखनऊ के मानसिक चिकित्सालय का नाम)!? तुमको लगता है कि मैं ठनक गया हूँ?”

उन्हें लगा होगा कि ठनके को ठनका कहने से मामला और बिगड़ सकता है, इसलिये मामला संभालती हुई बोलीं,” ऐसा मैं ने कब कहा? और भी कोई वजह हो सकती है। जैसे, तुमने यकायक सिगरेट पीना भी छोड़ दिया है - उसके विथड्राल सिम्टम्स भी हो सकते हैं। दिन में एक आधी सिगरेट फूंक लिया करो दिमाग फ़्रेश रहेगा और डिप्रेशन भी ना होगा। अच्छा अभी तुम खाना-वाना खा कर सो जाओ बाद में बात करेंगे।“

अस्थायी रूप से समस्या कुछ देर के लिये तो टल गयी, लेकिन मेरे निकम्मे और ब्लगोड़े हो जाने की शर्मिंदगी बीबीजी को जल्द ही पुन: विचलित करेगी।
आज सुबह एक और चमत्कार - आफिस के लिये निकल रहा था कि बीबीजी आयीं और मुझे "मार्लबोरो लाइट्स" का एक पैकेट पकड़ाते हुए बोलीं,"लो, फ़िर से शुरू कर दो, फ़्रेश रहोगे - और यह लत ब्लागिंग की लत से कम नुकसान देह है!"

अनुराग श्रीवास्तव 05 अक्टूबर 2006

बुधवार, अक्तूबर 04, 2006

माँल की सैर

गाड़ी पार्किंग में ठूंस कर हम माँल देखने चल पड़े।

मुख्य प्रवेश द्वार पर, जेबें और झोले टटोल टटोल कर सभी श्रद्धालुओं की तलाशी ली जा रही थी। पास ही एक सूचना पट पर बड़े बड़े अक्षरों में लिखा था “परिसर के अन्दर पान या पान मसाला ले जाना तथा उसका सेवन करना दण्डनीय है। पकड़े जाने पर पाँच सौ रुपये जुर्माना” मुझे बड़ा गुस्सा आया, यह तो हमरे शहर की परम्परा के पूर्णतया विरुद्ध है। हमारे शहर में तो कहा जाता है;

“कुल का दिया पूत है
महफ़िल का दिया गान
आँखों का दिया सुरमा
मुँह का दिया पान।“

पाश्चात्य सभ्यता का अंधा अनुकरण करने वाले ‘इन’ जैसे भारतीयों के कारण ही हमारी महान एवम विश्व विख्यात भारतीय संस्कृति और सभ्यता का अस्तित्व आज संकट में है। मैंने ठान ली कि जब मेरा नम्बर आएगा तो मैं इन्हें कस के झाड़ूँगा, देखता हूं कैसे रोकते हैं मुझे! लेकिन कतार में खड़े खड़े मैंने देखा तमाम गाली गलौज और झगड़ा करने के बावजूद लोगों के पान मसाले के पाऊच जब्त कर लिये जा रहे थे।

अब तो मेरे गुस्से ने घबराहट का रूप लेना शुरू कर दिया। आने से पहले मैं ने पूरे पाँच रुपये खर्चा करके गुटखा के चार पाऊच खरीदे थे, अगर जब्त हो जाते तो पाँच रुपये का भयंकर नुकसान हो जाता। नुकसान की सोच, मेरा दिल जोर जोर से धक धक करने लगा (हलाँकि मेरी धक-धक काफ़ी तेज़ थी लेकिन माधुरी दीक्षित की धक-धक के आस पास बिलकुल नहीं थी) मैं ने आव देखा ना ताव, झट-पट चारों पाऊच खोले सर ऊँचा आसमान में उठा कर, पाऊच का सारा मसाला अपने मुँह में खाली कर डाला। मेरा यह अंदाज़ देख श्रीमतिजी से रहा नहीं गया मुस्किया कर बोलीं,” बिलकुल अमीर खान लग रहे थे, सर उठता है तो पान मसाला खाने के लिये।“

हमने मुस्कुराते हुये अपनी जबान से सारा मसाला खिसका खिसका कर अपने बायें गाल के नीचे अडजस्ट कर लिया। इस तरह सुरक्षा गार्ड की आँखों में धूल झोंक कर हम माँल में घुस ही रहे थे कि उनकी नज़र हमारे सूजे हुये बाँये गाल पर पड़ी, उसने चेतावनी भरे लहज़े में कहा,”थूकने पर 500 रुपये फाइन है!”

“ओ के फाइन ऐन्ड थैन्क यू फार टेलिंग।“हमारी अंग्रेजी सुन कर वह समझ गया कि हम शिक्षित लोग हैं और बिना आना कानी करे उसने हमें जाने दिया।

अन्दर घुस कर तो हम अवाक् रह गये! आप तो शायद मानियेगा भी नही यदि मैं आपसे कहूं कि पूरे का पूरा भवन वातानुकूलित था, जी हाँ फुल ए सी। और तो और साफ़ सुथरा था - कूड़े का कोई नाम-ओ-निशान तक नहीं था। ऐसा लगा कि बिना टिकट, पासपोर्ट और वीज़ा के 'फारेन' पँहुच गये हों।

हमने श्रीमतिजी के कानों में फुसफुसा कर कहा," कितने टन का ए सी लगा होगा और सोचो तो बिजली का बिल कितना आता होगा?"

श्रीमतिजी ने ज्ञान वाणी में कहा," आइंदा जब घर में बिजली जाएगी तो यहीं आकर बैठा करेंगे।"

ऊपर नीचे आने-जाने के लिये स्व-चलित सीढ़ियाँ लगी थीं, सुना है अंग्रेजी में उन्हें 'एस्केलेटर' कहते हैं। यह मुफ़्त झूला चढ़ने के लिये लम्बी कतार लगी हुई थी, अब चूंकी हम फैमिली के साथ थे तो हम कतार में ना लग, सीधा सीढ़ी के पास जा पंहुचे। सीढ़ी पर चढ़ने ही वाले थे कि कतार बद्ध हुजूम में से कुछ असभ्य से लोगों ने चिल्ला कर कहा," अरे लाइन में आइये भाई साहब, हम लोग भी आधा घंटे से (लाइन में) लगे हुए हैं।" एक सभ्य व्यक्ति की तरह, उनकी असभ्यता को अनसुना और अनदेखा कर हम सीढ़ी चढ़ने ही वाले थे कि एक सुरक्षा गार्ड ने हमारे आगे डंडा पेलते हुये कहा बड़े रूखे अंदाज़ में कहा," चलिये, लाइन में लगिये!"

“फैमिली के साथ हैं……"

"तो क्या हुआ? लाइन में आइये।"

यकीन मानिये बहुत बुरा लगा। दूसरों का, विशेषतौर पर महिलाओं तथा बच्चों सम्मान करना हमारे देश की संस्कृति का अभिन्न अंग है। हम भारतवासियों ने सदा ही अपनी इस संस्कृति का आदर किया है, परंतु माँल में युवा पीढ़ी द्वारा इसका इस तरह अनादर होता देख कर बड़ी पीड़ा हुई। इस युवा पीढ़ी के हाथों तो देश का भविष्य अंधकारमय ही लगता है।

घिसट घिसट कुछ 20 मिनट बाद हमारा नम्बर आया, लेकिन हमारे आगे खड़े महोदय की अर्धांगनी सीढ़ी के पास पँहुचते ही घोड़ी की तरह बिदक गयीं। चलती सीढ़ियाँ देख ऐसे घबरायीं जैसे कसाई देख बकरा घबराये है, उस पर पैर ही ना रखें। उनके पतिदेव अनाड़ी घुडसवार की तरह उन्हें हाँके पड़े थे, "अरे चढ़ो!"

"पाइरवा फंस जइहे तो!?"

"नहीं फंसिहै, चढ़यो तौ!"

"हमके डर लागत है!"

"कुच्छौ नाहीं होई, चलौ।"

उनकी अखंड रामायण को बीच में ही रोक कर मैं चिल्ला पड़ा,"अरे चलो भाई हम भी 30 मिनट से लाइन में खड़े हैं - हमारा भी नम्बर आने दीजिये, या तो आगे बढ़िये या फिर साइड हटिये।"

मेरी चीख सुन महिला तो, बगल में लगी परम्परागत सीढ़ियों की तरफ़ लपक पड़ीं और रोमांचक प्रवृत्ति के उनके पति शान से स्व-चलित सीढ़ियों पर चढ़ लिये।

हमने भी जीवन में पहली बार आटोमेटिक सीढ़ियों की सवारी करी और पहली बार दिल से यह लगा कि अखबार ठीक लिखते हैं कि भारत विकास के मार्ग पर तेजी से अग्रसर है।

हलाँकि, इस बात को हम थोड़ी देर के लिये भूल गये कि 20 मिनट इंतज़ार करने की जगह हम 2 मिनट में ही ऊपर की मंज़िल पर पँहुच जाते।

माँल में दुकानों का साइज़ भी खासा बड़ा था और ताज्ज़ुब की बात यह थी कि किसी भी दुकान में शटर नहीं लगा हुआ था। मैं सोच में पड़ गया कि ये लोग रात को दुकान बढ़ाते कैसे होंगे, बिना शटर के तो कोई भी रात को दुकान में घुस कर चोरी चकारी कर सकता है।

माँल के अन्दर ज़्यादातर सिले-सिलाये कपड़ों की ही दुकानें थीं। पहली बार मुझे पता चला कि शाहरुख खान, प्रीती ज़िन्टा और तमाम हीरो-हीरोइनों की टी-शर्ट पर जो “गैप”, “ओल्ड नेवी”, “अरमानी” वगैरह लिखा रहता है, वह दर-असल कपड़ा बनाने वाली कम्पनियों के नाम हैं। यह भी पता चला कि “एफ़ सी यू के” भी कपड़ा बनाने वाली कम्पनी का नाम है, मैं तो हमेशा यही समझता था कि यह आज के युवा वर्ग की सड़ी हुई सोच और अंग्रेज़ी भाषा के सीमित ज्ञान का परिणाम है कि वह अंग्रेज़ी भाषा के एक अपशब्द की गलत स्पेलिंग अपनी टी-शर्ट पर लिखे घूमते रहते हैं।

इतनी देर घूमने के बाद हमें थुकास लगी, चार पैकेट गुटखा खाने के बाद थूकना तो ज़रूरी हो ही जाता है, आदतन हमने अपनी गर्दन थोड़ी आगे निकाली होठों को गोल बनाया और पिचकारी छोड़ने ही वाले थे कि श्रीमतिजी ने पीछे खींचते हुये कहा,” अरे क्या कर रहे हो? सठिया गये हो क्या? पाँच सौ रुपये का फाइन है!”

हमारी पान मसाले की पीक को ‘पीक प्रेशर’ पर ऐसे ब्रेक लगा जैसे टेक आँफ़ के लिये भागते जहाज़ को कोई ब्रेक लगा दे। अब जैसे ब्रेक लगाने पर जहाज़ चीं-चीं करता हुआ रनवे से थोड़ा खिसक जाता है वैसे ही रोकते रोकते भी मेरे मुँह से पीक की आठ-दस बूंदे मेरी ठुड्डी पर लुढक गयीं। मौके की नज़ाकत को देखते हुये, मारे घबराहट के मैं ने तुरंत अपनी कमीज़ की आस्तीन से अपना मुँह पोंछ लिया।

मुँह में इतनी पीक भरी थी कि हम चाह कर भी कुछ बोल नहीं पा रहे थे तो हमने इशारों से ही श्रीमतिजी से पूछा कि कहां थूकूँ? एक आदर्श भारतीय नारी की तरह वह तुरंत हमारी पीड़ा समझ गयीं। बच्चों की पानी की बोतल का ढ़क्कन खोलती हुई बोलीं,” लो इसी में थूक दो।“ मैंने एक पतली सी धार बनाते हुये अपने मुँह का सारा टेँशन बोतल में उतार दिया।

आज समझ में आया कि हमारे देश में स्त्री को देवी का दर्जा क्यों दिया गया है, इतिहास साक्षी है कि हर कदम पर इस देश की महिलाओं ने ही अपनी सूझ-बूझ और दूर दर्शिता से हम पुरुषों के मान-सम्मान की रक्षा करी है।

थुकास की बेबसी को मद्देनज़र रखते मैं ने यह फ़ैसला किया कि अब हमें माँल से निकल लेना चाहिये और घोषणा करी कि हम लोग शर्माजी के ठेले पर जा कर भर पेट चाट चापेंगे।

किन्तु विधि को कदाचित कुछ और ही मंज़ूर था। बच्चों ने माँल में मैक डाँनल्ड की दुकान की झलक पा ली थी, बस फैल गये," शर्माजी की चाट कौन खयेगा! हमतो मैक डाँनल्ड के बर्गर खाएगे।" इसके पहले कि मैं अपना रौद्र रूप उन्हें दिखाता, श्रीमतिजी ने उनका साथ देते हुये कहा,"खिला दो ना, बच्चे कहाँ रोज़ रोज़ जिद करते हैं।" प्रजातंत्र है, तीन के आगे मैं अकेला क्या करता - तुरंत घुटने टेक दिये।

सौ रुपये प्रति थाल (मैक डानल्ड में 'थाल' को 'मील' कहते हैं) के दर से हमारे परिवार के चारों सदस्यों ने कुल चार सौ रुपये फूँक कर सैम चाचा के देश का वडा पाव खाया। हाँ, साथ में कोला का शर्बत और आलू की तली हुई फाँके भी थी। चार सौ रुपये में तो शर्माजी अपना पूरा ठेला हमारे मुँह में ठूंस देते और चलते समय एक बीड़ा सौफ़िया पान दे कर सलाम भी करते।

श्रीमतिजी भी अपने फ़ैसले पर बहुत दुखी सी लग रही थी। चलते समय उन्होंने अक्लमंदी का काम किया, बची हुई पेपर नैपकिन लपेट कर अपने पर्स में ठूंस लीं, मौका ताड़ कर मैने भी इधर-उधर देखते हुए टोमाटो साँस के बचे हुए पाउच अपनी जेब के सुपुर्द कर दिये। ऐसे 'खुफ़िया' तरीके से साँस चेंपते हुए मन बड़ा पुलकित हुआ। अचानक ना जाने कहाँ से मेरे कानों में जेम्स बाँड की 'थीम ट्यून' का रोमांचक संगीत गूंजने लगा, हर जगह मात खाये एक आम हिन्दुस्तानी के लिये अचानक कुछ कर गुजरना एक बहुत ही बड़ी उपलब्धि है, मेरा आत्मविश्वास अचानक सातवें आसमान पर था, मेरी चाल में थकान की जगह 'बाँड' की ताज़गी थी ("ब्रुक बाँड" की नहीं "जेम्स बाँड" की), आँखों में 'मिशन कामयाब' होने की चमक थी , एक अह्सास था कि 'हमें लूटने चले थे - उल्टा हमने ही लूट लिया' और एक तसल्ली भी थी कि चलो दो दिनों तक बच्चों के टिफ़िन में रखने के लिये नैपकिन और साँस का जुगाड़ हो गया।

हवा में लहराता, होठों पर कामयाबी की मुस्कान चिपकाये मैं बाहर आया। श्रीमतिजी पहले ही बाहर आ चुकी थीं, मैं बाँड की तरह अपनी इस नायिका की ओर बढ़ा सोचा, जब नज़रें मिलेंगी तो हम एक दूसरे को एक मिशन कामयाब होने की एक 'मिस्टीरियस स्माइल' देंगे और हाथ थाम कर अगले मिशन के लिये आगे बढ़ चलेंगे।

जैसे ही उनके पास पँहुचा, उन्होंने कर्कष धवनि का पत्थर फेंका," अंदर झाड़ू पोंछा करने लगे थे क्या? इतनी देर से बाहर इंतज़ार कर रही हूँ।"

एक ही पल में जेम्स बाँड की 'थीम ट्यून' के रोमांचक संगीत की जगह मेरे कानों में दुखिया सारंगी गूंजने लगी। जेम्स बाँड की अर्धनग्न, मुस्कुराहट बिखेरती, कामुक नायिका के स्थान पर साढ़े पाँच गज की साड़ी लपेटे, आँखों से शोले निकालती, रौद्र रूप धारण कर मेरी श्रीमतिजी विद्यमान थीं। एक ही पल में मैं अति गौर वर्णीय, अंग्रेजी भाषी, अजेय और ब्रिटिश नागरिक जेम्स बाँड के सर्वोपरि स्थान से गिर कर एक काला-कलूटा, हिन्दी भाषी, थका हारा हिन्दुस्तानी बन गया। काँच से बना मेरा स्वप्न महल खनखन करता ढ़ेर हो गया।

सारा मूड आँफ़ हो गया!

मैं ने घूर कर श्रीमतिजी को देखते हुये कहा," हाँ, हाँ ठीक है! चलो घर वापस चलते हैं।" और गाड़ी की ओर चल पड़े।

नगर में माँल

जब भारत वर्ष के समस्त नगरों में ज़मीन के भाव आसमान चूमने लगे, तो भवन निर्माताओं ने अपनी दया दृश्टि हमारे शहर की ओर घुमाई, और इस प्रकार, गत वर्ष हमारे शहर में एक अदद शांपिंग माँल का आगमन हुआ।

भुक्ष नगर वासियों को तो मानो जैसे छप्पन पकवानों से सुसज्जित थाल मिल गया हो, सारे नगरवासी, अपने समस्त परिवार जनों के साथ, ऐसे उमड़े मानो वहां भारत और पाकिस्तान का एक दिवसीय क्रिकेट मैच होने वाला हो, या मानो जगत नारायण स्वयं अवतरित हो गये हों। पूछिये मत, श्रद्धालुओं का तांता लग गया। कोई कार में चढ़ा चला आ रहा है, कोई सायकिल खींचते हुये चला आ रह है - जिसमें पीछे कैरियर पर श्रीमतिजी गोद में एक बच्चा लिये बैठी हैं और आगे डंडे पर एक बच्चा और विराजमान है, कई जोशीले मुस्तंन्ड़े नगर बस की खिड़कियों में लगे सिखचों लटक लटक कर पहुंचे (इसके दो लाभ हैं - एक तो टिकट नहीं खरीदना पड़ता है दूसरे बस के अन्दर पसीने की बदबू का जो भभका रहता है उसे भी नहीं झेलना पड़ता है) और, जिनके पास विलास के इन मंहगे साधनों का व्यय वहन करने की क्षमता नहीं थी, वो श्रद्धालुगण लम्बी लम्बी पेंगे भरते हुये मांल तक की सड़क नापते हुये ही निकल पड़े।

देखते ही देखते छूत की यह बीमारी सारे शहर में फैल गयी। अब इस बीमारी का कोई टीकाकरण तो उपलब्ध था नहीं कि हम खुद को बचा पाते। फिर इस कीटाणु ने हमारे परिवार के सभी सदस्यों के इच्छा द्वार पर दस्तक दे ही डाली। एक दिन खाने के समय श्रीमतिजी ने मेरी मनपसंद आलू की सूखी सब्ज़ी और पनीर परोसी, मुस्कुरा कर पूछीं, "कैसी बनी है?"

"उम्म ! बहुत बढ़िया बनी है", मैने खाने का मजा लेते हुये कहा।

खुशी से उनके आगे के चार दांत झलक पड़े। थोड़ा रुक कर घबराते हुये पूछ बैठीं, "कभी माँल घूमने चलें?"

उनकी घबराहट का कारण यह था कि मेरे जैसा जन्म-जात कंजूस, माँल का नाम सुनते ही, कहीं पागल कुत्तों की तरह उनको दौड़ा कर काट ना खाये। उन्हें क्या पता था कि मैं भी माँल रोग से ग्रसित था, मैनें झट से कह दिया,"कल चलते हैं।"

उनकी सारी बत्तीसी फिर बाहर," थोड़ी पनीर और लीजिये ना ।" शादी के बाद पहली बार श्रीमतिजी ने इतने प्रेम और समर्पण से भोजन परोसा और खिलाया, मैने भी कुछ ज़्यादा ही खा लिया, बाद में बच्चों के लिये खाना कम पड़ गया, ख़ैर माँल दर्शन की आस में उन्हें एक रात भूखे सोना भी मान्य था।

मैं भारत वर्ष के उस कथित उन्नतशील एवम गतिशील मधयम वर्ग का प्राणी हूं, जिनके पास एक चौपहिया वाहन होता है। दो साल पहले मैनें एक 'वैगन आर – एल एक्स आई' खरीदी थी, अब पता नहीं कि उसे किस नाम से पुकारूं, हमारे नगर की सड़कों पर चलने वाले टाटा सुमो और महिन्द्रा मार्शल, जिनको हम "मैक्सी कैब" कहते हैं और, तीन पहियों पर लुढ़कते हुये विक्रमों ने मेरी नयी नवेली का ऐसा चीर हरण किया कि बेचारी बाल्यावस्था से सीधी वृद्धावस्था में ढ़नग पड़ी। ऐसी दुर्गति हो गयी है कि मारुति-सुज़ुकी के विशेषज्ञ भी उसे पहचानने से मुकर जाते हैं। मेरे कुछ अनिभिज्ञ मित्र जो हमारे शहर के यातायात से भली भांति परिचित नहीं हैं कभी कभार पूछ लेते हैं," भैया क्या ' डी सी' (दिलीप छाबरिया) का किट लगवाया है गाड़ी में, बड़ी धांसू लग रही है? " सुन कर, नगर के यातायात संबंधी उनके सामान्य ज्ञान पर तरस आता है, और अपनी गाड़ी की दशा पर रोना।

खैर, अगले दिन श्रीमतिजी ने मुझे चालक की सीट पर धकेला, पीछे की सीट पर अखण्ड रामायण के लाउड स्पीकरों की तरह लगातार बजने वाले दोनों बच्चों को ढ़ूंसा और बड़ी अदा से मेरी बगल वाली सीट पर बैढ़ते हुये बोलीं - चलो चलो, जल्दी चलो। पुरुष धर्म के अनुसार स्त्री आज्ञा निभाते हुए, मैने कार को सड़क पर धकेल दिया।

रास्ता ढ़ूंढ़ने में कोई ज़हमत नहीं करनी पड़ी, मालुम था जिधर सारे लोग जा रहे हैं वही रास्ता माँल को जाता होगा। ढ़ाई किलोमीटर की दूरी को करीब 30 मिनट में पूरा करते हुये, अंतत: हम माँल पहुंच ही गये। अनंत श्रद्धालुओं की ऐसी भीड़ कि अगर कुम्भ का मेला यह नज़ारा देख ले, तो शायद वह भी चुल्लू भर पानी तलाशने लगे। श्रद्धालुओं की आंखों में विस्मय तथा श्रद्धा का भाव देख कर ऐसा प्रतीत होता था, कि माँल- दर्शन के फलस्वरूप वो जीवन म्रित्यु के अनंत चक्र से मुक्त हो यहीं मोक्ष प्राप्त कर लेंगे।

अखण्ड रामायण के लाउड स्पीकरों की तरह लगातार बजने वाले दोनों बच्चों की आवाज़ जब काफ़ी देर तक नहीं सुनायी पड़ी तो मैंने कनखियों से पीछे देखा, दोनों के जबड़े विस्मय से ऐसे लटक रहे थे मनो कि घुटनों को छू लेंगे। टकटकी लगाये माँल के भवन को निहारे जा रहे थे। श्रीमतिजी का भी कुछ ऐसा ही हाल था। और हम अपने भाग्य को कोंस रहे थे, जन-सिंधु के बीच में गाड़ी हांकते हुये, हम जी भर कर माँल को देख भी नहीं पा रहे थे। यकीन मानिये अगर पीछे से आ रहे गाड़ी वाले जोर-जोर से हार्न ना बजा रहे होते, तो मैं सड़क के बीच में ही गाड़ी खड़ी कर पहले जी भर कर माँल को देखता, फिर आगे बढ़ता।

गाड़ी आगे बढ़ाते हुये मैं कनखियों से सड़क के दोनों ओर पार्किंग तलाश करने लगा कि कहां पर गाड़ी घुसेड़ूं, दो चक्कर लगाने के बाद भी जब पार्किंग के लिये स्थान ना मिला तो श्रीमतिजी ने झुंझला कर कटाक्ष किया," बाहर से ही परिक्रमा करते रहोगे या भीतर चल कर साक्षात दर्शन भी करवाओगे?"

मैं भी चिड़चिड़ा कर बोला," पार्किंग तो मिले, या यहीं सड़क पर ही गाड़ी छोड़ दूं !"

"लो पापा को तो मालुम ही नहीं," मेरे गंवारपन का ढ़िंढ़ोरा बच्चों के सामने पीटती हुयी बोली," माँल में ही भूमिगत पर्किंग है, बिलकुल फ़ारेन कन्टरी की तरह, पच्चिस रुपये में पार्किंग मिल जाती है!"

“पच्चिस रुपये!?," मैंने विस्मित होकर कहा,"सारे शहर में तो पांच रुपये में होती है!!" " चक्कर लगा लगा कर पचास रुपये का तेल फूंक दोगे लेकिन पार्किंग के पच्चिस रुपये नहीं दोगे!"

श्रीमतिजी की बात में दम था, अत: मैने गाड़ी माँल की पार्किंग की ओर मोड़ दी, लेकिन प्रवेश द्वार पर पहुच कर पाया कि "पार्किंग फ़ुल" का बड़ा सा तिख़्ता झूल रहा है। बड़ी मुशक्कत के बाद मैने पाया कि थोड़ी दूर पर, सड़क के किनारे, गाड़ियां कतार बद्ध तरीके से खड़ी थी। चाचा चौधरी की तरह मेरे दिमाग में तर्क कौंधा कि हो ना हो यहां नयी पर्किंग शुरू हो गयी है। बस, मैंने निचोड़ते हुये अपनी गाड़ी को यदा कदा वहां घुसेड़ ही दिया।

"पार्किंग वाला कोई दिख नहीं रहा है।," श्रीमतिजी ने प्रशन किया।

"चिंता ना करो, यहीं कहीं होगा, आ जयेगा बाद में। अब समय ना व्यर्थ करो, चलो चलते हैं।"

हमारे शहर का यह 'रिवाज़' है, गाड़ी खड़ी करने के समय आपको टोकन देने के लिये कोई नहीं आएगा, लेकिन जब आप गाड़ी निकालने आएगे तो आपकी गाड़ी में बा कायदा टोकन लगा मिलेगा, जी हां टोकन का वह हिस्सा जो आपके पास होना चाहिये, वह भी गाड़ी में लगा दिया जाता है। और जैसे ही आप गाड़ी निकालेंगे, 13-14 साल का एक लड़का पार्किंग शुल्क के पांच रुपये लेने के लिये, सहसा प्रकट हो जायेगा।

हमने निश्चिंत होकर अपनी गाड़ी खड़ी करी और चल दिये माँल घूमने।