मंगलवार, जून 05, 2007

गिल्ली डंडा से गॉल्फ़ तक

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कोई दो सप्ताह पहले सिंगापुर के अंग्रेजी दैनिक “The Straits Times” के मुख्य पृष्ठ पर एक रिपोर्ट छपी “Golf: The Next Big Thing in India”. आधे पन्ने की इस रिपोर्ट को मैं ने भी बड़े चाव से पढ़ा और गर्व से अपना सीना चौड़ा किया. फिर, खुद ही से पूछ बैठे कि भैया तुम काहे को फूले जा रहे हो? तुमको तो गोल्फ़ खेलना आता भी नहीं है! सही बात है भैया, ‘ग’ से शुरू होने वाले गोल्फ़ से तो अपना दूर दूर तक कोई नाता नहीं है, अपने जमाने में तो (अब लगता है कि उम्र चढ़ने लगी है) ‘ग” से शुरू होने वाला केवल एक ही खेल खेला जाता था और वह था ‘गिल्ली-डंडा’.
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गिल्ली-डंडा का ख्याल आते ही अपने पुराने स्कूल की यादें ताज़ा हो उठीं। जब कभी भी दस्त या पेंचिश की शिकायत होने के कारण कोई मास्साब स्कूल ना आ पाते तो हम सबकी तो चाँदी हो जाती. उनके अड़ोस पड़ोस में रहने वाला कोई लड़का या उनसे ट्यूशन लेने वाला कोई छात्र आते ही पूरी क्लास में ढिंढोरा पीट देता,”अबे सुनो, आज गुप्ता मास्साब नहीं आयेंगे, परसों पड़ोस में एक मुण्डन की दावत में हपक कर कद्दू की सब्जी और पूड़ी-कचौड़ी चेंपे और आठ गुलाबजामुन डकार गये, कल दिन भर हाथ में लोटा उठाये पाकिस्तान के इतने चक्कर लगाये कि आज मारे कमजोरी के पेट पकड़े लेटे हैं. तो भैया, आज इतिहास का घंटा खालीईईई..... ओय..... होय..... ओय..... होय.....” और उसकी इस ओय-होय में पूरी कक्षा उसका साथ देते हुये अपनी खुशी का इज़हार करती.
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सुबह से ही सारी क्लास इतिहास के घंटे की प्रतीक्षा करने लगती. इधर दूसरे मास्साब चाहे जो भी पढ़ा रहे हों, पीछे की डेस्क पर बैठे योद्धा अपने पापा का इस्तेमाल किया हुआ टोपाज़ ब्लेड लेकर, डेस्क के नीचे हाथ छिपाये हुये गिल्लियाँ छीलते और मौका मिलने पर सरकारी स्कूल की खुरदुरी फर्श पर गिल्लियों को रगड़ रगड़ कर उसके किनारों को चिकना करते.
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सुबह से ही बस गुप्ता मास्साब के इतिहास के घंटे का इंतज़ार रहता। एक दूसरे को इशारा करते हुये टीमें भी तैयार हो जातीं. जैसे ही इतिहास का घंटा बजता सारे योद्धा अपने कापी-किताबें समेट कर डेस्क में ठूंसते और क्लास की खिड़की से कूद कर सीधे मैदान में प्रकट हो जाते. कभी कभी सोचता हूँ कि ‘टाइम मैनेजमेंट’ सिखाने वाले गुरुओं को हम गिल्ली-डंडा योद्धाओं से सीख लेने आना चाहिये था. घंटा बजना पूरा भी नहीं हुआ, पिछले मास्साब अपना डस्टर और खड़िया का डब्बा लेकर निकले भी नहीं और हम सारे फौजी आलरेडी ऑन द ग्राउंड – विदाउट वेस्टिंग टाइम – भइ वाह इसे कहते हैं टाइम मैनेजमेंट!
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हमारी क्लास का चैंपियन था आरिफ, भइ बस यूँ समझ लीजिये कि मानो खुद अल्लाह ताला ने ही उसके हाथ में डंडा थमाया था! एक बार मैदान में आ जाये तो गिल्ली तो बस ये जा कि वो जा. मानों कि गिल्ली को बस पंख उग आये हों. आरिफ के डंडे की मार ऐसी कि बेचारी गिल्ली जमीन चूमने को तरस ही जाये.
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आरिफ से मुझे बहुत चिढ़ थी, अरे भई बहुत पद्दी कराता था. वो गिल्ली पीटता जाये और हम पद्दी करते हुये मैदान भर में दौड़े जायें. आप ही बताइये अगर आप को कोई इतनी पद्दी कराये तो क्या आपको अच्छा लगेगा? अपनी प्रतिभा पर आरिफ़ को बड़ा घमंड था, गिल्ली पीट कर गुच्चुक के पास डंडा रख कर बड़ी ऐंठ के साथ खड़ा होता और नपाई बोलता,”200 डंडे.”
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फिर हम हारते हुये योद्धाओं ने एक ट्रिक सोची। अगली बार जब आरिफ ने गुच्चुक के पास डंडा रख कर बोला,” 350 डंडे.” तो हम बोल पड़े,”350, अरे जाओ 150 से ज्याद नहीं है!”
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“350 डंडे हैं।, कहो तो नाप दूं!”
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“हाँ, नाप...”
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“350 निकले तो डबल लूंगा।” आरिफ़ ने धौंस दी.
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“अरे चल, 350 निकला तो डबल क्या, तिगुना देंगे।”
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“ठीक है...!!” कह हर अपने को संदीप पाटिल समझने वाले आरिफ़ कमर से झुक कर गुच्चुक से गिल्ली तक का सफ़र नापने लगे..एक...दो...तीन...चार..हम हारते हुये सैनानियों को बहुत मज़ा आता कि बेटा हमें पद्दी कराने चले थे अब खुद कमर से झुक कर नापो.
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ऐसा सिलसिला चलता रहा और हम आरिफ़ से नपइया कराते हुये उसकी कमर टेढ़ी करते रहते. एक दिन नपइया करते हुये आरिफ ने कनखिया के देखा कि हम हारे हुये योद्धा उससे नपइया करवाते हुये मुस्की मार रहे हैं. बस्स, अगली बार जब हमने नपइया करने को कहा तो आरिफ़ अड़ गया,” नापना है तो खुद ही नापो.”
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हम भी अड़ गये,” अरे, हम क्यों नापें? हम थोड़े ही 350 डंडा मांग रहे हैं, तुमने माँगा है तुम नापो वर्ना हम तो 50 डंडा देंगे!”
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बात बढ गयी, पहले चिल्लम चिल्ली हुयी, फिर गाली-गलौज और फिर कॉलर पकड़ कर गुथ्थम गुथ्था!
इस लड़ाई के बाद गिल्ली डंडा खेलने वालों के दो ग्रुप बन गये, और फिर दो से चार बने, और फिर....
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खैर, सिंगापुर के अखबार में छपी गोल्फ़ वाली खबर से यह खुशी तो ज़रूर हुयी कि हमने क्रिकेट के अलावा कुछ और तो सोचा भले ही वह गुल्ली-डंडा हो या ना हो। बड़े चाव से मैंने वह समाचार पढ़ा और मेरे साथ यहाँ के कई निवासियों ने भी पढा होगा. देश पर गर्व हुआ और दिल बोला – मेरा भारत महान!
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फूले फुलाये घर से निकले, उस दिन ऑफिस नहीं जाना था. एक सेमिनार में जा कर पर्चा बाँचना था. मेरा पर्चा दोपहर के खाने से तुरंत पहले था, सो हम आराम से घर से निकले और टलहते हुये पहुंच गये. जब अपना नाम पुकारा गया तो मंच पर चढ गये और पर्चा बाँच दिया.
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मुझे लंच के तुरंत पहले वाला स्लॉट बहुत बढिया लगता है. आधे से ज्यादा लोग ऊंघ रहे होते हैं, कुछ अपनी घड़ी देखते रहते हैं कि कब कव्वाली बंद हो और लंच पर जुगाली शुरू हो. एक और बात कि जब प्रश्न उत्तर सत्र होता है तो लोग एक भी सवाल नहीं पूछते हैं (कौन बावला सवाल पूछ कर खाने के समय को स्थगित करना चाहेगा?) और जैसे ही आप आप बोलना बंद करते हैं लोग हाथ पीट पीट कर पूरे हॉल को तालियों गड़गड़ा देते हैं कि चलो भैया अखण्ड रामायण समाप्त अब प्रसाद ग्रहण करने चलो. लेकिन वक्ता का हृदय बहुत प्रसन्न हो उठता है क्योंकि वह यह सोचने लगता है कि गड़गड़ाहट उसके बेहतरीन पर्चे के लिये की जा रही है! चलो भाई सब खुश.
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तो इस प्रकार लोगों ने तालियाँ पीट पीट कर हमें मंच से उतार दिया और हम खुशी खुशी मंच से उतरे और सीधा प्रसाद ग्रहण करने लंच लॉबी में गये. आम तौर पर ऐसे आयोजनों में ‘बुफे’ लंच होता है मगर लगता है आयोजकों को होटल से मोटा डिस्काउंट मिला था जो उन्होंने ‘सिट डाउन’ लंच का इंतजाम किया था.
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मैं भी लप्प-झप्प गया और एक सीट पर विराज मान हो गया. मेज पर बैठे बाकी के 5 लोगों से नमस्ते दुआ हुयी, कार्ड का आदान प्रदान हुआ, कार्य क्षेत्र के विषय में पूछ ताछ करी गयी और फिर सब बड़ी शालीनता से चबड़ चबड़ भोग लगाने लगे.
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मेरी मेज पर बैठे एक चीनी मूल के सिंगापुरी महोदय ने पूछा,” क्या आप भारत से हैं?”
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मैंने कहा,” जी हाँ।”
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अब शायद उन्होंने सुबह का अखबार पढ़ा होगा और साथ ही गोल्फ़ के शौकीन भी रहे होंगे. अखबार की खबर को उन्होंने खुद-ब-खुद मुझसे जोड़ दिया और यह मान लिया कि क्योंकि मैं एक हिन्दुस्तानी हूँ और क्योंकि हिन्दुस्तान में गोल्फ़ का बुखार चढ़ चुका है तो हो ना हो मैं भी गोल्फ खेलता ज़रूर होऊंगा. बस्स, उन्होंने बन्दूक तान दी और सवाल दाग दिया,” So, what is your handicap?”
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कसम उड़ान झल्ले की, मेरा तो खून खौल उठा. लखनऊ में कोई ऐसा सवाल पूछता तो गोरखपुर वाले भाई साहब से कह कर वहीं का वहीं उठवा देते. मन में आया कि पूछूं कि सरऊ हम तुमको हैंडीकैप दिखायी देते हैं. पर अपमान का घूंट पी कर रह गये. फॉरेन में लोग गालियाँ भी प्यार मुहब्बत से देते हैं ना. तो हमने भी सीने पर पत्थर रख कर मुस्कुराते हुये कहा,” My handicap is zero.”
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अब हमारा यह बोलना था कि ना जाने क्यों मेज पर उपस्थित सभी लोगों नें चबड़ चबड़ मुँह चलाना बंद कर दिया और लटके हुये जबड़े और आश्चर्य के साथ मुझे देखने लगे. एक ने बड़ी मुश्किल से पूछा,” Zero handicap.. ! ! ! ? ? ? “
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“Yes, zero।” मैं ने दृढ़ता से जवाब दिया. बड़ी गुस्सा भी आयी कि सरऊ हमारी बरीक्षा ले कर आये हो क्या जो ऐसा सवाल पूछ रहे हो?
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“Oh my God, Zero……” एक सज्जन कुछ ज्यादा ही उत्साहित हो गये और करीब करीब चिल्ला ही उठे. उनके चिल्लाने का नतीजा यह था कि छूरी-काँटे और प्लेट की खनक अचानक बंद हो गयी और पूरे हॉल में सन्नाटा सा हो गया. मुझे लगा कि सब लोग बड़े आदर सम्मान के साथ मेरी ही ओर देख रहे हैं. मुझे लगा कि लगता है कि इन 50 य 60 लोगों में मैं अकेला ही ऐसा हूं जो हैंडीकैप नहीं है. सो हम थोड़ा चौड़े होते हुये हवन में थोड़ा घी और डाल दिये,” अब ऐसा है कि मैं शुरू से ही सेहत के प्रति काफी जागरूक रहा हूँ. मैं रोज़ 40 मिनट दौड़ता हूँ, 20 मिनट तैराकी करता हूँ और सुबह सवेरे योगासन वगैरह भी करता हूं. तो फिर मेरे साथ ‘हैण्डीकैप’ होने का तो कोई प्रश्न ही नहीं है.” कसम से झूठ बोल कर बहुत मज़ा आया. मैं ने देखा कि कुछ लोग अपनी प्लेट उठा कर मेरी मेज़ के पास आकर खड़े हो गये और खड़े खड़े ही खाना खाने लगे. साथ में बात चीत का सिलसिला भी जारी रहा. एक सज्जन ने पूछा,” Which is your favourite greens?”
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यह सवाल सुन कर थोड़ा अच्छा लगा कि अब हैंडीकैप वाली बात खत्म. फिर सोचा कि यह कौन सा वाहयात सवाल है कि मेरा मनपसंद ‘ग्रीन्स’ क्या है? फिर शहर भर में लगे हुये मैक डॉनल्ड के इश्तिहार याद आये जिस पर लिखा रहता है “Ask for more greens in your sandwich”, मैं ने सोचा कि कसरत वगैरह की बातें झाड़ कर ऐसे ही लोगों को प्रभावित कर दिया है तो क्यों ना अब हरी सब्ज़ियों की बातें करके और रंग जमा लूँ। सोच कि बकबका दूँ कि मुझे बथुए की पूड़ी, पालक पनीर और सलाद का पत्ता अच्छा लगता है. अभी मैं यह कहने ही वाला था कि मुझे मधु साप्रे की गल्ती याद आ गयी.
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मधु साप्रे?
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जी हाँ वही मधु साप्रे जो ब्रह्माण्ड सुंदरी के आखिरी चरण तक पहुँच कर सिर्फ इसलिये बाहर हो गयीं क्योंकि उन्होंने कहा था कि वह अपनी देश में खेल प्रांगणों का निर्माण करवाना चाहती हैं। मैं ने सोचा कि और भी घाँसू जवाब देता हूँ ताकि मेरे बुद्धिजीवी होने की छाप भी लोगों पर पड़े.
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पहले मैं ने सोचा कि ग्रीन्स को ध्यान में रखते हुये क्यों ना हरे भरे वन आवरणों की बात करूं, वैसे भी आजकल सब भौगोलिक ऊष्मीकरण की बातें करते हैं। लेकिन फिर सोचा कि और भी मोटा मुद्दा घुसेड़ा जाय, जैसे कि आपसी रंजिश, सीमा विवाद, परुमाणिक या जैवीय हथियार से ऊपर उठ कर भाई चारे की बात करी जाये. भारतीय होने के नाते अगर मैं बोल दूँ कि पाकिस्तान महान तो मेरे जैसा साधू कौन होगा! और फिर मैं ने ग्रीन्स को पाकिस्तान के हरे झंडॆ से जोड़ते हुये कहा,”मुझे तो पाकिस्तानी ग्रीन्स पसंद हैं.”
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हॉल में सन्नाटा !! तभी कोई सज्जन बोल उठे,”हाँ मैं ने भी सुना है कि पाकिस्तान में बहुत ही उम्दा ग्रीन्स हैं।” मेरी तो धाक जम गयी.
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लंच खत्म होने पर सब वापस सेमिनार हॉल में जा बैठे, चाय के दौरान लोग बाग मुझे घेर लेते और सप्ताहांत पर मिलने का प्रस्ताव रखते. कसम से गुरू, हम तो छा गये.
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खैर, सेमिनार समाप्त होने पर मैं होटल की लॉबी में टैक्सी की प्रतीक्षा कर रहा था कि मुझे अपने एक भारतीय मित्र जिगनेश दिखाई दिये। मैं ने पूछा,” भैया, यहाँ कैसे?”
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“बस, वही सेमिनार जिसके लिये तुम आये थे।”
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“यार, तुम दिखे नहीं वहाँ पर!”
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“दिखूँगा कैसे भैया, तुम तो घिरे पड़े थे लोगों से, हमको काहे को देखोगे?”
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“अरे यार जिगनेश, मैं चाहे जितना भी बड़ा बन जाऊं, दोस्तों के लिये हमेशा उपलब्ध हूँ।” मैं ने अपनी दरियादिली और महानता का परिचय देते हुये कहा.
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लगता है जिगनेश थोड़ा जल गया और पूछा,” क्या फेंके पड़े थे वहाँ पर?”
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मैं ने दार्शनिक अंदाज में जिगनेश से कुछ यूँ कहा मानो कि वह इन उच्च स्तरीय बातों को समझ नहीं पायेगा,” Some current issues about handicaps and green cover.”
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जिगनेश हें हें करके हंसता हुआ बोला,” अबे वो सब गॉल्फ़ की बातें कर रहे थे और तुम ना जाने क्या हल जोते पड़े थे!”
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“गॉल्फ..! ? ! ?”
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जिगनेश अपनी हंसी रोकता हुआ बोला,” और नहीं तो क्या, हैंडीकैप गॉल्फ के खिलाड़ियों के योग्यता स्तर को बताता है और ग्रीन्स मतलब गॉल्फ़ कोर्स।”
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मैं तो सकते में आ गया,” यार यह तो गड़बड़ हो गयी। पहले पता होता तो हैंडीकैप ज़ीरो की जगह बोलता कि हर बार सेंचुरी मारता हूँ.”
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यह सुनकर जिगनेश, जो अब तक हें हें करके हंस रहा था अब हो हो हा हा करके हँसने लगा और बड़ी मुश्किल से बोला,” अबे यार, गॉल्फ में हर बार सेंचुरी मारने का मतलब है बिलकुल लद्धड़, समझे?”
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“समझ गये भैया, बड़ा अजीब खेल है, सब कुछ उल्टा पुल्टा। लेकिन यार एक दिक्कत है.”
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“बोलो...” जिगनेश ने कहा।
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“यार तुम मुझे कोई क्रैश कोर्स दे दो, अंदर सबसे वीकेंड पर ग्रींस पर मिलने की बात कही है। गुरू बड़ी मट्टी पलीद हो जायेगी.”
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“हुम्म..”, जिगनेश ने कहा,” भैया मुझे तो खुद ही खेलना नहीं आता है. लोगों से बात चीत करने के लिये एक आध टर्म सीख लिये हैं. सॉरी यार मैं कोई मदद नहीं कर पाऊंगा.”
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अब हम तो बड़े संकट में पड़े हैं। पिछली कई बार से तो अपने ‘चाहने वालों’ को कोई ना कोई बहाना बता कर गॉल्फ़ खेलने से बचते आ रहे हैं. लेकिन बकरे की अम्मा कब तक खैर मनाएगी? फिलहाल मैं ने अपने ‘नॉकिया’ के मोबाइल फोन पर और अपने कम्प्यूटर पर गॉल्फ खेलने की प्रैक्टिस शुरू तो कर दी है लेकिन अभी कुछ नियम कानून ठीक से मालुम नहीं हैं.
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आप महानुभाव यदि पत्राचार के माध्यम से मुझे गॉल्फ़ का खेल सिखा सकें तो इससे परदेश में फंसे एक लाचार हिन्दुस्तानी की बहुत मदद होगी. और हाँ, वो जो लोहे की डंडी (दुकानदार बता रहा था कि शायद क्लब बोलते हैं) से गॉल्फ़ खेलते हैं ना, अगर आपके पास कोई पुरानी पड़ी हो तो प्लीज़ वो भी भिजवा दीजिये, वैसे इसके लिये अधिक परेशान मत होइयेगा क्योंकि अगर वह ना भी मिली तो मैं अपनी हॉकी स्टिक से काम चला लूंगा.