सोमवार, दिसंबर 18, 2006

कब के बिछड़े

यह मनगढंत कथा तथा इसके मनगढंत पात्र पूर्णतयः मनगढंत हैं, किसी मनगढंत जीवित या मनगढंत मृत व्यक्ति या मनगढंत सत्य या मनगढंत असत्य घटना या मनगढंत कथा से मेल होना मात्र मनगढंत संयोग है.

घटना एक महीना पहले दिल्ली के एक पांच सितारा होटल के अल्पाहार गृह में घटी. भोजन करके निकलते हुये दो सज्जन आपस में भिड़ कर गिर गये.

"सॉरी, मैं आपको देख नहीं पाया." दोनों संभ्रांत व्यक्तियों के मुह से लगभग एक साथ निकला. संभल कर उठते हुये दोनों ने एक दूसरे को पहली बार देखा.

"अरे, तुम्हारे बायें गाल पर तो तिल है...."

"हां, बिलकुल तुम्हारी तरह!"

"कहां के रहने रहने वाले हो?"

"मैं तो "इ" फार इटली का रहने वाला हूं, और तुम?"

"मैं "इ" फार इंडिया का हूं."

दोनों ने एक दूसरे हो थोड़ी देर तक ध्यान से देखा मानो और भी समानतायें ढ़ूंढ़ने का प्रयास कर रहे हों.

"तुम्हारे पूर्वज कहां से हैं?"

"वैसे तो मम्मी ने बताया था कि सारी सभ्यता का विकास ईराक में हुआ था, उस हिसाब से तो पूर्वज ईराक से आये हुये लगते हैं."

"हां, सही कह रहे हो 'वयं रक्षामः' में भी यही लिखा है, मेरे पूर्वज भी ईराक से हैं."

"क्या तुम्हें लगता है कि यह समतायें मात्र संयोग है, या फिर ईश्वर कुछ संदेश देना चाहता है?"

"समझ में नहीं आ रहा है....! तुम्हारा नाम क्या है?"

"अरमानी, और तुम्हारा?"

"अडवानी....नामों में भी समानतायें.......क्या तुम्हें लगता है कि हम बिछड़े हुये...."

"हां भैया हां, आपने सौ प्रतिशत ठीक पहचाना, हम बिछड़े हुये भाई ही हैं...."

यह कहते हुये ईराकी पूर्वजों की संताने और सदियों से बिछड़े हुये दो भाइयों, 'इ' फार इटली के अरमानी और 'इ' फार इंडिया के अडवानी ने एक दूसरे को गले से लगा लिया, "मेरे भाई, इतने दिनों से कहां खोया हुआ था रे तू!! कितना दुबला हो गया है रे! क्या तुझे कभी अपने भाई की याद नहीं आयी?"

"भैया, आपकी भी तो मूंछे सफेद हो गयी हैं, अब जो मिले हैं तो कभी ना बिछड़ेगे."

अडवानी: तुम काम क्या करते हो?

अरमानी: मैं कपड़े बनाता हूं, डिज़ाइनर आउटफिट्स, और आप...?

अडवानी: ओह, तो तुम दर्ज़ी हो! मैं राजनीति करता हूं, प्रधानमंत्री पद का त्याग करता हूं, रथ यात्रा करता हूं, क्षमा मांगता हूं.....

अरमानी: अरे भैया, आप तो दीदी वाली लाइन में हैं....

अडवानी: दीदी?!?! क्या कह रहे हो छुटके क्या हमारी एक बहन भी है?

अरमानी: हां भैया, हमारी मुंह बोली बहन, मैका ‘इ’ फार इटली में है और ससुराल ‘इ’ फार इंडिया में. सोनिया नाम है उसका, देखो भैया कैसे दिल के तार जुड़ते जा रहे हैं और सदियों से बिछड़ा परिवार एक हो रहा है.....

अडवानी: हे राम! यह मुझसे क्या अनर्थ हो गया छुटकू. खून ने खून को नहीं पहचाना. अनजाने में मैं ने अपनी छोटी सी गुड़िया को कितने ज़ख्म दिये. लेकिन वह औरत नहीं – देवी है छुटकू – देवी!! मैं भगवान को क्या मुंह दिखाऊंगा? प्रायश्चित करने से भी मुझे मेरे पापों से मुक्ति नहीं मिलेगी!

अरमानी: रोइये मत भैया, ईश्वर को कदाचित यह ही गवारा था, अब जब हम एक दूसरे हो पहचान गये हैं, तो फिर क्यों ना मिल रहें. मैं अभी दीदी को फोन करके यहां बुलाता हूं....तब तक आप मेरे इस डिज़ाइनर रुमाल से अपने आंसू पोंछ लीजिये, इन मोतियों को यूं ही ना ज़ाया करिये (कहीं मगरमच्छ लज्जित ना हो जाये!).

अडवानी: जल्दी से मेरी मुनिया (सोनिया) को फोन करके बुलाओ.

अरमानी: (फोन पर बात करते हुये) दीदी, मेरी प्यारी दीदी, मेरी मां समान दीदी...

सोनिया: ज्यादा लम्बा संबोधन मत कर, पढ़ने वाले बोर हो जायेंगे, बोलो क्या बात है?

अरमानी: दीदी हमें सदियों से बिछड़े अपने भैया मिल गये हैं, मैं ना कहता था कि यह देश (इंडिया) चमत्कारों का देश है, राम और कृष्ण का देश है, यहां ईश्वर का वास है, यहां कुछ भी हो सकता है! अच्छा किया जो तुमने राखी के पावन त्योहार के बाद मुझे यहीं रोक लिया. अब जल्दी से आ जाओ, भैया तुमको गले लगाने के लिये बहुत बेताब हैं.

सोनिया: मैं अभी नहीं आ सकती, मेरी बहुत जरूरी बैठक चल रही है – मुस्लिम वर्ग को लुभाने की, उत्तर प्रदेश में सरकार बनाने की और फिर मुन्नू को भी बताना है कि आज उसे कब, कहां और क्या बोलना है....

अरमानी: यह क्या कह रही हो दीदी, वक्त की आंधियों, पैसे की चकाचौंध और सत्ता के लोभ में तुम इतना बदल गयी हो, कि आज लहू की पुकार भी तुम्हें सुनाई नहीं दे रही है? अगर तुम्हारे दिल में मेरे लिये जरा भी प्रेम है, तुमने जो राखी इस भाई की कलाई पर बांधी थी उस राखी के उन कच्चे धागों पर थोड़ा भी नाज़ है तो मेरी बहन, अपने इस भाई की पुकार को सुन दौड़ती हुयी चली आओ....

सोनिया: मगर मैं अभी कैसे...

अरमानी: .....कोई अगर – मगर नहीं तुम्हें पिज़्ज़ा, पास्ता, मैकरोनी, रोम, वेनिस, वेस्पा की कसम अपने भाई की पुकार सुनो, अपने दिल की पुकार सुनो....क्या तुम्हारा दिल पत्थर का हो गया है, सच्ची खुशियों को पहचानो दीदी, आओ दीदी आओ...

सोनिया: तुमने मेरी आंखें खोल दीं भैया, मैं भटक गयी थी. मैं इस झूठी शान-ओ-शौकत, इस दौलत को लात मारती हूं. आज मुझे सच्चे प्यार और परिवार की कीमत का अंदाज़ा लगा है. मैं आयी, आयी, आयी, आयी.....

अरमानी: ... आ जा! (फोन काटते हैं, और अडवानी की ओर मुखातिब हो कर) दीदी आ रही हैं भैया, आज पूरा परिवार एक हो जायेगा फिर हमें कोई जुदा नहीं कर सकेगा...

अडवानी: इंशा अल्लाह, वाहे गुरू, जीसस...

अरमानी: जय श्री राम....

(सोनिया हड़बड़ाती हुयी प्रवेश करती हैं)

सोनिया: (अरमानी को डांटते हुये) यह क्या ‘जय श्री राम’ लगा रखा है – सांप्रदायिकता फैला रहे हो, देश का चैन-ओ-अमन खराब कर रहे हो...

अरमानी: दीदी मैं तो बस ईश्वर को याद कर रहा था...

सोनिया: मेरे भोले भाई, हिन्दू पूजित ईश्वरों की जय करना सांप्रदायिकता होती है, तुम किसी गैर-हिन्दू धर्म की जय करो.... और धर्म निरपेक्ष बनो!

अडवानी: मुझे आपके इस कथन पर आपत्ति है!

सोनिया: अडवानी जी, आप यहां क्या कर रहे हैं, और आप यह कैसी बहकी हुयी बातें कर रहे हैं - 'इंशा अल्लाह, वाहे गुरू, जीसस'?
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अडवानी: मैं अपने कथन को वापस लेता हूं और उसके लिये क्षमा याचना भी करता हूं. दरअसल मेरे कहने का मत्लब कुछ और था जिसे मीडिया ने तोड़ मरोड़ कर पेश किया है. इसमें विपक्षी दल और पड़ोसी मुल्क की सांठ-गांठ दिखायी देती है.
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सोनिया: लेकिन आप यहां कर क्या रहे हैं...?

अरमानी: दीदी, यही तो हैं हमारे बिछड़े हुये भाई.

सोनिया: नहीं! यह नहीं हो सकता. एक बार, सिर्फ एक बार, भगवान के लिये कह दो कि यह झूठ है!

अडवानी: यही सच है बहन, मैं ने आज तक तुमको बहुत पीड़ा दी, तुमको विदेशी कहा, तुमको ताने दिये – अपने इस बूढ़े भाई को और शर्मिंदा मत कर – आ जा मेरी बहन....

सोनिया: नहीं भैया, गलतियॉ तो मुझ अभागिन से हुयी हैं. मैं ने आपको सांप्रदायिक कहा, आपकी रथ यात्राओं का मज़ाक बनाया. मेरी इन हरकतों से सदियों तक यह समाज मुझे माफ नहीं करेगा, मैंने भाई बहन के पवित्र रिश्ते को नहीं पहचाना... मुझे अपने पैरों पर गिर कर अपने पापों का प्रायश्चित करने दीजिये....

अडवानी: नहीं मुनिया, बहन भाई के पैर नहीं छूती है. चल मेरी बहन इस बेरहम ज़माने से दूर हम अपने घर चलते हैं, जहां अपनापन है, जहां हमारी जड़े हैं....यहां से बहुत दूर...

अरमानी: हम कहां जा रहे हैं भैया? दीदी? 'इ' फार इंडिया या 'इ' फार इटली?

सोनिया & अडवानी: अब हम किसी छोटे 'इ' नहीं जा रहे हैं. हम बड़े 'ई' फार ईराक जा रहे हैं – आखिर वहीं से तो जुड़े हैं हम....

अरमानी: भैया, दीदी, मैं सफर के लिये कुछ ऊंट, खजूर और पानी ले कर आता हूं...
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सोनिया & अडवानी: छुटकू कुछ एक बुलेट प्रूफ जैकेट भी लेते आना... आ अब लौट चलें, नैन बिछाये बाहें पसारे तुझको पुकारे देश तेरा...

अरमानी: आ जा रेएए..आ जा रे ....

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दूर एक बहुमंजिला इमारत पर खड़े हो कर मायावती और मुलायम अपनी दूरबीन से यह दृश्य देख रहे हैं और अपने खुफिया यंत्रों से उनकी बातें भी सुन रहे थे.

मायावती: माननीय मुलायम सिंह जी, बधाई हो आपकी सूझ बूझ का जवाब नहीं, कैसे दोनों को चुनाव से क्या पूरी राजनीति से ही हटा दिया...हें...हें...हें...

मुलायम: बहन मायावती, इसमें आपका भी बहुत सहयोग रहा है....हें...हें...हें...इसी खुशी में एक कुल्हड़ लस्सी पीजिये.

मायावती: लस्सी क्यों, कोका कोला क्यों नहीं...?

मुलायम: जी वो ऐसा है कि कोका कोला पूंजीवाद का प्रतीक है और लस्सी समाजवाद का....

मायावती: ओह अब समझी! वैसे आपने मुझे ‘बहन मायावती’ कह कर संबोधित किया है, इसलिये मैं आपको राखी बांधना चाहती हूं...

मुलायम: (हड़बड़ा कर पीछे होते हुये) अरे ऐसा अनर्थ मत करिये, मैं अपने शब्द वापस लेता हूं....

मायावती: मतलब क्या है आपका....?

मुलायम: ऐसा वैसा कोई मतलब नहीं है, बस याद आ गया कि आपने लाल जी टंडन को राखी बांधी थी तो उनका क्या हाल हुआ था...आपकी राखी आपको ही मुबारक..

मायावती: अरे जा, बड़ा आया सायकिल पर चलने वाले, मैं तो हाथी की सवारी का प्रस्ताव दे रही थी....

मुलायम: हुंह, तुम्हारे हाथी के चक्कर में सायकिल से भी जाऊंगा....

मायावती: ठीक है – ठीक है, चुनाव में देख मैं कैसे अपने हाथी से तेरी सायकिल रौंदती हूं .... अब भाग यहां से नहीं तो ऐसी ऐसी गालियां दूंगी कि कान के सारे कीड़े मर कर बाहर गिरेंगे...शुरू करूं क्या?

मुलायम: चुनाव में देखते है....(अमर को ढ़ूंढ़ते हुये) अरे भाई अमर कहां हो, चलो यहां से चलें....’कमल’ और ‘हाथ’ तो हट गये लेकिन ‘हाथी’ हटाना मेरे अकेले के बस की बात नहीं है.....

अमर: आया नेता जी, बड़े भैया की नयी फिल्म रिलीज़ हो रही है ना, उनसे ही बात हो रही थी. (फोन पर) अच्छा भैया, जया भाभी को नमस्ते कहियेगा, मैं बाद में फोन करता हूं. (नेता जी से) चलिये नेताजी...अरे आप चिंता मत करिये, चुनाव में हम इस ‘हाथी’ को अपनी ‘सायकिल’ से कुचल देगे...
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मुलायम: इस बार आप सायकिल चलाइये, मैं बैठता हूं. आपको खींचते हुये तो मेरी कमर में दर्द हो गया.
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अमर: क्या नेता जी, आप तो पहलवान हैं.
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मुलायम: अरे भाई हमने तो जवानी में पहलवानी करी थी, आप तो इस उम्र में भी कसरत करते रहते हैं...हें...हें...हें...
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अमर: क्या नेता जी आप तो यूं ही मजाक करते रहते हैं, चलिये बैठिये. इतने दिनों से कह रहा हूं एक कार ले लीजिये...नेता जी मैं सोच रहा था कि क्यों ना हम अपना चुनाव चिह्न 'व्हेल' रख लें, हाथी से बड़ा भी होता है....
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मुलायम: अरे अब चुप भी करिये और यहां से निकलिये, वर्ना यह पकाऊ ब्लगोड़ा ऐसे ही लिख-लिख कर पाठकों को पकाता रहेगा...चलिये!
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अमर और मुलायम सायकिल पर और मायावती हाथी पर बैठ कर प्रस्थान करते हैं और उधर अरमानी, अडवानी और सोनिया का संयुक्त परिवार ऊंट पर बैठ कर ईराक के किये कूच करता है.

मंगलवार, दिसंबर 05, 2006

चौपट राजा

॥ आगंतुकों के लिये सूचना ॥

जिस प्रकार मंदिर में जूते-चप्पल पहन कर जाना वर्जित होता है, उसी प्रकार इस पोस्ट को पढने के लिये दिमाग का इस्तेमाल करना वर्जित है।

आगे पढने से पहले अपना दिमाग कृपया यहां => ( ) <= रख छोड़िये। टोकन लेना मत भूलियेगा, कहीं ऐसा ना हो कि वापस जाते समय आप किसी और ही का दिमाग साथ ले कर चलते बनें। :)
5 दिसम्बर 2006

हाल में हुये दंगों की जांच करवाने के लिये कैबिनेट मंत्री श्री चौपट राजा द्वारा गठित जांच समिति ने आज अपनी रिपोर्ट मंत्री जी को सौंप दी। श्री चौपट राजा ने आज एक संवाददाता सम्मेलन में इस रिपोर्ट का ख़ुलासा किया। मंत्री जी के साथ उनके निजी सचिव श्री बांगड़ू भी थे।

श्री चौपट राजा: नमस्कार! विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं से आये तमाम सज्जन और सज्जनियों का हम स्वागत करता हूं। हमको यह बताते हुये बहुत खुसी हो रहा है कि हाल ही में हुये दंगो का जांच का काम पूरा हो गया है। जांच समिति ने अपना रिपोर्ट हमको दे दिया है। अब हमारे पास दंगे के कारण और उनसे जुड़े हुये पूरे तथ्य मौजूद हैं।

(प्रेस के प्रतिनिधि तालियां बजा कर स्वागत करते हैं)

प्रेस: मंत्री जी, बड़े आश्चर्य की बात है, आम तौर पर जांच समिति रिपोर्ट देने में इतना समय लगा देती हैं कि अभियुक्त को दण्ड देने का मौका ही नहीं मिलता है, वह ऐसे ही परलोक सिधार जाता है। इस बार यह रिपोर्ट प्रकाश गति से कैसे आ पहुंची?

श्री चौपट राजा: यह प्रकाश कौन है? हमारा उससे कौनो टाई अप नहीं है।

प्रेस: जी, हमारे पूछने का तात्पर्य था कि रिपोर्ट इतनी जल्दी कैसे आ गयी?

श्री चौपट राजा: अरे तो प्रस्नवा हिन्दी में पूछिये ना। देखिये, हमारी सरकार की नीति सदा से ही उदारीकरण की नीति रही है। लेकिन उदारीकरण में बह कर हम अपना देस का विचार धारा नहीं ना भूले हैं – ये आप जान लीजिये हां। हम वसुधैव कुटुंबुकम् में भरपूर विस्वास रखते हैं। उदारीकरण और वसुधैव कुटुंबुकम् के विचारों को देखते हुये इस बार जांच करने का काम हमने एक फारेन कम्पनी को दे दिया। और यह पूरी जांच पड़ताल इंगलैण्ड की एक कम्पनी ‘लाइसेन्स टु किक’ ने किया है।

प्रेस: आन्तरिक जांच का काम विदेशी कम्पनी को……?

श्री चौपट राजा: काहे? आपको कौनो प्राबलम है क्या? अरे रिपोर्टवा देखिये – कैसा बढिया ग्लासी पेपर पर छापे हैं, साथ में डेड बाडी वगैरह का फोटू देखिये कैसा दिल दहलाने वाला है, बर्निंग ट्रेन का फोटो भी बहुत अपीलिंग है। और जो इंगलिस वाला रिपोर्ट है ना – उसका इंगलिस पढिये इतना फस्ट किलास लिखे हैं कि हमका तो समझै में नहीं आ रहा है – क्वीन्स इंगलिस! बिलकुल परफेक्ट!! आप लोग भी डिक्सनरी विक्सनरी ले कर पढना।

प्रेस: मंत्री जी, पैकिंग अच्छी होने का यह मतलब तो नहीं कि अंदर का सामान भी अच्छा होगा।

श्री चौपट राजा: प्रेस के साथ यही मुसीबत है, आप लोग बहुत निरासावादी लोग हैं, अरे भाई कबहिं हमारा तारीफ़ भी किया करो – झटपट रिपोर्ट लाकर दिये हैं उसका तारीफ भी तो करो॰॰॰॰! इतना जल्दी तो मैगी नूडल भी नहीं बनता है। और सुनिये फारेन कम्पनी ने केवल इसी दंगे की जांच नहीं किया है, उन्होंने हमारे देस में अब तक हुये सारे दंगों का निसुल्क विस्लेसण भी किया है – बिलकुल फिरी।
उन्होंने बहुत बढिया और कनक्लूसिव रिपोर्ट दिया है। अब आप लोग सांत हो कर बैठिये और हमका रिपोर्ट बतलाने दीजिये॰॰॰

प्रेस: जी बताइये!

श्री चौपट राजा: देखिये, पूरा रिपोर्ट बतलाने का टाइम नहीं है, इसलिये हम सीधा ‘रूट काज़ एनालिसिस’, ‘कन्क्लूजन’ और ‘प्रिवेन्टिव ऐक्सन’ का निस्कर्स बतलावेंगे।

प्रेस: श्री गणेश करिये!

श्री चौपट राजा: रिपोर्ट के अनुसार कुछ साल पहले हमारे देस के एक पश्चिमी राज्य में कुछ अनैतिक तत्वों ने ट्रेन के एक डिब्बे में आग लगा दी थी। इस डिब्बे में कुछ यात्री लोग सफर कर रहे थे, कुछ तीर्थ यात्री, ऊ सब बेचारे यात्री जल कर मर गये, इसकी वजह से बाद में पूरे राज्य में भीसण दंगा फसाद हुआ। बहुत से लोग मरे, जले, बेघर हुये और पूरी दुनिया ने हमारा तमासा देखा। तो फिर अब ध्यान से देखिये – रूट काज़ क्या था?

प्रेस: मेरे विचार से तो उपयुक्त शिक्षा और मार्गदर्शन के अभाव में हमारा युवा वर्ग पथभ्रष्ट हो गया है, वह अनैतिकता के मार्ग पर चल पड़ा है, जिसकी वजह से यह दंगे-फसाद हो रहे॰॰॰॰॰

श्री चौपट राजा: अरे आप कइसन बतिया बतला रहे हैं? सतयुग में रह रहे हैं का? अनैतिक तत्व तो रहेंगे ही भाई! राम राज्य थोड़े ही ना है कि अनैतिक तत्व ना रहेंगे॰॰॰

प्रेस: तो॰॰॰॰

श्री चौपट राजा: मूल कारण अनैतिक तत्व नहीं हैं – मूल कारण है ‘रेलवेज़’!

प्रेस: हैं॰॰॰॰॰॰!?!?!? वह कैसे मान्यवर, आप यह कैसे कह सकते हैं?!?!?!

श्री चौपट राजा: क्यों चौंक गये ना! यह हम नहीं कह रहा हूं, यह तो ‘लाइसेंस टु किक’ की रिपोर्ट कह रही है भाई। हम हिन्दुतानी लोग ऐसा एनालिसिस कहां कर पाते, ये तो इंगलिश कम्पनी की महरबानी है कि इतना टू द पाइन्ट रिपोर्टवा दिया है।

प्रेस: मंत्री जी जरा विस्तार में बताइये और जरा जल्दी बताइये, मारे उत्सुकता के कहीं हमारा दम ना निकल जाये॰॰॰॰॰

श्री चौपट राजा: देखिये, अगर ट्रेन नहीं होता तो यात्री नहीं होते - यदि यात्री नहीं होते तो तीर्थ यात्री नहीं होते - अगर तीर्थ यात्री नहीं होते तो धार्मिक विसमतायें नहीं होती - विसमतायें नहीं होती तो घृणा नहीं होती - घृणा नहीं होती तो कौनो को पागल कुत्ता काटे है का, कि बिला वजह जाकर गाड़ी में आग लगा देता। तो सब का सुरुआत कैसे हुआ – ट्रेन से ही तो हुआ ना – तो रूट काज़ या मूल कारण का हुआ – ‘रेलवेज़’!

प्रेस: ज्ञानी चौपट राजा की जय! ‘लाइसेंस टु किक’ की जय!!

श्री चौपट राजा: सांती बनाये रखिये। सुनिये, आगे रिपोर्ट में लिक्खा है कि कुछ महीने पहले हमारे महानगर की लोकल ट्रेनों में सात आठ धमाके हुये थे।

प्रेस: जी॰॰जी॰॰हमें याद है।

श्री चौपट राजा: इन धमाकों का क्या मकसद था? अरे भैया सीधा मकसद था, हमारे देस की अर्थ cयवस्था को ‘डी-रेल’ करने का। तो सोचिये के हमारी अर्थ cयवस्था को सबसे बड़ा खतरा किससे है?

प्रेस: जी॰॰ चीन से ॰॰

श्री चौपट राजा: अरे आप कइसे पत्रकार बन गये भाई, इतना समझाने के बाद भी नहीं समझ पाते हैं, अब हमरी समझ में आया कि लोग पत्र पत्रिकाओं को छोड़ कर ब्लाग काहे पढने लगे हैं, आप जैसे लोग रहे तो सब मैगजीन-फैगजीन एक दिन बंद हो जावेगा। सबसे बड़ा खतरा है रेलवेज़ से, लोग जब चाहेंगे हमारी दौड़ती भागती अर्थ cयवस्था को ट्रेन में धमाके करके ‘डी-रेल’ कर देंगे॰॰॰॰रिपोर्ट में लिक्खा है भाई – इंगलिस रिपोर्ट!


प्रेस: मगर नेता जी, इस बार के दंगे तो किसी और ही कारण से शुरू हुये थे। इसमें ट्रेन का तो कोई॰॰॰॰॰

श्री चौपट राजा: ॰॰॰॰ लेना देना है। रिपोर्ट में लिखा है कि दंगे तो सिर्फ बहाना था, दरअसल लोग ट्रेन फूंकना चाहते थे और फिर देखिये अंतत: ट्रेन को फूंका भी गया॰॰॰तो देखिये हर दंगे में एक चीज़ कामन है और वह है ट्रेन। सारे फसादों की जड़ ट्रेन – कुछ दिन पहले एक पुल भी ट्रेन पर ढह गया – यह ईश्वर की ओर से दी गयी चेतावनी है एक इशारा है कि ट्रेन से वह भी नाखुश हैं॰॰॰॰

प्रेस: ज्ञानी चौपट राजा की जय! ‘लाइसेंस टु किक’ की जय!!

श्री चौपट राजा: सांती॰॰॰सांती, यह तो मूल कारण था, इसलिये हमारी सरकार ने यह फैसला किया है कि राष्ट्र हित में और भविष्य में दंगे बंद करने के लिये रेलवे को ही बंद कर दिया जाये, ना रहियै सुसुरा बांस ना बजिहै सुसुरी बांसुरी!

प्रेस: मगर नेता जी, हमारे पास रेलेवे का जो इतना बड़ा नेटवर्क है – इनफ़्रास्ट्रक्चर है उसका क्या होगा?

प्रेस: और रेल मंत्रालय का क्या होगा?

श्री चौपट राजा: इन सब विसयों पर हमने पार्टी के आला कामान से बात कर ली है॰॰॰

प्रेस: प्रधानमंत्री जी से बात क्यों नहीं करी?

श्री चौपट राजा: अब उनसे बात करके कौनो फायदा होने वाला है कि उअनसे बात करें, अरे वह भी तो वही करिहैं जो आला कमान की इच्छा होइहै।

रेलवे मंत्रालय का नाम बदल कर ‘ऐंगर मैनेजमेंट मिनिस्ट्री’ रखा जायेगा। यह मंत्रालय देस के क्रुद्ध लोगों को अपना गुस्सा ठंडा करने की मदद करेगी। इसी में हम अपना रेलवे का इनफ़्रास्ट्रक्चर भी इस्तेमाल करेंगे। कम गुस्सा है तो आप रेलवे के डिब्बे में जाकर बल्ब वगैरह फोड़ लीजिये, अधिक नारजगी है तो सीसा-कांच तोड लीजिये और अगर बहुत अधिक और सामुदायिक गुस्सा है तो पूरी की पूरी बोगी फूंक डालिये।

प्रेस: रेलवे के इम्प्लाइज़ का क्या होगा?

श्री चौपट राजा: उनको हम वैसे ही नौकरी पर रखेगे, दंगे फसाद बिना खून बहाये अधूरे रहते हैं, इसके लिये हम रेलवे के इंप्लाइज़ का इस्तेमाल करेंगे।

प्रेस: मंत्री जी वो बेचारे मर जायेंगे तो उनके बीबी-बच्चों का क्या होगा?

श्री चौपट राजा: यह कैसा फालतू टाइप का सवाल है, लगता है आपको रेलवे की परंपरा नहीं मालुम, पिता की मृत्यु के पश्चात पुत्र को उसकी संती नौकरी दे दिया जाता है॰॰॰

प्रेस: मतलब बाप तो मरा बेटा भी मरे॰॰॰

श्री चौपट राजा: देस के लिये इतना भी नहीं कर सकते॰॰॰॰?

प्रेस: और गरीब आदमी सफर कैसे करेगा?

श्री चौपट राजा: सब लोग हवाई जहाज से सफर करेंगे, ‘ढक्कन एयर’ एक-एक रुपये में टिकट बेंच रही है, इतना सस्ता तो रेलेवे भी नहीं बेंच पाती है। और रेलवे की तरह उनकी उड़ाने भी आठ-दस घंटा देर से आती हैं, हवाई जहाज में लड़की लोग चिल्ला-चिल्ला कर समोसा, चाय, बिस्कुट बेंचती हैं – एबरी बडी विल फील ऐट होम।

प्रेस: मंत्री जी, यह सब तो ठीक है लेकिन एक बात तो रिपोर्ट में लिखी ही नहीं गयी है॰॰॰॰

श्री चौपट राजा: ऊ का?

प्रेस: यह कि दंगे भड़काने, ट्रेने जलाने, खून बहाने वाले लोग आखिर हैं कौन?

श्री चौपट राजा: हमको तो इसमें विदेसी ताकत का हाथ॰॰॰॰

(श्री बांगड़ू अचानक हरकत में आते हैं और हड़बड़ा कर मंत्री जी के कान में फुसफुसाते हैं)

श्री बांगड़ू: (मंत्री जी के कान में) अरे मंत्री जी आप यह क्या अनाप शनाप बोल रहे हैं, कुछ सोच समझ कर बोलिये, ‘हाथ’ तो हमारा चिह्न है, हमारी ‘ताकत’ कौन है यह भी आप जानते हैं – ताकत का ‘विदेसी’ होना भी आप जानते हैं – कहीं ऐसा ना हो आला कमान भी ऐसा ही कुछ अर्थ निकाल बैठें। आज तो आप कैबिनेट मंत्री हैं कल से सड़क के किनारे बैठ कर लकड़ी के कैबिनेट बेंचते नजर आयेंगे॰॰॰॰॰’ज़ेड’ क्लास सेक्योरिटी कवर भी छिन जायेगा।

श्री चौपट राजा: (सकपका कर गला साफ़ करते हुये) तो हम कह रहे थे कि हमको तो इसमें विदेसी ताकत का हाथ नहीं लगता है, बलकी हमें तो इसमें कौनो का ही हाथ नहीं लगता है॰॰॰ हाथ का तो सवालै नहीं है।

प्रेस: तो फिर॰॰॰?

श्री चौपट राजा: रिपोर्ट में लिखा है कि इसमें पूंजीवादियों की चाल हो सकती है – ‘चाल’ कह रहा हूं ‘हाथ’ नहीं कह रहा हूं – जरा ध्यान से लिखियेगा। इसके लिये फिर से ‘लाइसेंस टु किक’ का मदद लिया जायेगा, रिपोर्ट आते ही आपको तुरंत बताएंगे।

प्रेस: पूंजीवादी॰॰॰॰? जरा विस्तार में बताइये!

श्री चौपट राजा: अभी हम कुछ नहीं बता सकते (मुंह में ही बड़बड़ाते है – बिला वजह कुछ मुंह से निकल गया तो सुसुरी लाल बत्ती की गाडी भी जइहै) रिपोर्ट आते ही फुल डीटेल बतलाऊंगा – अब चलता हूं।

मंत्री जी हड़बड़ा कर संवाददाता सम्मेलन से निकल लेते हैं।

शुक्रवार, नवंबर 10, 2006

"El Ningun Fumar"

कल दोपहर को एक फोन आया। फोन पर जो नंबर दिख रहा था वह था तो सिंगापुर का लेकिन अपरिचित सा। सोचा ना जाने किसका फोन होगा, सकुचाते हुये फोन लिया, " हलो…!?"

"क्यों बे पहचाना?"

" अरे तुमको कौन भूल सकता है भाई!", मेरे पुराने मित्र रोहित जिनके साथ मैं 1991 में 'जग पालक' नाम के जहाज पर Sail किया था। पुराने दिनों की बातें छिड़ीं, कुछ इधर की कुछ उधर की फिर मैं ने रोहित को शाम को Dinner का न्योता दिया।

"नहीं यार खाने वाने पर आना मुश्किल है। हम यहां बस bunkering (re-fueling) के लिये रुके हैं और 4 - 5 घंटे में sail out कर जाएगे। हम तो बस anchorage से ही सिंगापुर की skyline निहार कर चलते हो लेंगे।"

इस छोटी सी वार्तालाप के खत्म होते ही एक पुरानी बात याद आ गयी। 1991 में 'जग पालक' पर हम दोनो साथ थे। 'Aviation Gasoline' load करने के लिये हमारा जहाज़ 'फ़्रांस' के 'लवेरा' बंदरगाह गया। उस समय हम Second Officer और रोहित Cadet हुआ करते थे। हम दोनो जहाज पर 'रात के राजा' के नाम से पुकारे जाते थे, और वो इसलिये क्योंकि पोर्ट में हम दोनों के duty hours हुआ करते थे 18:00 hours to 06:00 hours, यानि कि शाम के 6 बजे से सुबह के 6 बजे तक हम cargo watch पर रहते थे, मतलब सारी रात जगे रहते थे - इसलिये 'रात के राजा'।

अब क्योंकि रात भर जागते थे तो दिन भर की छुट्टी रहती थी, तो दिन में हम लोग घुमैय्या करने shore leave पर निकल जाया करते थे।

लवेरा में हमारा जहाज सुबह 10 बजे berth हुआ। मतलब यह कि मैं और रोहित शाम के 6 बजे तक यानि कि पूरे 8 घंटे मुक्त! सोचा कि चलो भैया घुम्मी घुम्मी कर आयें। नहा धो कर, सेंट वेंट लगा कर हम दो छड़े निकल पड़े।

Gangway से उतर कर कुछ दूर चले थे कि रोहित ने बड़े दार्श्निक अंदाज़ में पूछा, "अबे इस जगह का नाम क्या है?"

"लवेरा"

"लवेरा तो पूरे पोर्ट का नाम है, इस जेट्टी का क्या नाम है?"

"क्यों?"

"इसलिये कि लौटते समय 'कैबी' से क्या कहोगे कि भैया 'यहां' जाना है!"

"हां यार, सही कह रहे हो…लेकिन मुझे मालुम नहीं है। देख, कहीं आस पास कोई साइन बोर्ड लगा होगा - जिस पर यहां का नाम लिखा हो…।"

हम दोनों ने गिद्धों की तरह इधर उधर नज़रें घुमायीं।

रोहित की आंखें शायद ज़्यादा तेज़ रही होगी, फट्ट से बोले, " अबे वो देख सामने बोर्ड लगा है, गेट के पास।"

मैं ने बटुए से एक पुरानी मुड़ी तुडी रसीद निकाली और पेन लेकर बोर्ड की ओर बढ़ लिये। पास पंहुचे तो मैं थोड़ा झुंझला भी गया," अबे ये केवल फ़्रेन्च में ही क्यों लिखते हैं, इंगलिश में भी लिखना चाहिये ना!"

"की फ़रक पैंदा यार, स्क्रिप्ट तो रोमन ही है ना! तू लिख मैं स्पेलिंग बोलता हूं।"

रोहित की बताई स्पेलिंग मैं ने ध्यान से लिख ली, जगह का नाम कुछ इस प्रकार का उभर कर आया “EL NINGUN FUMAR”.

“बड़ा अजीब नाम है!” मैं ने प्रतिक्रिया करी।

“हमें क्या करना, इनका देश है जो चाहे नाम रखें…वैसे भी फारेन में तो मुझे हर चीज अजीब लगती है। स्याले अपना देश इतना साफ़ कैसे रख लेते हैं, यह भी अजीब लगता है…।“ बिना मतलब की इस टिप्पणी पर हम दोनो हें हें करके खूब हंसे!

खैर गेट के बाहर से एक कैब पकड़ कर शहर गये, घूमे-फिरे, फ़्रेन्च काफ़ी पी, वाइन वगैरह चखी, घर फोन किया बातें करी और फिर रोज मर्रा की चीज़ें खरीद कर वापस जहाज़ पर आने की सोची।

सड़क के किनारे एक कैब को फ़्लैग किया, उसने गाड़ी रोकी और खिड़की से मुण्डी बाहर निकालते हुये कहा, “ काला अक्षर भैंस बराबर।“ (मतलब कि भगवान जाने उसने फ़्रेंच में क्या कहा हमारे लिये तो वह काला अक्षर भैंस बराबर ही था।)

“लवेरा पोर्ट्।“

“काला अक्षर भैंस बराबर।“

“ल वे ए रा आ पो ओ ओ र त”, हमने धी ई ई ई ई ई रे - धी ई ई ई ई ई रे अपनी बात कही।

“काला अक्षर भैंस बराबर।“

तभी रोहित को पर्ची का ख़्याल आया, “ अबे इसे पर्ची दिखा, समझ जाएगा।“

मैं ने झट पट जेब से पर्ची निकाली और कैबी हो दिखाई। उसने ध्यान से पर्ची देखी फिर बड़े ही विस्मित भाव से हमारी ओर देखते हुये कहा, “काला अक्षर भैंस बराबर।“ और हंसते हुये वहां से गाड़ी ले कर फुर्र हो गया।

हमें बड़ी गुस्सा आई। Anyway, हमने फ़ैसला किया कि हम कैब स्टैंड से जाकर कैब लेते हैं। वहां पहुंचे तो 6 -7 कैब्स खड़ी थीं।

हम पहले वाले के पास गये और बिना टाइम वेस्ट किये हुये उसको पर्ची थमा दी और उंगली से पर्ची की ओर इशारा करते हुये कहा, “ Go here.”

“काला अक्षर भैंस बराबर।“

“Yes, yes go here…go here…”

“काला अक्षर भैंस बराबर।“ बड़बड़ा कर वह ज़ोर ज़ोर से हंसने लगा। हमें थोड़ा गुस्सा आया, थोड़ी झुंझलाहट हुयी और काफ़ी शर्म सी भी आयी। खैर उसको छोड़ कर हम अगले कैबी के पास गये लेकिन वहां भी ऐसा ही कुछ हुआ।

रोहित के लिये यह अब असहनीय होता जा रहा था, अगले कैबी तक पहुंचते हुये बोला “अबे पर्ची फेंक मैं बोल कर ही समझाता हूं।“

अगले कैबी के पास आकर रोहित बोला, “लवेरा पोर्ट!”

“काला अक्षर भैंस बराबर।“

रोहित ने तमाम Sailors की सबसे लोकप्रिय भाषा यानी सांकेतिक भाषा का प्रयोग करने की सोची और फिर मुंह पर हाथ लगा कर जहाज़ के भोंपू की आवाज़ निकाली, “ भों ओ ओ ओ …।“

“काला अक्षर भैंस बराबर।“ कैबी बोला।

रोहित डटा रहा और अपनी ‘डम्ब शेराड’ की योग्यता का अविरत परिचय देता रहा, इस बार उसने अपने हाथ पंखों की तरह दायें बायें उठा कर इधर से उधर झूमने लगा बिलकुल वैसे ही जैसे खराब मौसम में जहाज़ Rolling करता है। और साथ में बोलता भी गया, “ Ship…..Loading…..Petrol…..Boat…..Port……Big Ship…… Foreign….. Come in……Go out…….Sea……Seaman……Seafarer……” उसका यह तरीका मुझे बड़ा रोचक लगा और सोचा कि मैं भी इसमें कुछ योगदान करूं।

तो उधर रोहित संकटमोचन को याद करके हनुमान चालिसा बांच रहे थे इधर मैं भी हाथ उठा कर Rolling करते हुये सुंदर काण्ड का पाठ करने लगा, “ Tanks….Tanker….Oil Tanker….. Ship Tanker….. Port….. Quay….. Jetty….. Berth…. Harbour…..”

भगवान जाने इतने सारे शब्दों में से उसे कौन सा समझ में आया अचानक वह बोला, “Ok Ok….” और हमें कैब में बैठने का इशारा किया। हमारी सांस में सांस आयी और इसके पहले कि वह अपना दिमाग बदलता हम लप्प से कैब में घुस गये।

कैब चल तो पड़ी लेकिन लगता था कि कैबी को हमारी बात पूरी तरह से समझ में नहीं आई थी। वो भी काफ़ी देर तक इधर उधर भटकते रहे। हम दोनों भी अपनी अपनी खिड़कियों से look out रखे हुये थे कि शायद कोई जाना पहचाना landmark दिख जाये। तभी दूर हमें अपने जहाज़ की Funnel (जिससे धुंआ निकलता है – चिमिनी) दिखी, हम दोनों ने लगभग कूदते हुये एक साथ बोला, “There…there….our ship.”

इस तरह रो पीट कर हम जैसे तैसे ‘अपने घर’ पंहुचे।
बाद में पता चला कि बोर्ड से हमने अपनी पर्ची पर जो "El Ningun Fumar" टीपा था वह दरअसल उस जगह का नाम नहीं था बल्कि वह एक चेतावनी लिखी थी जिसका अर्थ होता है "धूम्रपान निषेध"। लौट के बुद्धू घर को आये।

हर नाविक का अपने जहाज़ से एक अजीब सा नाता होता है। मालूम तो होता है कि कुछ ही महीनों में इस जहाज़ से विदा लेकर ‘घर’ वापस जाना है। लेकिन कुछ दिन या कुछ महीने जो उस जहाज़ पर बिताता है, वो उसकी ज़िंदगी का हिस्सा बन कर हमेशा उसके साथ जीते रहते हैं। कभी भी जब उन जहाज़ो की फोटो देखता हूं, जिन पर कभी काम किया था तो मुंह से यही निकलता है, “My Ship!”.

मेरे आफिस की खिड़की से सिंगापुर हार्बर दिखता है, लंगर गिराये खड़े हुये जहाज़ भी दिखते है। और उन जहाज़ों के डेक्स पर एक अलग किस्म की ज़िंदगी सांस लेती हुयी दिखायी देती है।

शहर की तेज़ी से भागती, नोंच खसोट करती, दूसरे को धक्का देती हुयी, कुचलती हुयी, प्रदूषण से भरी ज़िंदगी से दूर एक ऐसी ज़िंदगी जहां 9 से 5 नहीं है, हवा में प्रदूषण नहीं है, गले में टाई नहीं है, सेमिनार नहीं है, Cocktails & Curtains down नहीं है…

शोर है तो बस समुद्र की लहरों का, रात है तो इतनी अंधेरी की सारे तारे बिलकुल साफ़ नज़र आते हैं, सुबह का सूरज रोज़ सुबह समुद्र से नहाते हुये निकलता है, धुंये और गर्द का कंबल ओढ़े हुये नहीं। और इन सबके बीच में क्षितिज के उस पार अपनी मंजिल की ओर बढ़ता एक जहाज़ है, एक नाविक है जो बिना रास्तों के महासागर में भी अपने रास्ते बनाता हुआ मंज़िल पाने का हौसला रखता है, तूफ़ानों से लुका छिपी खेलता है - एक ऐसा गुमनाम इंसान जिसके पैरों के निशान तक हम पानी में नहीं ढ़ूंढ पाते हैं…। लेकिन फिर भी उसके दिल में उमंग है और होठों पर है यह गीत,

We’re on the road
We’re on the road to anywhere

With never a heartache
With never a care

Got no homes
Got no friends

And thankful for anything
The Good Lord sends
EOSP @ 17:30 hrs on 10-Nov-2006.

बुधवार, नवंबर 08, 2006

संघर्ष हमारा नारा है


सारी उम्र हमने अपनी ‘रचनायें’ तमाम पत्र – पत्रिकाओं में छपवाने की मंशा से भेजीं लेकिन हर बार यह पर्ची हाथ लगी – “संपादक के अभिवादन परंतु खेद सहित”। हमारे पास इन पर्चियों का एक बेहतरीन कलेक्शन हो गया। भारत का कोई ऐसा पत्र या पत्रिका नहीं थी जिसने हमें यह पर्ची ना भेजी हो। कुछ ही वर्षों में हम इतने नामी गिरामी हो गये कि तमाम संपादक गण तो हमारा हस्त लेख भी पहचानने लगे और फिर लिफाफा खोलने की भी ज़हमत नहीं करते थे, इधर हमारी डाक पंहुची और उधर उन्होंने अगली ही डाक से हमारी ‘रचना’ बिना पढ़े और हमारा लिफाफा बिना खोले सट्ट से हमें वापस भेजा।

यहां हम फाटक पकड़े खड़े हैं कि डाकिया बाबू आकर कोई शुभ समाचार देंगे उधर डाकिया बाबू आकर हमारी ही चिठ्ठी हमें धरा गये। यकीन मानिये बहुत फील हो जाता था। हमारे अंदर भवनाओं का सागर लहरा रहा था और हम एक से बढ कर एक रोमांटिक कविता लिख रहे थे और ये ससुरे संपादक थे कि छापते ही नहीं थे। इससे पहले कि मैं अपनी cयथा-कथा आगे बढ़ाऊं आप खुद ही मेरी एक अद्वितीय कविता का आनंद लीजिये, और खुद की देखिये कि हम भी कैसे श्रेष्ठ कवि हैं;

प्रिये मैं तुमको प्रेम करता हूं
प्रिये मैं तेरी सांसो में रहता हूं
प्रिये स्वप्न में तेरे दर्शन कर लिये
तुझे आलिंगन में भर चुंबन लिये

तेरे बच्चे जियें
बडे हो कर तेरा खून पियें।

(ऊप्स! यह अंतिम दो पंक्तियां गलती से यहां आ गयी हैं, इनका इस कविता से कोई लेना देना नहीं है। यह पंक्तियां उन मरदूद संपादकों के लिये लिखी गयी थीं जो मेरी विश्वस्तरीय रचनाओं को छापने से इंकार करते रहते थे।)

तो क्या कहना है आपका? श्रंगार रस की चासनी में डूबी मेरी यह रचना है ना दिल को छू लेने वाली! वैसे यह मेरी श्रेष्ठतम रचना है, बाकी की रचनायें भी एक-एक करके अपने ब्लाग पर डालूंगा ताकि आप लोग भी खूब ‘इन्जाय’ कर सकें।

जब मेरी सुंदर रचनायें नहीं छपीं तो मुझे लगा कि ज़रूर कोई गड़बड़ है, मैं ने कार्य सिद्ध करने का एक पारम्परिक तरीका अपनाया। एक प्रतिष्ठित पत्रिका के संपादक को मैं ने cयक्तिगत पत्र लिख कर कहा कि ‘माननीय महोदय, यदि आप मेरी रचना अपनी पत्रिका में छापते हैं तो मुझे जो भी पारिश्रमिक मिलेगा उसका आधा मैं आपको भेंट चढ़ा दूंगा।‘ फिर भी जब कोई जवाब नहीं आया तो मैं ने आफ़र और बढ़ाते हुये कहा कि भैया पूरा ही पारिश्रमिक धर लो लेकिन कम से कम मेरी रचना तो छापो। ऐसा बद्तमीज़ संपादक था कि छापना तो दूर उसने हमारे पत्र का जवाब तक नहीं दिया। बताइये कर्टसी नाम की कोई चीज ही नहीं रही। नामाकूल!

हमें इससे थोड़ी पीड़ा तो ज़रूर हुयी लेकिन हमने हिम्मत नहीं हारी। देखिये, हम पक्के हिन्दुस्तानी हैं और अपने देश की परंपरा से पूरी तरह वाकिफ़ भी हैं। बुरा मत मानियेगा, लेकिन हमारे देश में प्रतिभा का आंकलन करने वालों की बहुत भयंकर कमी है। सही कह रहा हूं कि नहीं? टैलेन्ट की कोई कद्र ही नहीं है। साहिर साहब भी कह गये हैं ‘ये बस्ती है मुर्दा परस्तों की बस्ती’। हम भी साहिर साहब की बातों से सहमत हो गये।

हमने किस्मत को भी बहुत कोंसा। यही अगर हम अमरीका में पैदा हुये होते, तो किसी फेमस बैंण्ड के लिये गीत लिख रहे होते। अगर किसी हार्ड राक बैंण्ड में शामिल गये होते तो काम और भी आसान हो जाता, गाना – वाना तो लिखना नहीं होता है बस पंद्रह बीस चुनिंदा गालियां लिखते और बन जाते गीत कार। पूर्वजन्म के पापों का फल है कि ‘यहां’ पैदा हो गये जहां कोई भी हमारी प्रतिभा को नहीं पहचानता है।

आप भी हमारी हिम्मत की दाद दीजिये हम हताश नहीं हुये। ‘नर हो ना निराश करो मन को’ का नारा लगाते हुये मुन्ना भाई की तरह लगे रहे। अपनी लेखनी की स्याही को कभी सूखने नहीं दिया – घसा-घस कागज पर घिसते रहे भका-भक एक के बाद एक बेहतरीन से बेहतरीन कवितायें लिखते रहे। कविता रस तो मुहासों से भी तेजी से फूट रहा था और हम भी जमे रहे, एक ही दिन में कभी बीस तो कभी पचास कविता लिख देते। मैक्सिमम रिकार्ड है एक ही दिन में 67 कविता लिखने का। हमें मालुम था कि जब हम आपको यह बताएंगे तो आप सभी ज्ञानी आत्मायें दाँतों तले उंगली दबा कर भौंचक्के रह जायेंगे। अब, आप लोग शर्मिंदा मत होइये हमारे जैसा ‘गिफ़्टेड’ इंसान हर एक नहीं हो सकता है ना! अपने अंदर हीन भावना मत आने दीजिये। प्लीज़ हाँ!

ज़माने ने भले ही हमें हज़ार ठोकरें मारी हों, लेकिन हमारे मित्रों ने कभी भी हमें हताश नहीं होने दिया। शाम को हम सब मित्र लल्लन की चाय की दुकान पर मिलते थे और वहीं मैं अपनी दिन भर की रचनायें अपने मित्रों को बांचता । सब बड़ा ध्यान लगा कर सुनते और मेरी कल्पनाओं की दाद देते। अरे, लल्लन तक हमारा कायल हो गया, हमारी कविता सुन कर हमें मुफ़्त में ही चाय देने लगा। आपने वह गज़ल तो सुनी होगी,

“तेरे जहान में ऐसा नहीं के प्यार ना हो
जहां उम्मीद हो इसकी वहां नहीं मिलता”

हमारे साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा था, लल्लनवा तक हमारी कविता समझता और तारीफ़ करता और वो मुये संपादक हमारी कद्र ना कर सहे। ससुरे जरूर घूस दे कर या राजनीतिक दबाव डलवा कर संपादक बने होंगे। अरे यहीं तो धोखा खा गया इंडिया! खुदा मेहरबान तो गधा पहलवान – जुगाड़ी लोग ऊंचे आसन पर और हम जैसे प्रतिभावान पैरों तले।

इन्हीं बैठकों में मैने एक कविता सुनाई थी जो मेरे मित्रों को (और लल्लन को भी) बहुत पसंद आई थी। आगे चलने से पहले आप भी सुन लीजिये, अरे प्लीज कह रहा हूं सुनिये ना;

प्रिये…
तेरी जुल्फों में सुबह करूं शाम करूं
हसरतों को तेरे इश्क का ग़ुलाम करूं
लोग पत्थर का ताज दिया करते हैं
मैं तो ज़िंदगी ही तेरे नाम करूं

अरे पूछिये मत! शेर सुनते ही लोग बावले हो उठे – सबने बारी बारी हमें गले लगाया, राजिन्दर ने तुरंत बेनी लाल हलवाई की दुकान से पाव भर इमरती मंगवा कर सबका मुंह मीठा करवाया और लल्लन ने अपने गल्ले से सवा रुपया निकाल कर हमारे हाथ पर रखा और अंगौछे से अपनी डबडबाती आखों को पोछते हुये कहा, “ ई हमरी ओर से सगुन रख ल्यो, एक दिन बहुतै बड़े कवि बनिहौ, सूरदास अउर तुलसीदास कै माफिक।“

वैसे तो लल्लन भैया की बात बुरी लगी, अरे कहां हम और कहां ये मामूली पुराने जमाने के कवि कोई कम्पारिज़न है भला;

वैसे तो लिखते थे कविता तुलसी-सूर व काली दास
जब हमने थामी हाथ कलम, वो लगे छीलने घास

खैर इन्ही बैठकों में एक दिन हमारे मित्र राजू ने हमसे कहा, “ गुरू बिना इश्क लड़ाये और बिना दिल पर चोट खाये इतनी धांसू कविता लिख लेते हो, अगर तुमको इश्क हो जाये या दिल पर चोट लगे तो यार तुम्हारी कविता की दाल में हींग और लहसुन का छौंका लग जायेगा। गुरू इश्क लड़ा लो!”

राजू की बात में दम तो था, लेकिन इश्क की फील्ड में हमने अभी तक बैटिंग करी नहीं थी सो हम सकपका गये। उसी से पूछ लिया, “ यार मन तो बहुत है, लेकिन कोई राह नहीं सूझ रही है, तुम ही कोई राह बताओ…।“

“ओम्में कौन सी बड़ी बात है, कल सुबह साढ़े आठ बजे तैयार रहना, हम ले चलेंगे तुमको…”

राजू इतना क्विक इंतजाम कर दिये तो हमें बहुत शक हुआ और हमने साफ़ साफ़ कह दिया, “देखो भाई राजू, हमको कोई ऐसा-वैसा मत समझो! हम दिल पर चोट खाने के लिये कोई जोहरा बाई या चंद्रमुखी के कोठे पर नहीं जायेंगे, हमें लूज करक्टर आदमी मत समझिये आप - हाँ नहीं तो!”

“अरे काहे परेशान हो रहे हो यार, हमें मालूम है आपके चरित्र के विषय में – आपको चंद्रमुखी नहीं पारो से ही मिलवायेंगे, फिर आगे आपकी मर्ज़ी।“

इश्क करने और दिल तुड़वाने का ऐसा एक्साइटमेंट हुआ कि रात भर सो ना सके, सुबह छ: बजे बिस्तर से उठे स्नान किया, सर में बढ़िया खुश्बूदार ‘केयो कार्पिन’ का तेल मला (वैसे आम तौर पर हम सरसों का तेल लगाते हैं पर खास मौकों पर यह मंहगा वाला तेल लगाते हैं) बढ़िया से बाल सेट किये, साफ़ सफ़ेद पतलून पहनी और छींट वाली रेशमी बैगनी शर्ट पहन कर राजू का वेट करने लगे।

राजू ठीक समय पर आ गये और बाहर से ही कलेजा फाड़ फाड़ कर बुलाने लगे। हमने धप्प से साइकिल निकाली, आंख पर गागल (धूप का चश्मा) पहना और चल पडे राजू के साथ। रास्ते में राजू ने बताया कि हम “जी जी आई सी” यानि गारमेन्ट (कुछ लोग गवर्नमेन्ट या सरकारी भी कहते हैं) गर्ल्स इंटर कालेज, जा रहे हैं।“

वहां पहुंच हमने साइकिल स्टैंड पर चढ़ाई और आती जाती बालिकाओं को निहारने लगे, सोचते हुये कि इनमें से वह कौन सी भाग्यशाली बालिका होगी जो इस कवि की प्रेरणा बनेगी। नज़र घुमा कर देखा तो केवल हम और राजू ही नहीं थे लगता था शहर के सारे युवक वहां अपनी अपनी प्रेरणा की लालसा में वहां आये हुये थे।

कई दिनों तक हम स्कूल लगने और छूटने के समय बिना-नागा गारमेंट कालेज के सामने हाजिरी लगाते रहे, हमें तो हर लड़की से इश्क हो गया पर दूसरी ओर से किसी लड़की का कोई सकारात्मक रिस्पांस नहीं आया। फिर एक दिन दो बालिकाओं ने हमारी ओर देखा और फिर आपस में कुछ कह कर खिलखिलाने लगीं।

राजू ने भी देखा, भाग कर पास आकर बोला,” गुरू मुबारक हो, मेहनत रंग लायी्। वो लम्बी वाली तुम्हें देख कर हंसी – और जो हंसी वो फंसी। आखिर तुमने लड़की फंसा ही ली।“

बड़ी गुस्सा आई, मैं ने डांटते हुये कहा, “ कैसे सस्ते शब्दों और ओछी भावनाओं का प्रदर्शन कर रहे हो!! फंसी नहीं मेरे भाई, उसे मुझसे प्रेम हो गया है – पवित्र, पावन प्रेम – इश्क।“

उस रात मेरे भीतर कविता का रस ऐसा फूटा कि लगा कि इसके प्रवाह में पूरी सृष्टि कहीं बह ना जाये, आप भी सुन लीजिये, अरे प्लीज कह रहा हूं सुनिये ना;

प्रिये……
ऐ प्रिये……
तेरी किलकारियां दिल में समा गयी
मुझ वाइज़ को काफ़िर बना गयी
रात दिन इबादत किया मैं करता था
इश्क की मय मुझे पिला गयी

अगले दिन हमने हिम्मत करी और लम्बी वाली लड़की के पास जाकर बोल दिये, “एसकूज मी, आई लव यू!” बोलने की देर भर थी कि एक झन्नाटे दार थप्पड़ सीधा मेरे गाल पर – तड़ाक! और फिर ये शब्द, “ अबे मजनू के भतीजे, पापा से कह कर दोनो हाथ कटवा दूंगी ना खाने लायक रहोगे ना धोने लायक – बड़े आये हैं लव यू।“ लम्बी वाली लड़की पलट कर चल भी दी और हम वहीं खड़े के खड़े रह गये गाल पर हाथ धरे हुये। बड़ी ज़िल्लत हुयी बीच सड़क पर तमाचा खा गये। कनखिया के इधर-उधर देखा तो राजू भाई नीम के पेड़ के पीछे दुबक कर छिपे हुये थे। बाकी के आशिक , जो मेरी तरह दैनिक हाजिरी लगाने वहां आया करते थे, अपनी साइकिल पर भका-भक पैडल मारते हुये भागे जा रहे थे।

“यार बड़ी बद्तमीज़ लडकी है!” राजू पेड़ के पीछे से आते हुये बोले।

“नहीं राजू मुझे कोई ग़म नहीं है! देखो मैं ने एक ही दिन में इश्क भी कर लिया, दिल पर चोट भी खा ली और बेवफ़ाई भी देख ली! अब देखो कविता में तड़के का असर!”

उस रात मैन ने यह कविता लिखी आप भी सुन लीजिये, अरे फिर से प्लीज कह रहा हूं भाई सुनिये ना;

ओ वेवफ़ा
शीशा हो या दिल हो टूट जाता है
अच्छा सिला दिया तूने मेरे प्यार का
पत्थर के सनम जा तुझे माफ़ किया

कैसी लगी? है ना कविता में गहराई!

इन सब के साथ साथ मेरा “संपादक के अभिवादन परंतु खेद सहित” वाली पर्चियां इकट्ठा करने वाली दिनचर्या पहले ही तरह ही चल रही थी। मन में एक विचार आया सोचा क्यों ना अपने इस कलेक्शन से ही ख्याति प्राप्त करी जाये। लप-झप करके तुरंत “लिमका बुक” और “गीनिज़ बुक” को अपनी नायाब उपलब्धि के बारे में बताया, उन्होंने अपने प्रतिनिधि भेजे। हमारे कलेक्शन की गिनती हुई और फिर वो भी ये थमा कर चलते बने “अभिवादन परंतु खेद सहित” जाते जाते कह गये, “ आप तो टाप 100 में भी नहीं आते – बिना वजह हमारा समय खराब किया।“

ज़माने से हमारी जंग और हमारा संघर्ष ऐसे ही चल रहा था कि एक दिन राजू देव रूप धर हमारे सामने प्रकट हुये,” गुरू ये संपादकों को मारो गोली, अपनी कविता खुद क्यों नहीं छाप देते।“

“खुद!? कैसे भैया?”

“ब्लाग पर”

“मतलब?”

“मतलब अपना ब्लाग बनाओ, तुम ही लेखक, तुम ही संपादक और तुम ही प्रकाशक। इंटरनेट पर सारी दुनिया पढ़ेगी – विदेशों में भी लोग पढ़ सकेंगे।“

“विदेशी भी हिन्दी पढ़ते हैं?”

“विदेशी नहीं, अपने देशी जो वहां जाकर बस गये हैं ना, वो पढ़ते हैं। अब क्या करें बेचारे विदेश में उनको बहुत आइडेन्टिटी क्राइसिस हो जाती है तो काले-गोरों के देश में भूरे देशी अपनी पहचान बनाये रखने के लिये बहुत कुछ करते रहते हैं, हिन्दी पढ़ते-लिखते हैं, कुर्ता धोती पहनते हैं, विदेश में ‘थम्स अप’ और ‘किसान टोमाटो सास’ ढूंढते हैं…। भारत माता के प्रति उनका प्रेम और बढ़ जाता है। जब यहां रहते थे तो ‘फारेन – फारेन’ गाते थे और अब वहां पर दिन रात देश का नाम लेकर रोते रहते हैं – मेरा गांव मेरा देश। बेचारे ना घर के रहे ना घाट के।“

“यार ये ब्लाग तो बढ़िया चीज़ बता दिये हो, नेक काम में देर नहीं करनी चाहिये, मैं तुरंत बिस्मिल्ला करता हूं।“

इस प्रकार हम संपादकों के क्रूर हाथों से निकल कर आत्मनिर्भर होने की ठान ली जिससे मैं अपनी अभूतपूर्व प्रतिभा से अद्वितीय हिन्दी साहित्य का सृजन कर हिन्दी भाषा पर उपकार कर सकूं।

मैं जानता हूं इस कवि की संघर्ष गाथा सुन कर आपके हृदय द्रवित हो उठे होंगे तथा आपकी आंखे छलक गयी होगी। पर हर महान और क्रांतिकारी व्यक्ति का जीवन ऐसा ही होता है संघर्ष और चुनौतियों से भरा हुआ। मेरे महान व्यक्तित्व और उपलब्धियों से प्रेरित हो कर आप अपना निराशा भरा जीवन संवार सकें इसलिये मैं शीघ्र ही प्रेरणापूर्ण इस लेख की अगली कड़ी ले कर फिर आऊंगा।

तब तक, संघर्ष करो!

शुक्रवार, नवंबर 03, 2006

भगवान के संदेशवाहक

करीब हफ़्ता - दस दिन पहले की बात है, खाना-वाना खा कर हम बैठे बच्चों से बतिया रहे थे कि अचानक मोबाइल फोन से “टु टु टु टू टू टु टु टु टु” की परिचित आवाज़ आई। “पापा का SMS आया,” कह कर बेटाजी गये और हमारा फोन उठा लाये, आते आते बेटाजी ने इनबाक्स में जा कर संदेश खोल भी दिया और आकर फोन मुझे थमा दिया। मोबाइल देख कर हम तो कांप गये यह लिखा था,

Ignore mat karma
nahi to 1-2 saal tak
unlucky ho jaoge “
sabka malik ek”
8 logon ko
bhejo, ek achi
khabar milegee rat
tak.Its real..

पहली लाइन पढ़ कर भयावह दृश्य सामने घूम गया कि हम मुम्बई की लोकल ट्रेन में, गले में हारमोनियम टांगे “दिल के अरमां आंसुओं में बह गयेएएए…” वाला गाना गा गा कर कटोरा लिये घूम रहे हैं।

थोड़ा अच्छा भी लगा कि चलो भाई विदेश में आ कर हम अपनी ‘अच्छी वाली’ संस्कृति, ‘अच्छे वाले’ संस्कार और भाषा भले ही भूल रहे हों अपने अंधविश्वास पर अभी भी पूरी तरह कायम हैं। गुस्सा भी आया कि भेजा किसने? देखा तो और कोई नहीं हमारे एक परम हितैषी, भारतीय मित्र राजू जी, हमारे लिये संकटमोचन का वेश धरे बैठे थे।

यह गनीमत थी कि बीबीजी आस पास नहीं थीं, नहीं तो यह संदेश पढ़ कर लकड़ी की अनुपस्थिति में, घर का सारा फ़र्नीचर फूंक कर तुरंत हवन-पूजा शुरू कर देतीं और नारियल की अनुपस्थिति में मेरी मुण्डी ही फोड़ी जाती। हमने धीरे से फोन जेब में चेंपा और बच्चों से कहा कि जाओ भाई बहुत रात हो गयी है – सो जाओ! फिर रसोई में झांक कर देखा बीबीजी अभी भी काक्रोच मारक स्प्रे लिये cयस्त हैं।

हम पतली गली पकड़ कर बालकनी में गये और राजू का फोन घनघना दिये, अब पता नहीं कि साहब सोने की तैयारी कर रहे थे या हमारा फोन नहीं उठाना चाहते थे…काफ़ी देर घंटी बजने के बाद साहब ने फोने उठाया और मुर्दही आवाज़ में बोले,” हां भाई अनुराग, क्या हाल चाल हैं?”

“अबे, हाल चाल गया तेल लेने को ये क्या SMS भेजा है?”
थोड़ा खिसिया के बोले,” अरे यार वो……बस ऐसे ही……मुझे आया था तो तुमको भी भेज दिया।“

“बड़ा मिल बांट कर चलने वाली आदतें डाल रहे हो, हम तो भैया कायल हो गये तुम्हारे! कल अगर भगवान मेरे लिये गिफ़्ट रैप करवा कर कैंसर रोग लायेंगे तो हम भी उनसे कह देंगे – आधा राजू भाई को भी दे दो……”

“अरे शुभ शुभ बोलो यार, मुंह में सरस्वती का वास होता है, भगवान ना करे……“

“क्या हुआ? किसके कैंसर से कांप गये – मेरे या तुम्हारे…। रात बिरात ये टेंशनिया मैसेज भेजे हो इसका क्या करूं…?”

“करना क्या गुरू, आठ लोगों को बढ़ा दो।“

“भैया हम तो आठ देसियों को यहां जानते भी नहीं परदेस में, जिनको जानता हूं वो क्लाइंट्स हैं। अगर उनको यह भेजा तब तो तुरंत ही दुर्दिन शुरू हो जायेंगे।“

राजू भाई को यह बात बहुत ‘फन्नी’ लगी, हा…हा…करके हंसते हुये बोले,” प्राबलम है तब तो…किसी को भी नहीं जानते?”

“मेरे ज्यादातर मित्र तो लोकल हैं चाइनीज़, उनको भेजूंगा तो आठ के आठों रात भर फोन करके इसका मतलब पूछेंगे, सारी रात जगना पड़ेगा।“

यह बात राजू को और भी जोर से गुदगुदा गयी, पूरा फेफड़ा फाड़ कर हंसे। पैदा होने से लेकर आज तक जितनी कार्बन डाई आक्साइड उनके फेफड़ों में जमी थी, इस हंसी से पक्का निकल गयी होगी। हांफ हांफ कर बोले,” यार तुम बड़े ‘जोकी नेचर’ के हो…” और अमरीश पुरी की तरह हो हो करते हुये, बिना कोई राह सुझाये फोन भी धर दिये।

हमने फिर SMS पढ़ा “ek achi khabar milegee rat tak” हमने सोचा कि रात तो हो ही चुकी है मतलब कि अच्छी खबर आने की डेड लाइन तो एक्सपायर हो चुकी है, तो काहे को बिना वजह आठ लोगों की नींद हराम करूं और साथ में आठ SMS का खर्चा अलग। खर्चे वाली बात हमारी खोपड़ी में जल्दी घुसी और हमने लप्प से वह SMS delete कर दिया।

रात भर हम भगवान जी के बारे में सोचते रहे। इस घोर कलयुग में उनको भी ‘आइडेन्टिटी क्राइसिस’ हो गयी है।

पहले स्वर्ग का प्रलोभन और नर्क का भय दिखा कर अपनी सत्ता चला ले जाते थे लेकिन अब आज के बंदे हैं कि मरणोपरांत स्वर्ग जाना ही नहीं चाहते “यार स्वर्ग में अकेले बोर हो जायेंगे, यार दोस्त तो सारे नर्क में रहेंगे ना – मुझे तो उनके साथ ही रहना है, और फिर अर्जुन सिंह की कम्बल परेड भी तो करनी है।”.

यदा कदा लोग अपना अधूरा काम पूरा होने की कामना करते हुये मंदिर की चौखट पर घूम फिर आया करते थे, अब उसकी भी जरूरत नहीं, घूस घास दे कर काम ऐसे ही बन जाते हैं और अगर ना बने, तो किसी ‘भाई’ की शरण में जाकर बंदे को टपकवा सकते हैं – मंदिर की तुलना में ‘भाई’ का दरबार ज्यादा इफ़ेक्टिव है! मंदिर में तो फिर भी शंका रह जाती है कि पता नहीं भगवान जी सुनिहैं कि ना सुनिहैं लेकिन ‘भाई’ के दरबार में यदि आपने उचित प्रसाद चढ़ा दिया है - तो जजमान, काम अवश्य पूरा होगा।

और सोचा कि नाते रिश्तेदार, माता-पिता की तबियत खराब होने पर लोग बाग मंदिर जाते थे, उनकी सलामती की दुआ करने। कुछ लोग गाना वाना भी गाते थे, “मेरी विनती सुने तो जानूं, मानूं तुम्हें मैं राम, राम नहीं तो कर दूंगा सारे जग में तुम्हें बदनाम………।“ अब तो भैया इसका भी टेंशन लेने की जरूरत नहीं, इधर बाऊ जी ने गैस की वजह से भी अगर सीने में दर्द बताया, तो बेटवा तुरंत हार्ट अटैक का वरदान समझ कर बाऊ जी को बिना टाइम वेस्ट किये जमीन पर लिटा कर, सिरहाने एक दिया जला कर, मुंह में तुलसी की दो पत्तियां ठूंस चार पांच बूंद गंगा जल टपका कर बाहर जाकर तेरही का मेन्यू बनाना शुरू कर देता है।

बेचारे भगवान जी टेंशनिया गये होंगे, टी आर पी लगातार गिर रही है, कोई उन पर टिप्प्णी भी नहीं करता। अपनी सत्ता बचाने के लिये अब भगवान जी को भी नये नये हथकण्डे अपनाने पड़ते हैं। मुझे तो लगता है किसी ऐडवर्टाइज़िंग कम्पनी को हायर कर लिये हैं जो उनके अस्तित्व की पुनर्स्थापना हेतु ऐसे SMS भेजती है, हो ना हो यह भगवान जी के ही संदेशवाहक हैं। भगवान जी की दयनीय स्थिति के बारे में सोचते सोचते आंख लग गयी।

सुबह उठ कर कम्प्यूटर आन किया, मेल चेक करी। मेरे एक परम मित्र की ई-चिठ्ठी आयी थी उसमें एक परी की ‘फोटू’ बनी थी और कुछ ज्ञान की बातें लिखी थीं कुछ इस प्रकार से,

This is the image of Money Fairy, the fairy of wealth. Forward this message to at least 10 persons within 20 minutes of reading it and you’ll receive huge amount of money within four days.

Do not delete or ignore it else you’ll beg. Believe me – IT IS TRUE!

मित्र का चेहरा आंखों के सामने घूम गया। उसके विशाल हृदय में मेरे लिये कितना प्रेम है। मेरी कितनी चिंता है उसे और देखो मुझे धनाड्य बनाने के लिये कितना सरल सा रास्ता भी खोज लाया है। आगे आने वाले खतरों से कैसे सावधान कर रहा है ‘else you’ll beg’. मुम्बई की लोकल ट्रेन, गले में हारमोनियम, “दिल के अरमां आंसुओं में बह गयेएएए…” वाला गाना फिर सामने घूम गये।

ऐसा अतुल्य प्रेम देख कर मेरा छोटा सा हृदय द्रवित हो उठा और आंखें छलक उठीं। मैं ने दिल खोल कर अपने मित्र को खूब दुआयें दीं।

अब SMS Delete कर के भगवान जी से पंगा तो ले ही चुके थे सो ई–पत्र भी Delete कर दिया, सोचा अगर भगवान जी ज्यादा डिस्टर्ब हुये तो प्रायश्चित करके क्षमा मांग लूंगा।

मेल चेक करने के बाद सोचा कि अपने ब्लाग की टी आर पी चेक करी जाये। ब्राउज़र पर अपने ब्लाग का पता डाला तो खुला कुछ और। कई बार कोशिश करी हर बार कोई नयी साइट खुल जाये। सारे एन्टी वायरस – एन्टी स्पाई वेयर चला डाले पर संगणक जी टस से मस ना हुये। धीरे धीरे करके उनके ऊपर हुआ हमला और भी गंभीर होता गया। अब तो घुसपैठिये ने हमें डेस्कटाप तक ही सीमित कर दिया। शाम तक हम भी हिम्मत हार बैठे।

एक जगह ले जाकर चेक भी करवाया, साहब ने कम्प्यूटर में इतने सारे रोग और इतने लम्बे खर्चे बताये कि मैं ने सोचा नया पी सी खरीदना ही बेहतर होगा। इस बात से मुझे लगा कि हो ना हो भगवान जी ने नाखुश हो कर मुझे दण्ड देने की सोच ही ली है और धीरे धीरे मुझ पर वार करना भी शुरू कर दिये हैं। रात को हम भविष्य के विषय में सोचते हुये “दिल के अरमां आंसुओं में बह गयेएएए…” वाले गाने की प्रैक्टिस भी करने लगे।

फिर यह सोचा कि मंदिर जा कर भगवान जी से क्षमा मांग लेते हैं – कहा सुना माफ़, वो कहेंगे तो प्रायश्चित भी कर लेंगे। बीबीजी से कहा,” मैं कल देर से आऊंगा, सोच रहा हूं कि मंदिर हो आऊं!”

“किस देवी के दर्शन को जा रहे हो? विदेश में रहते हुये तुम्हारी नज़रें भी बदलती जा रही हैं। मुझे तो पहले से ही कुछ शक था, क्या बात है मुझे बताओ…आखिर वो कलमुही है कौन?!”

मैं ने सिर पीट लिया कान पकड़ कर बोला,” कहीं नहीं जाऊंगा मैया, मेरी तौबा जो फिर मंदिर का नाम भी लिया।“

भगवान जी के दर्शन के लिये झूठ का सहारा लिया। अगले दिन आफिस से बीबीजी को फोन किया, “ शाम को कुछ क्लाइंट्स आ रहे हैं, आने में देर हो जाएगी।“ बीबीजी ने प्यार से कहा,” कोई बात नहीं, मेहनत से काम करो, बोनस अच्छा मिलेगा तो हम नया प्लाज़मा टी वी खरीदेंगे।“

आफिस की घंटी बजते ही हमने सीधा मंदिर में हाजिरी लगा दी। पूरा मंदिर सून-सान, पंडित जी भी गायब थे, पता चला धंधा मंदा हो जाने के कारण पंडित जी ने इंडिया वापस जाकर कानपुर में पान मसाला बनाने की फ़ैक्ट्री लगा ली है।

मंदिर के प्रांगण में घुसते ही आवाज़ आई,” आओ अनुराग, कैसे आना हुआ?”

हमने खोपड़ी घुमा कर इधर उधर देखा, कोई नज़र नहीं आया, फिर से आवाज़ आयी,” घबराओ नहीं मैं हूं, भगवान!”

हमने लपक कर मूर्ति के पीछे झांक कर देखा कि ‘शोले’ इश्टाइल में कहीं कोई हमें बेवकूफ़ तो नहीं बना रहा है – वहां भी कोई नहीं था। हम तो स्तब्ध से वहीं खड़े रह गये। फिर आकाशवाणी हुयी,”क्यों विश्वास नहीं हो रहा है क्या!”

“पूरा विश्वास हो रहा है प्रभू, यदि मुन्ना भाई को गाँधी जी दिख सकते हैं, तो मुझ पापी को भी आप की वाणी सुनायी दे सकती है!” कहते हुये हम आष्टांग आसन लगा कर लेट गये।

“कैसे आना हुआ वत्स?”

“प्रभु! क्षमा याचना हेतु आया हूं। आपका एस एम एस और ई-पत्र आगे ना सरका कर आपकी आज्ञा की अवहेलना करी है प्रभु। बडी भूल हुयी इस अज्ञानी से, क्षमा प्रभु, क्षमा।“

“मैं ने तुम्हें कोई संदेश या पत्र नहीं भेजा वत्स!”

“आपके संदेशवाहकों ने भेजा होगा, on your behalf”

“अच्छा वो, जिसमें तुमको भिक्षुक बनने की और दुर्भाग्य प्राप्त होने की चेतावनी दी गयी थी!”

“जी प्रभु, वही वाले……”

प्रभु हंसे,” वत्स, मैं ईश्वर हूं। यह सृष्टि मेरी बनायी हुयी है। यह मेरी रचना है। इसके हर कण में मेरा वास है। मेरा मार्ग प्रेम का मार्ग है – भय, दु:ख या पीड़ा का नहीं। मुझे अपने अस्तित्व का खतरा नहीं है, क्योंकि जब तक आशा, प्रेम, दया, त्याग और ईमानदारी के भाव एक भी cयक्ति के हृदय में बाकी हैं – मेरा अस्तित्व सुरक्षित है।“

“तो प्रभु वह संदेश, क्या वह आपके संदेशवाहक ने नहीं भेजा था?”

“नहीं, वत्स! मेरा सच्चा संदेशवाहक केवल प्रेम का संदेश फैलाता है – भय का नहीं। भय का संदेश फैलाने वालों से थोड़ा सजग रहो, ये मेरे नहीं अपने अंदर बैठे हुये दानव का संदेश फैला रहे हैं ताकि तुम पथ भ्रष्ट हो कर प्रेम का और ईश्वर का शाश्वत मार्ग छोड़ दानव के पीछे भागते रहो। आम तौर पर यह दानव अपने मुख पर मेरा मुखौटा लगाये रहते हैं। मेरी ओट में खड़े होकर दानव वृत्ति का प्रचार करते हैं। इनसे बचो – प्रेम के मार्ग पर चलो।

“थैंक यू, प्रभु!” मैं कह कर मंदिर से निकल रहा था कि अचानक याद आया, ”प्रभु, मेरा लैपटाप तो ठीक हो जायेगा ना?”

“इस विषय में मेरा ज्ञान बहुत सीमित है, बेहतर होगा नया ही ले लो।“

परसों हमने नया पीसी खरीद ही डाला और रात भर जाग कर यह चिठ्ठा भी लिखा। हार्ड डिस्क क्रैश हो जाने से काफ़ी जानकारी से हाथ भी धोना पड़ा। मगर खुशी यह है कि भगवान जी ने मेरे मन से टेंशन वैसे ही दूर कर दिया जैसे पाकिस्तान से प्रजातंत्र दूर हो गया है।

चलते – चलते:

यह चिठ्ठा भगवान जी का प्रेम संदेश है :
पढ़ने के बाद इस पर टिप्प्णी करें तथा इसकी कड़ी कम से कम पांच लोगों को प्रेक्षित करें। अन्यथा:

क) यदि आप चिठ्ठाकार हैं तो;

1) आपके चिठ्ठे पर कोई टिप्पणी नहीं करेगा
2) आपकी टी आर पी नेताओं के चरित्र की तरह गिर जाएगी
3) आपका चिठ्ठा ‘चिठ्ठाचर्चा’ और ‘नारद’ से सदा नदारद रहेगा

ख) यदि आप चिठ्ठाकार नहीं हैं तो;

1) आप इंटरनेट पर किस प्रकार की साइट्स पर विचरण करते हैं इसका कच्चा चिठ्ठा आपकी बीबीजी को मिल जायेगा
2) बीबीजी को पता चल जाएगा कि आपकी कमीज़ पर जो लाल रंग का दाग है वह दरअसल टोमाटो साँस का नहीं वरन् किसी और चीज़ का है
3) घर तक यह बात पंहुच जाएगी कि आफिस के बाद किस ‘स्पेशल क्लाइंट’ के साथ आपकी मीटिंग्ज़ चलती रहती हैं।

हरि इच्छा!

सोमवार, अक्तूबर 09, 2006

होत चीकने पात


रविवार की अलसाई दोपहर में मै कुछ देर ऊंघने का प्रयास कर ही रहा था, कि मेरे दस वर्षीय सुपुत्र ने आकर झंझोंक कर जगा डाला, ”पापा, आप अपने ब्लाग पर मेरी एक कविता डाल सकते हैं?”

अपने देश के संस्कार या भाषा अपनी अगली पीढ़ी को ना दे पाने की ग्लानि इस प्रसन्नता के नीचे दबा दी कि चलो भाई लेखन ना सही, कम से कम यह ब्लगोड़ापन तो अगली पीढ़ी को सौंप पाये!

चिहक कर बोले,” सुनाओ बेटा, ज़रूर छापेंगे।“

गला खखारते हुये साहबज़ादे शुरू,

“उसकी आंखों में आंसू
आंसू में पानी
पानी में खो गये हम
हो गये सुनामी

दस सेकंड में डूबा तेरा दिल
तेरा दिल…”

गीत सुना कर वह प्रश्नवाचक दृश्टि से मुझे देखते हुये मेरी प्रतिक्रिया का इंतज़ार करने लगा। बीबीजी बड़े गर्व से, मुस्की मारते हुये अपने सपूत पर निहाल हुये जा रही थीं।

हमने एक प्रभावशाली भारतीय पिता की तरह अपनी हतोत्साहिक भौंक निकाली,”यह क्या बकवास है! ऊट पटांग कवितायें बनाते हो? कुछ शर्म-ओ-हया है कि सब बेंच खाये हो?” बेचारा बेआबरू हो कर हमारे कूचे से निकल ही रहा था कि हमने अपनी ए के 47 फिर दागी,” तुमने लिखी है?”

“नहीं, मेरे स्कूल में एक लड़के ने सुनाई है।“

“तुमने नहीं लिखी?”, मेरी गर्जना तेज़ हुई।

“ “

“तो तुमने यह क्यों कहा कि ‘मेरी’ कविता छाप दीजिये?”, ये डायलाग तो इतनी ऊंची 'पिच' में था कि अगर हिन्दी फ़िल्मों में होता तो बैक ग्राउंड में बिजली कड़कने की आवाज़ जरूर डाली जाती।

“मैं ने थोड़े चेंजेस किये हैं, एक वर्ड चेन्ज किया है, तो फिर मेरी ही हो गयी ना।“

सुनते ही, मेरी तो बाछें खिल गयीं, सीना फूल कर 48 इंच का हो गया, बेटे का सुनहरा भविष्य साफ़ दिखाई देने लगा। लपक कर उसे सीने से लगा लिया, सर पर हाथ फिराते हुये उसे आशिर्वाद दिया,” जियो बेटे, एक दिन तुम खानदान और देश का नाम बहुत ऊंचा करोगे!! शाबास।“ < नासिर हुसैन इश्टाइल>

फिर बीबीजी से मुखातिब हो कर बोला,” देखा! आखिर बेटा किसका है!!” <बैकग्राउड़ में गाना 'वो तो है अलबेला, हज़ारों में अकेला, सदा तुमने ऐब देखा हुनर को ना देखा'>

बीबीजी अचरज में, “ अजीब इंसान हो तुम! जब वह कह रहा था कि मैं ने लिखी है तो भौंक रहे थे, अब जब वह कह रहा है कि टोपो मारी है तो आशिर्वाद दे रहे हो?”

दार्शनिक अंदाज़ में मैं ने कहा,” भविष्य में देख सकने की दिव्य शक्ति सबके पास नहीं होती, मैं जो देख रहा हूं वह तुम नहीं देख पा रही हो।“

“साफ़ साफ़ बताओ!”

“इसके लक्षणों से साफ़ ज़ाहिर है कि एक दिन यह हिंदी फ़िल्म की दुनिया में अपना कीर्ति पताका लहरायेगा।“

“?”

“अभी से यह दूसरे की रचनाओं को थोड़ा फेर बदल करके अपना बता रहा है, सोचो आगे चल कर हाँलीवुड की फ़िल्मों में थोड़ा बहुत फेर बदल करके कितनी धाँसू धाँसू फ़िल्में बनाएगा “टैक्सी नम्बर 9211”, “एक अजनबी” और ना जाने कितनी, सब की सब सुपर हिट और क्रिटिकली अक्लेम्ड।“

“हां, ये तो सही कह रहे हो, बेटा टैलेन्टेड तो है।“ बीबीजी ने उसके सर पर हाथ फिराते हुये गर्व से निरुपा राय की तरह कहा।

“और अगर फ़िल्में चुराने का मन ना करे तो टाँप संगीत कार बनने का एक और रास्ता है – दिन भर इसको एम टी वी दिखाया करो। आगे चल कर उन्हीं धुनों पर ढ़ोलक और तबला पीट कर एक अच्छी सी इंस्पायर्ड और पूर्णतया भारतीय या फ़्यूज़न या कन्फ़्यूज़न धुनें तैयार कर सकता है।“

“तो फिर बेचारा कन्नू मलिक क्या करेगा?”

“अरे, वो ट्रैफ़िक लाइट पर खड़ा हो कर हमारी गाड़ी के शीशे पर झाड़न मरेगा, और क्या! हम तो इसको ऐसा महान टोपो मास्टर बनायेंगे कि कन्नू मलिक जैसे 50 – 60 मिल कर भी इतनी धांसू इंस्पिरेशन (नकल) ना ले पायें।“

“ख़्याल तो बहुत बढ़िया है!”

“हां, और इस क्षेत्र में विकल्प भी बहुतेरे हैं, अगर संगीतकार भी ना बनना चाहे तो री-मिक्स एलबम बना सकता है। बेचारे पंचम दा ने सारी जिंदगी पसीना बहा बहा कर कर्ण प्रिय संगीत इसी लिये तो बनाया था कि हमारी दिवालिया पीढ़ी उनका कलात्मक बलात्कार करके हमको परोसती रहे और स्वयं री-मिक्स किंग की उपाधि से अलंकृत हो कर नोट खसोटती रहे।“

बीबीजी की आंखे खुल गयीं, बेटे से बोलीं,” ये मैथ्स की बुक अलमारी में वापस धरो, चलो – एम टी वी देखो - और हाँ आज से नो कार्टून नेटवर्क एण्ड नो डिज़्नी चैनल - ओनली एम टी वी!“

हम भी बेटे के सैटल हो जाने की खुशी से अपने सारे टेंशन छोड़ कर दोपहर को इत्मिनान से सोये।

शाम को जब आलू-प्याज़ लेने सब्जी मण्डी जा रहे थे, बीबीजी ने पचास डालर का पत्ता हाथ में पकड़ाते हुये कहा,” सारी लेटेस्ट इंगलिश फ़िल्मों की डी वी डी ले आओ। बच्चे के भविष्य के लिये अब हमें संजीदगी से सोचना चाहिये।“

हाथ में सब्जी का झोला टांगे, कल्पना रथ पर सवार हो आंखों में ऐश्वर्या राय से मिलने का सपना सजाये, सब्जी मण्डी की ओर पैर बढ़ाते हुये, बाँलीवुड की सैर पर निकल पड़े।

(घटनायें एवम् पात्र पूर्णतय: काल्पनिक हैं।)

अनुराग श्रीवास्तव
09 अक्टूबर 2006

गुरुवार, अक्तूबर 05, 2006

ब्लगोड़े की समस्या


चिठ्ठा जगत में प्रवेश करने के बाद, कल मैं ने चिठ्ठा जगत के नारद मुनि को अपने श्रद्धा सुमन अर्पित किये और उनका आशिर्वाद लिया। मेरी भक्ति से प्रसन्न हो कर नारद मुनि “नारायण नारायण” करते हुए कल मेरे चिठ्ठे पर आये और फिर अपनी वीणा उठाये सारे अन्तरजाल पर जा कर मेरे चिठ्ठे का ठिंठोरा पीट आये।

शाम होते होते, मेरे चिठ्ठे पर पाठकों का तांता लग गया। वहां लगे अतिथि सूचकांक पर सोये हुये अंक अचानक ऐसे बढ़ने लगे कि उसे देख कर भारत की बढ़ती जनसंख्या भी लज्जित हो जाये।

पाठकों की बढ़ती संख्या देख – मन बड़ा पुलकित हुआ। बड़ी ख़ुशी हुई कि हमारी भी रेटिंग्स बढ़ रही हैं। दिन भर हम अपना पन्ना खोले, बढ़ते हुये अंको को निहारते रहे। शाम होते होते कुल 70 लोगों ने हमारी बकवास पढ़ी। अच्छा लगा कि दुनिया में मेरे जैसे कम से कम 70 निठल्ले तो और हैं, जो काम धाम छोड़ कर मेरी बकवास पढ़ने का समय निकालते हैं।

फिर थोड़ी निराशा भी हुई कि एकता कपूर की बकवास तो करोड़ों लोग देखते हैं और मेरी बकवास सिर्फ़ 70 लोगों ने पढ़ी! भविष्य में हिन्दी ब्लागिया जगत की एकता कपूर बनने का विचार अंगड़ाई लेने लगा।

सोचा अगर मैं अपने पन्ने का नाम ‘चौपाल’ से बदल कर ‘कौपाल’ और अपने ब्लाग का नाम ‘पगड़ंडी’ से बदल कर ‘कगड़ंडी’ रख दूँ तो कदाचित भविष्य में मैं भी अपना मानसिक कचरा बेचने में सफल रहूँगा। एक अंक शास्त्री से मिलने का विचार भी मन में आया जो यह राय दे सके कि ‘कौपाल’ को ‘कौआ पाल’ और ‘कगड़ंडी’ को ‘काम मंडी’ लिखने से सफलता की संभावनायें और भी बढ़ सकती हैं।

इन योजनाओं पर शीघ्रता से उसी तरह अमल किया जाएगा जैसे सरकारी बैंकों में ‘त्वरित ड्राफ़्ट सेवा’ का काउंटर काम करता है।

इस बीच किसी हितैषी ने मेरी बीबी को फोन घुमा डाला,” अरे, तुमको पता चला! अनुराग ब्लगोड़ा हो गया है। ‘पगड़ंडी’ पर जा कर देखो।“

बीबी ने लाँग आँन किया और मेरी बकवास पढ़ी। बेचारी चक्कर खाकर गिरते गिरते बची।

शाम को घर में घुसते ही बीबीजी ठंडे पानी का गिलास लेकर तुरंत आ पहुंची, मानो कि बस मेरा ही इंतज़ार हो रहा हो। मैं उनके यह ‘केयरिंग’ तेवर देख कर थोड़ा घबरा गया और उनके माथे पर हाथ रख कर उनकी तबियत चेक करने वाला था कि उन्होंने वाक वाण बरसाने शुरू किये;

“आँफ़िस में मन तो लग रहा है ना?”

“हाँ”

“बाँस से कोई कहा सुनी तो नहीं हुई?”

“नहीं तो।“

“मुझसे ख़ुश तो हो ना?”

अब ये तो गुगली निकली। मैं ने तुरंत बैक फ़ुट पर जा कर सुरक्षात्मक पोजीशन ली।

“हाँ हाँ बिलकुल! ऐसे क्यों पूछ रही हो?”

“आँफ़िस में कोई नई सेक्रेटरी आई है क्या?”

ये तो बाउन्सर थी, सर पर हेलमेट भी चढ़ा लिया।

“नहीं!”

“तो क्या और कोई है?”

“मतलब?”

“मतलब कि मुझसे उकता गये हो क्या? कहीं कोई दूसरा चक्कर तो नहीं चल रहा है?”

अब ये कैसी बाँल थी? मन में तो आया कि बल्ला उठा कर मैदान से सटक लूं, पर 50 ओवर हुये नहीं थे इसलिये मन मार कर क्रीज़ में खड़े रहना पड़ा।

“कैसी बातें कर रही हो? तुमको छोड़ कर और किसी को देखा भी नहीं कभी।“

उनको थोड़ी ढ़ाढ़स हुई। भर्राए गले से पूछीं,

“तो फ़िर ब्लगोड़े क्यों बन बैठे हो? देखो, यह सब क्या ऊल जलूल लिखते रहते हो? अपनी चिता फूंक रहा हूँ, गिरगिट मार रहा हूँ, माँ का अचार सड़ रहा है! क्या है यह सब?”

उनके कहने का अंदाज़ कुछ ऐसा था कि मानो ब्लगोड़ी ‘अल कायदा’ के सदस्य होते हों।

“यह तो विचारों की अभिव्यक्ति है।“

थोड़ी देर तक मुझे दया भाव से देखती रहीं, फिर बोलीं, ”दीपावली पर इंडिया चलते हैं।“

“आंयें, अचानक…!”

“हाँ, थोड़ी आब-ओ-हवा बदल जयेगी और तुम टंडन अंकल से भी मिल लेना।“

“टंडन अंकल……?”

“पापा के दोस्त हैं। कुछ दिन पहले ‘नूर मंज़िल’ ज्वाइन किया है!”

“नूर मंज़िल (लखनऊ के मानसिक चिकित्सालय का नाम)!? तुमको लगता है कि मैं ठनक गया हूँ?”

उन्हें लगा होगा कि ठनके को ठनका कहने से मामला और बिगड़ सकता है, इसलिये मामला संभालती हुई बोलीं,” ऐसा मैं ने कब कहा? और भी कोई वजह हो सकती है। जैसे, तुमने यकायक सिगरेट पीना भी छोड़ दिया है - उसके विथड्राल सिम्टम्स भी हो सकते हैं। दिन में एक आधी सिगरेट फूंक लिया करो दिमाग फ़्रेश रहेगा और डिप्रेशन भी ना होगा। अच्छा अभी तुम खाना-वाना खा कर सो जाओ बाद में बात करेंगे।“

अस्थायी रूप से समस्या कुछ देर के लिये तो टल गयी, लेकिन मेरे निकम्मे और ब्लगोड़े हो जाने की शर्मिंदगी बीबीजी को जल्द ही पुन: विचलित करेगी।
आज सुबह एक और चमत्कार - आफिस के लिये निकल रहा था कि बीबीजी आयीं और मुझे "मार्लबोरो लाइट्स" का एक पैकेट पकड़ाते हुए बोलीं,"लो, फ़िर से शुरू कर दो, फ़्रेश रहोगे - और यह लत ब्लागिंग की लत से कम नुकसान देह है!"

अनुराग श्रीवास्तव 05 अक्टूबर 2006

बुधवार, अक्तूबर 04, 2006

माँल की सैर

गाड़ी पार्किंग में ठूंस कर हम माँल देखने चल पड़े।

मुख्य प्रवेश द्वार पर, जेबें और झोले टटोल टटोल कर सभी श्रद्धालुओं की तलाशी ली जा रही थी। पास ही एक सूचना पट पर बड़े बड़े अक्षरों में लिखा था “परिसर के अन्दर पान या पान मसाला ले जाना तथा उसका सेवन करना दण्डनीय है। पकड़े जाने पर पाँच सौ रुपये जुर्माना” मुझे बड़ा गुस्सा आया, यह तो हमरे शहर की परम्परा के पूर्णतया विरुद्ध है। हमारे शहर में तो कहा जाता है;

“कुल का दिया पूत है
महफ़िल का दिया गान
आँखों का दिया सुरमा
मुँह का दिया पान।“

पाश्चात्य सभ्यता का अंधा अनुकरण करने वाले ‘इन’ जैसे भारतीयों के कारण ही हमारी महान एवम विश्व विख्यात भारतीय संस्कृति और सभ्यता का अस्तित्व आज संकट में है। मैंने ठान ली कि जब मेरा नम्बर आएगा तो मैं इन्हें कस के झाड़ूँगा, देखता हूं कैसे रोकते हैं मुझे! लेकिन कतार में खड़े खड़े मैंने देखा तमाम गाली गलौज और झगड़ा करने के बावजूद लोगों के पान मसाले के पाऊच जब्त कर लिये जा रहे थे।

अब तो मेरे गुस्से ने घबराहट का रूप लेना शुरू कर दिया। आने से पहले मैं ने पूरे पाँच रुपये खर्चा करके गुटखा के चार पाऊच खरीदे थे, अगर जब्त हो जाते तो पाँच रुपये का भयंकर नुकसान हो जाता। नुकसान की सोच, मेरा दिल जोर जोर से धक धक करने लगा (हलाँकि मेरी धक-धक काफ़ी तेज़ थी लेकिन माधुरी दीक्षित की धक-धक के आस पास बिलकुल नहीं थी) मैं ने आव देखा ना ताव, झट-पट चारों पाऊच खोले सर ऊँचा आसमान में उठा कर, पाऊच का सारा मसाला अपने मुँह में खाली कर डाला। मेरा यह अंदाज़ देख श्रीमतिजी से रहा नहीं गया मुस्किया कर बोलीं,” बिलकुल अमीर खान लग रहे थे, सर उठता है तो पान मसाला खाने के लिये।“

हमने मुस्कुराते हुये अपनी जबान से सारा मसाला खिसका खिसका कर अपने बायें गाल के नीचे अडजस्ट कर लिया। इस तरह सुरक्षा गार्ड की आँखों में धूल झोंक कर हम माँल में घुस ही रहे थे कि उनकी नज़र हमारे सूजे हुये बाँये गाल पर पड़ी, उसने चेतावनी भरे लहज़े में कहा,”थूकने पर 500 रुपये फाइन है!”

“ओ के फाइन ऐन्ड थैन्क यू फार टेलिंग।“हमारी अंग्रेजी सुन कर वह समझ गया कि हम शिक्षित लोग हैं और बिना आना कानी करे उसने हमें जाने दिया।

अन्दर घुस कर तो हम अवाक् रह गये! आप तो शायद मानियेगा भी नही यदि मैं आपसे कहूं कि पूरे का पूरा भवन वातानुकूलित था, जी हाँ फुल ए सी। और तो और साफ़ सुथरा था - कूड़े का कोई नाम-ओ-निशान तक नहीं था। ऐसा लगा कि बिना टिकट, पासपोर्ट और वीज़ा के 'फारेन' पँहुच गये हों।

हमने श्रीमतिजी के कानों में फुसफुसा कर कहा," कितने टन का ए सी लगा होगा और सोचो तो बिजली का बिल कितना आता होगा?"

श्रीमतिजी ने ज्ञान वाणी में कहा," आइंदा जब घर में बिजली जाएगी तो यहीं आकर बैठा करेंगे।"

ऊपर नीचे आने-जाने के लिये स्व-चलित सीढ़ियाँ लगी थीं, सुना है अंग्रेजी में उन्हें 'एस्केलेटर' कहते हैं। यह मुफ़्त झूला चढ़ने के लिये लम्बी कतार लगी हुई थी, अब चूंकी हम फैमिली के साथ थे तो हम कतार में ना लग, सीधा सीढ़ी के पास जा पंहुचे। सीढ़ी पर चढ़ने ही वाले थे कि कतार बद्ध हुजूम में से कुछ असभ्य से लोगों ने चिल्ला कर कहा," अरे लाइन में आइये भाई साहब, हम लोग भी आधा घंटे से (लाइन में) लगे हुए हैं।" एक सभ्य व्यक्ति की तरह, उनकी असभ्यता को अनसुना और अनदेखा कर हम सीढ़ी चढ़ने ही वाले थे कि एक सुरक्षा गार्ड ने हमारे आगे डंडा पेलते हुये कहा बड़े रूखे अंदाज़ में कहा," चलिये, लाइन में लगिये!"

“फैमिली के साथ हैं……"

"तो क्या हुआ? लाइन में आइये।"

यकीन मानिये बहुत बुरा लगा। दूसरों का, विशेषतौर पर महिलाओं तथा बच्चों सम्मान करना हमारे देश की संस्कृति का अभिन्न अंग है। हम भारतवासियों ने सदा ही अपनी इस संस्कृति का आदर किया है, परंतु माँल में युवा पीढ़ी द्वारा इसका इस तरह अनादर होता देख कर बड़ी पीड़ा हुई। इस युवा पीढ़ी के हाथों तो देश का भविष्य अंधकारमय ही लगता है।

घिसट घिसट कुछ 20 मिनट बाद हमारा नम्बर आया, लेकिन हमारे आगे खड़े महोदय की अर्धांगनी सीढ़ी के पास पँहुचते ही घोड़ी की तरह बिदक गयीं। चलती सीढ़ियाँ देख ऐसे घबरायीं जैसे कसाई देख बकरा घबराये है, उस पर पैर ही ना रखें। उनके पतिदेव अनाड़ी घुडसवार की तरह उन्हें हाँके पड़े थे, "अरे चढ़ो!"

"पाइरवा फंस जइहे तो!?"

"नहीं फंसिहै, चढ़यो तौ!"

"हमके डर लागत है!"

"कुच्छौ नाहीं होई, चलौ।"

उनकी अखंड रामायण को बीच में ही रोक कर मैं चिल्ला पड़ा,"अरे चलो भाई हम भी 30 मिनट से लाइन में खड़े हैं - हमारा भी नम्बर आने दीजिये, या तो आगे बढ़िये या फिर साइड हटिये।"

मेरी चीख सुन महिला तो, बगल में लगी परम्परागत सीढ़ियों की तरफ़ लपक पड़ीं और रोमांचक प्रवृत्ति के उनके पति शान से स्व-चलित सीढ़ियों पर चढ़ लिये।

हमने भी जीवन में पहली बार आटोमेटिक सीढ़ियों की सवारी करी और पहली बार दिल से यह लगा कि अखबार ठीक लिखते हैं कि भारत विकास के मार्ग पर तेजी से अग्रसर है।

हलाँकि, इस बात को हम थोड़ी देर के लिये भूल गये कि 20 मिनट इंतज़ार करने की जगह हम 2 मिनट में ही ऊपर की मंज़िल पर पँहुच जाते।

माँल में दुकानों का साइज़ भी खासा बड़ा था और ताज्ज़ुब की बात यह थी कि किसी भी दुकान में शटर नहीं लगा हुआ था। मैं सोच में पड़ गया कि ये लोग रात को दुकान बढ़ाते कैसे होंगे, बिना शटर के तो कोई भी रात को दुकान में घुस कर चोरी चकारी कर सकता है।

माँल के अन्दर ज़्यादातर सिले-सिलाये कपड़ों की ही दुकानें थीं। पहली बार मुझे पता चला कि शाहरुख खान, प्रीती ज़िन्टा और तमाम हीरो-हीरोइनों की टी-शर्ट पर जो “गैप”, “ओल्ड नेवी”, “अरमानी” वगैरह लिखा रहता है, वह दर-असल कपड़ा बनाने वाली कम्पनियों के नाम हैं। यह भी पता चला कि “एफ़ सी यू के” भी कपड़ा बनाने वाली कम्पनी का नाम है, मैं तो हमेशा यही समझता था कि यह आज के युवा वर्ग की सड़ी हुई सोच और अंग्रेज़ी भाषा के सीमित ज्ञान का परिणाम है कि वह अंग्रेज़ी भाषा के एक अपशब्द की गलत स्पेलिंग अपनी टी-शर्ट पर लिखे घूमते रहते हैं।

इतनी देर घूमने के बाद हमें थुकास लगी, चार पैकेट गुटखा खाने के बाद थूकना तो ज़रूरी हो ही जाता है, आदतन हमने अपनी गर्दन थोड़ी आगे निकाली होठों को गोल बनाया और पिचकारी छोड़ने ही वाले थे कि श्रीमतिजी ने पीछे खींचते हुये कहा,” अरे क्या कर रहे हो? सठिया गये हो क्या? पाँच सौ रुपये का फाइन है!”

हमारी पान मसाले की पीक को ‘पीक प्रेशर’ पर ऐसे ब्रेक लगा जैसे टेक आँफ़ के लिये भागते जहाज़ को कोई ब्रेक लगा दे। अब जैसे ब्रेक लगाने पर जहाज़ चीं-चीं करता हुआ रनवे से थोड़ा खिसक जाता है वैसे ही रोकते रोकते भी मेरे मुँह से पीक की आठ-दस बूंदे मेरी ठुड्डी पर लुढक गयीं। मौके की नज़ाकत को देखते हुये, मारे घबराहट के मैं ने तुरंत अपनी कमीज़ की आस्तीन से अपना मुँह पोंछ लिया।

मुँह में इतनी पीक भरी थी कि हम चाह कर भी कुछ बोल नहीं पा रहे थे तो हमने इशारों से ही श्रीमतिजी से पूछा कि कहां थूकूँ? एक आदर्श भारतीय नारी की तरह वह तुरंत हमारी पीड़ा समझ गयीं। बच्चों की पानी की बोतल का ढ़क्कन खोलती हुई बोलीं,” लो इसी में थूक दो।“ मैंने एक पतली सी धार बनाते हुये अपने मुँह का सारा टेँशन बोतल में उतार दिया।

आज समझ में आया कि हमारे देश में स्त्री को देवी का दर्जा क्यों दिया गया है, इतिहास साक्षी है कि हर कदम पर इस देश की महिलाओं ने ही अपनी सूझ-बूझ और दूर दर्शिता से हम पुरुषों के मान-सम्मान की रक्षा करी है।

थुकास की बेबसी को मद्देनज़र रखते मैं ने यह फ़ैसला किया कि अब हमें माँल से निकल लेना चाहिये और घोषणा करी कि हम लोग शर्माजी के ठेले पर जा कर भर पेट चाट चापेंगे।

किन्तु विधि को कदाचित कुछ और ही मंज़ूर था। बच्चों ने माँल में मैक डाँनल्ड की दुकान की झलक पा ली थी, बस फैल गये," शर्माजी की चाट कौन खयेगा! हमतो मैक डाँनल्ड के बर्गर खाएगे।" इसके पहले कि मैं अपना रौद्र रूप उन्हें दिखाता, श्रीमतिजी ने उनका साथ देते हुये कहा,"खिला दो ना, बच्चे कहाँ रोज़ रोज़ जिद करते हैं।" प्रजातंत्र है, तीन के आगे मैं अकेला क्या करता - तुरंत घुटने टेक दिये।

सौ रुपये प्रति थाल (मैक डानल्ड में 'थाल' को 'मील' कहते हैं) के दर से हमारे परिवार के चारों सदस्यों ने कुल चार सौ रुपये फूँक कर सैम चाचा के देश का वडा पाव खाया। हाँ, साथ में कोला का शर्बत और आलू की तली हुई फाँके भी थी। चार सौ रुपये में तो शर्माजी अपना पूरा ठेला हमारे मुँह में ठूंस देते और चलते समय एक बीड़ा सौफ़िया पान दे कर सलाम भी करते।

श्रीमतिजी भी अपने फ़ैसले पर बहुत दुखी सी लग रही थी। चलते समय उन्होंने अक्लमंदी का काम किया, बची हुई पेपर नैपकिन लपेट कर अपने पर्स में ठूंस लीं, मौका ताड़ कर मैने भी इधर-उधर देखते हुए टोमाटो साँस के बचे हुए पाउच अपनी जेब के सुपुर्द कर दिये। ऐसे 'खुफ़िया' तरीके से साँस चेंपते हुए मन बड़ा पुलकित हुआ। अचानक ना जाने कहाँ से मेरे कानों में जेम्स बाँड की 'थीम ट्यून' का रोमांचक संगीत गूंजने लगा, हर जगह मात खाये एक आम हिन्दुस्तानी के लिये अचानक कुछ कर गुजरना एक बहुत ही बड़ी उपलब्धि है, मेरा आत्मविश्वास अचानक सातवें आसमान पर था, मेरी चाल में थकान की जगह 'बाँड' की ताज़गी थी ("ब्रुक बाँड" की नहीं "जेम्स बाँड" की), आँखों में 'मिशन कामयाब' होने की चमक थी , एक अह्सास था कि 'हमें लूटने चले थे - उल्टा हमने ही लूट लिया' और एक तसल्ली भी थी कि चलो दो दिनों तक बच्चों के टिफ़िन में रखने के लिये नैपकिन और साँस का जुगाड़ हो गया।

हवा में लहराता, होठों पर कामयाबी की मुस्कान चिपकाये मैं बाहर आया। श्रीमतिजी पहले ही बाहर आ चुकी थीं, मैं बाँड की तरह अपनी इस नायिका की ओर बढ़ा सोचा, जब नज़रें मिलेंगी तो हम एक दूसरे को एक मिशन कामयाब होने की एक 'मिस्टीरियस स्माइल' देंगे और हाथ थाम कर अगले मिशन के लिये आगे बढ़ चलेंगे।

जैसे ही उनके पास पँहुचा, उन्होंने कर्कष धवनि का पत्थर फेंका," अंदर झाड़ू पोंछा करने लगे थे क्या? इतनी देर से बाहर इंतज़ार कर रही हूँ।"

एक ही पल में जेम्स बाँड की 'थीम ट्यून' के रोमांचक संगीत की जगह मेरे कानों में दुखिया सारंगी गूंजने लगी। जेम्स बाँड की अर्धनग्न, मुस्कुराहट बिखेरती, कामुक नायिका के स्थान पर साढ़े पाँच गज की साड़ी लपेटे, आँखों से शोले निकालती, रौद्र रूप धारण कर मेरी श्रीमतिजी विद्यमान थीं। एक ही पल में मैं अति गौर वर्णीय, अंग्रेजी भाषी, अजेय और ब्रिटिश नागरिक जेम्स बाँड के सर्वोपरि स्थान से गिर कर एक काला-कलूटा, हिन्दी भाषी, थका हारा हिन्दुस्तानी बन गया। काँच से बना मेरा स्वप्न महल खनखन करता ढ़ेर हो गया।

सारा मूड आँफ़ हो गया!

मैं ने घूर कर श्रीमतिजी को देखते हुये कहा," हाँ, हाँ ठीक है! चलो घर वापस चलते हैं।" और गाड़ी की ओर चल पड़े।

नगर में माँल

जब भारत वर्ष के समस्त नगरों में ज़मीन के भाव आसमान चूमने लगे, तो भवन निर्माताओं ने अपनी दया दृश्टि हमारे शहर की ओर घुमाई, और इस प्रकार, गत वर्ष हमारे शहर में एक अदद शांपिंग माँल का आगमन हुआ।

भुक्ष नगर वासियों को तो मानो जैसे छप्पन पकवानों से सुसज्जित थाल मिल गया हो, सारे नगरवासी, अपने समस्त परिवार जनों के साथ, ऐसे उमड़े मानो वहां भारत और पाकिस्तान का एक दिवसीय क्रिकेट मैच होने वाला हो, या मानो जगत नारायण स्वयं अवतरित हो गये हों। पूछिये मत, श्रद्धालुओं का तांता लग गया। कोई कार में चढ़ा चला आ रहा है, कोई सायकिल खींचते हुये चला आ रह है - जिसमें पीछे कैरियर पर श्रीमतिजी गोद में एक बच्चा लिये बैठी हैं और आगे डंडे पर एक बच्चा और विराजमान है, कई जोशीले मुस्तंन्ड़े नगर बस की खिड़कियों में लगे सिखचों लटक लटक कर पहुंचे (इसके दो लाभ हैं - एक तो टिकट नहीं खरीदना पड़ता है दूसरे बस के अन्दर पसीने की बदबू का जो भभका रहता है उसे भी नहीं झेलना पड़ता है) और, जिनके पास विलास के इन मंहगे साधनों का व्यय वहन करने की क्षमता नहीं थी, वो श्रद्धालुगण लम्बी लम्बी पेंगे भरते हुये मांल तक की सड़क नापते हुये ही निकल पड़े।

देखते ही देखते छूत की यह बीमारी सारे शहर में फैल गयी। अब इस बीमारी का कोई टीकाकरण तो उपलब्ध था नहीं कि हम खुद को बचा पाते। फिर इस कीटाणु ने हमारे परिवार के सभी सदस्यों के इच्छा द्वार पर दस्तक दे ही डाली। एक दिन खाने के समय श्रीमतिजी ने मेरी मनपसंद आलू की सूखी सब्ज़ी और पनीर परोसी, मुस्कुरा कर पूछीं, "कैसी बनी है?"

"उम्म ! बहुत बढ़िया बनी है", मैने खाने का मजा लेते हुये कहा।

खुशी से उनके आगे के चार दांत झलक पड़े। थोड़ा रुक कर घबराते हुये पूछ बैठीं, "कभी माँल घूमने चलें?"

उनकी घबराहट का कारण यह था कि मेरे जैसा जन्म-जात कंजूस, माँल का नाम सुनते ही, कहीं पागल कुत्तों की तरह उनको दौड़ा कर काट ना खाये। उन्हें क्या पता था कि मैं भी माँल रोग से ग्रसित था, मैनें झट से कह दिया,"कल चलते हैं।"

उनकी सारी बत्तीसी फिर बाहर," थोड़ी पनीर और लीजिये ना ।" शादी के बाद पहली बार श्रीमतिजी ने इतने प्रेम और समर्पण से भोजन परोसा और खिलाया, मैने भी कुछ ज़्यादा ही खा लिया, बाद में बच्चों के लिये खाना कम पड़ गया, ख़ैर माँल दर्शन की आस में उन्हें एक रात भूखे सोना भी मान्य था।

मैं भारत वर्ष के उस कथित उन्नतशील एवम गतिशील मधयम वर्ग का प्राणी हूं, जिनके पास एक चौपहिया वाहन होता है। दो साल पहले मैनें एक 'वैगन आर – एल एक्स आई' खरीदी थी, अब पता नहीं कि उसे किस नाम से पुकारूं, हमारे नगर की सड़कों पर चलने वाले टाटा सुमो और महिन्द्रा मार्शल, जिनको हम "मैक्सी कैब" कहते हैं और, तीन पहियों पर लुढ़कते हुये विक्रमों ने मेरी नयी नवेली का ऐसा चीर हरण किया कि बेचारी बाल्यावस्था से सीधी वृद्धावस्था में ढ़नग पड़ी। ऐसी दुर्गति हो गयी है कि मारुति-सुज़ुकी के विशेषज्ञ भी उसे पहचानने से मुकर जाते हैं। मेरे कुछ अनिभिज्ञ मित्र जो हमारे शहर के यातायात से भली भांति परिचित नहीं हैं कभी कभार पूछ लेते हैं," भैया क्या ' डी सी' (दिलीप छाबरिया) का किट लगवाया है गाड़ी में, बड़ी धांसू लग रही है? " सुन कर, नगर के यातायात संबंधी उनके सामान्य ज्ञान पर तरस आता है, और अपनी गाड़ी की दशा पर रोना।

खैर, अगले दिन श्रीमतिजी ने मुझे चालक की सीट पर धकेला, पीछे की सीट पर अखण्ड रामायण के लाउड स्पीकरों की तरह लगातार बजने वाले दोनों बच्चों को ढ़ूंसा और बड़ी अदा से मेरी बगल वाली सीट पर बैढ़ते हुये बोलीं - चलो चलो, जल्दी चलो। पुरुष धर्म के अनुसार स्त्री आज्ञा निभाते हुए, मैने कार को सड़क पर धकेल दिया।

रास्ता ढ़ूंढ़ने में कोई ज़हमत नहीं करनी पड़ी, मालुम था जिधर सारे लोग जा रहे हैं वही रास्ता माँल को जाता होगा। ढ़ाई किलोमीटर की दूरी को करीब 30 मिनट में पूरा करते हुये, अंतत: हम माँल पहुंच ही गये। अनंत श्रद्धालुओं की ऐसी भीड़ कि अगर कुम्भ का मेला यह नज़ारा देख ले, तो शायद वह भी चुल्लू भर पानी तलाशने लगे। श्रद्धालुओं की आंखों में विस्मय तथा श्रद्धा का भाव देख कर ऐसा प्रतीत होता था, कि माँल- दर्शन के फलस्वरूप वो जीवन म्रित्यु के अनंत चक्र से मुक्त हो यहीं मोक्ष प्राप्त कर लेंगे।

अखण्ड रामायण के लाउड स्पीकरों की तरह लगातार बजने वाले दोनों बच्चों की आवाज़ जब काफ़ी देर तक नहीं सुनायी पड़ी तो मैंने कनखियों से पीछे देखा, दोनों के जबड़े विस्मय से ऐसे लटक रहे थे मनो कि घुटनों को छू लेंगे। टकटकी लगाये माँल के भवन को निहारे जा रहे थे। श्रीमतिजी का भी कुछ ऐसा ही हाल था। और हम अपने भाग्य को कोंस रहे थे, जन-सिंधु के बीच में गाड़ी हांकते हुये, हम जी भर कर माँल को देख भी नहीं पा रहे थे। यकीन मानिये अगर पीछे से आ रहे गाड़ी वाले जोर-जोर से हार्न ना बजा रहे होते, तो मैं सड़क के बीच में ही गाड़ी खड़ी कर पहले जी भर कर माँल को देखता, फिर आगे बढ़ता।

गाड़ी आगे बढ़ाते हुये मैं कनखियों से सड़क के दोनों ओर पार्किंग तलाश करने लगा कि कहां पर गाड़ी घुसेड़ूं, दो चक्कर लगाने के बाद भी जब पार्किंग के लिये स्थान ना मिला तो श्रीमतिजी ने झुंझला कर कटाक्ष किया," बाहर से ही परिक्रमा करते रहोगे या भीतर चल कर साक्षात दर्शन भी करवाओगे?"

मैं भी चिड़चिड़ा कर बोला," पार्किंग तो मिले, या यहीं सड़क पर ही गाड़ी छोड़ दूं !"

"लो पापा को तो मालुम ही नहीं," मेरे गंवारपन का ढ़िंढ़ोरा बच्चों के सामने पीटती हुयी बोली," माँल में ही भूमिगत पर्किंग है, बिलकुल फ़ारेन कन्टरी की तरह, पच्चिस रुपये में पार्किंग मिल जाती है!"

“पच्चिस रुपये!?," मैंने विस्मित होकर कहा,"सारे शहर में तो पांच रुपये में होती है!!" " चक्कर लगा लगा कर पचास रुपये का तेल फूंक दोगे लेकिन पार्किंग के पच्चिस रुपये नहीं दोगे!"

श्रीमतिजी की बात में दम था, अत: मैने गाड़ी माँल की पार्किंग की ओर मोड़ दी, लेकिन प्रवेश द्वार पर पहुच कर पाया कि "पार्किंग फ़ुल" का बड़ा सा तिख़्ता झूल रहा है। बड़ी मुशक्कत के बाद मैने पाया कि थोड़ी दूर पर, सड़क के किनारे, गाड़ियां कतार बद्ध तरीके से खड़ी थी। चाचा चौधरी की तरह मेरे दिमाग में तर्क कौंधा कि हो ना हो यहां नयी पर्किंग शुरू हो गयी है। बस, मैंने निचोड़ते हुये अपनी गाड़ी को यदा कदा वहां घुसेड़ ही दिया।

"पार्किंग वाला कोई दिख नहीं रहा है।," श्रीमतिजी ने प्रशन किया।

"चिंता ना करो, यहीं कहीं होगा, आ जयेगा बाद में। अब समय ना व्यर्थ करो, चलो चलते हैं।"

हमारे शहर का यह 'रिवाज़' है, गाड़ी खड़ी करने के समय आपको टोकन देने के लिये कोई नहीं आएगा, लेकिन जब आप गाड़ी निकालने आएगे तो आपकी गाड़ी में बा कायदा टोकन लगा मिलेगा, जी हां टोकन का वह हिस्सा जो आपके पास होना चाहिये, वह भी गाड़ी में लगा दिया जाता है। और जैसे ही आप गाड़ी निकालेंगे, 13-14 साल का एक लड़का पार्किंग शुल्क के पांच रुपये लेने के लिये, सहसा प्रकट हो जायेगा।

हमने निश्चिंत होकर अपनी गाड़ी खड़ी करी और चल दिये माँल घूमने।