चिठ्ठा जगत में प्रवेश करने के बाद, कल मैं ने चिठ्ठा जगत के नारद मुनि को अपने श्रद्धा सुमन अर्पित किये और उनका आशिर्वाद लिया। मेरी भक्ति से प्रसन्न हो कर नारद मुनि “नारायण नारायण” करते हुए कल मेरे चिठ्ठे पर आये और फिर अपनी वीणा उठाये सारे अन्तरजाल पर जा कर मेरे चिठ्ठे का ठिंठोरा पीट आये।
शाम होते होते, मेरे चिठ्ठे पर पाठकों का तांता लग गया। वहां लगे अतिथि सूचकांक पर सोये हुये अंक अचानक ऐसे बढ़ने लगे कि उसे देख कर भारत की बढ़ती जनसंख्या भी लज्जित हो जाये।
पाठकों की बढ़ती संख्या देख – मन बड़ा पुलकित हुआ। बड़ी ख़ुशी हुई कि हमारी भी रेटिंग्स बढ़ रही हैं। दिन भर हम अपना पन्ना खोले, बढ़ते हुये अंको को निहारते रहे। शाम होते होते कुल 70 लोगों ने हमारी बकवास पढ़ी। अच्छा लगा कि दुनिया में मेरे जैसे कम से कम 70 निठल्ले तो और हैं, जो काम धाम छोड़ कर मेरी बकवास पढ़ने का समय निकालते हैं।
फिर थोड़ी निराशा भी हुई कि एकता कपूर की बकवास तो करोड़ों लोग देखते हैं और मेरी बकवास सिर्फ़ 70 लोगों ने पढ़ी! भविष्य में हिन्दी ब्लागिया जगत की एकता कपूर बनने का विचार अंगड़ाई लेने लगा।
सोचा अगर मैं अपने पन्ने का नाम ‘चौपाल’ से बदल कर ‘कौपाल’ और अपने ब्लाग का नाम ‘पगड़ंडी’ से बदल कर ‘कगड़ंडी’ रख दूँ तो कदाचित भविष्य में मैं भी अपना मानसिक कचरा बेचने में सफल रहूँगा। एक अंक शास्त्री से मिलने का विचार भी मन में आया जो यह राय दे सके कि ‘कौपाल’ को ‘कौआ पाल’ और ‘कगड़ंडी’ को ‘काम मंडी’ लिखने से सफलता की संभावनायें और भी बढ़ सकती हैं।
इन योजनाओं पर शीघ्रता से उसी तरह अमल किया जाएगा जैसे सरकारी बैंकों में ‘त्वरित ड्राफ़्ट सेवा’ का काउंटर काम करता है।
इस बीच किसी हितैषी ने मेरी बीबी को फोन घुमा डाला,” अरे, तुमको पता चला! अनुराग ब्लगोड़ा हो गया है। ‘पगड़ंडी’ पर जा कर देखो।“
बीबी ने लाँग आँन किया और मेरी बकवास पढ़ी। बेचारी चक्कर खाकर गिरते गिरते बची।
शाम को घर में घुसते ही बीबीजी ठंडे पानी का गिलास लेकर तुरंत आ पहुंची, मानो कि बस मेरा ही इंतज़ार हो रहा हो। मैं उनके यह ‘केयरिंग’ तेवर देख कर थोड़ा घबरा गया और उनके माथे पर हाथ रख कर उनकी तबियत चेक करने वाला था कि उन्होंने वाक वाण बरसाने शुरू किये;
“आँफ़िस में मन तो लग रहा है ना?”
“हाँ”
“बाँस से कोई कहा सुनी तो नहीं हुई?”
“नहीं तो।“
“मुझसे ख़ुश तो हो ना?”
अब ये तो गुगली निकली। मैं ने तुरंत बैक फ़ुट पर जा कर सुरक्षात्मक पोजीशन ली।
“हाँ हाँ बिलकुल! ऐसे क्यों पूछ रही हो?”
“आँफ़िस में कोई नई सेक्रेटरी आई है क्या?”
ये तो बाउन्सर थी, सर पर हेलमेट भी चढ़ा लिया।
“नहीं!”
“तो क्या और कोई है?”
“मतलब?”
“मतलब कि मुझसे उकता गये हो क्या? कहीं कोई दूसरा चक्कर तो नहीं चल रहा है?”
अब ये कैसी बाँल थी? मन में तो आया कि बल्ला उठा कर मैदान से सटक लूं, पर 50 ओवर हुये नहीं थे इसलिये मन मार कर क्रीज़ में खड़े रहना पड़ा।
“कैसी बातें कर रही हो? तुमको छोड़ कर और किसी को देखा भी नहीं कभी।“
उनको थोड़ी ढ़ाढ़स हुई। भर्राए गले से पूछीं,
“तो फ़िर ब्लगोड़े क्यों बन बैठे हो? देखो, यह सब क्या ऊल जलूल लिखते रहते हो? अपनी चिता फूंक रहा हूँ, गिरगिट मार रहा हूँ, माँ का अचार सड़ रहा है! क्या है यह सब?”
उनके कहने का अंदाज़ कुछ ऐसा था कि मानो ब्लगोड़ी ‘अल कायदा’ के सदस्य होते हों।
“यह तो विचारों की अभिव्यक्ति है।“
थोड़ी देर तक मुझे दया भाव से देखती रहीं, फिर बोलीं, ”दीपावली पर इंडिया चलते हैं।“
“आंयें, अचानक…!”
“हाँ, थोड़ी आब-ओ-हवा बदल जयेगी और तुम टंडन अंकल से भी मिल लेना।“
“टंडन अंकल……?”
“पापा के दोस्त हैं। कुछ दिन पहले ‘नूर मंज़िल’ ज्वाइन किया है!”
“नूर मंज़िल (लखनऊ के मानसिक चिकित्सालय का नाम)!? तुमको लगता है कि मैं ठनक गया हूँ?”
उन्हें लगा होगा कि ठनके को ठनका कहने से मामला और बिगड़ सकता है, इसलिये मामला संभालती हुई बोलीं,” ऐसा मैं ने कब कहा? और भी कोई वजह हो सकती है। जैसे, तुमने यकायक सिगरेट पीना भी छोड़ दिया है - उसके विथड्राल सिम्टम्स भी हो सकते हैं। दिन में एक आधी सिगरेट फूंक लिया करो दिमाग फ़्रेश रहेगा और डिप्रेशन भी ना होगा। अच्छा अभी तुम खाना-वाना खा कर सो जाओ बाद में बात करेंगे।“
अस्थायी रूप से समस्या कुछ देर के लिये तो टल गयी, लेकिन मेरे निकम्मे और ब्लगोड़े हो जाने की शर्मिंदगी बीबीजी को जल्द ही पुन: विचलित करेगी।
आज सुबह एक और चमत्कार - आफिस के लिये निकल रहा था कि बीबीजी आयीं और मुझे "मार्लबोरो लाइट्स" का एक पैकेट पकड़ाते हुए बोलीं,"लो, फ़िर से शुरू कर दो, फ़्रेश रहोगे - और यह लत ब्लागिंग की लत से कम नुकसान देह है!"
अनुराग श्रीवास्तव 05 अक्टूबर 2006
11 टिप्पणियां:
बहुते सही फंसे हो, अब निकलना तो मुश्किल होगा. वैसे प्रयास बुरा नहीं है, कोशिश करो मार्लबोरो लाईट, और कुछ फायदा लगे, तो बताना.
हम भी फिर से शुरु कर देंगे. :)
लिखे बढ़ियां हैं.
...‘कौपाल’ और अपने ब्लाग का नाम ‘पगड़ंडी’ से बदल कर ‘कगड़ंडी’ रख दूँ तो कदाचित भविष्य में मैं भी अपना मानसिक कचरा बेचने में सफल रहूँगा। ...
ये विचार वाकई उम्दा है.
ट्राई जरूर मारिए. वैसे एक और सुझाव है चौपाल का हिज्जा बदल कर देखिए. चौ~पाल या चोपॉल या चऊपाल शायद न्यूमरोलॉजी के हिसाब से काम बन जाए :)
नूर मंजिल
सही है गुरू। मौज आ गई कसम से।
वाह वाह !
मजा आ गया ! लगे रहो अनुराग भाई
बहुत अच्छे । रेटिंग तो ऐसे ही बढ गई । कौन सा उपाय किया ये रहस्य अब खोला जाय ।
हमें आपसे सहानुभूति है
:)
कमाल कर दिया अनुराग ! बहुत सधा हुआ व्यंग्य लेख है . बधाई स्वीकारो .
ब्लोगेंग एक मानसिक बिमारी हैं जो घर में अशांति रहने से पनपती हैं. समीरलालजी से वेरीफाई करले. :)
काहे इस चक्कर में पड़े हो भाई, समय रहते निकल लो, फिर चाह कर भी नहीं निकल पाओगे.
यह नशा सिगरेट से भी काफी ऊँचा नशा हैं.
और अंतमें हम निठल्ले नहीं हैं इस लिए आपका चिट्ठा पढ़ने नहीं आए थे, इसे नोट कर ले.
बड़ा मजा आया
किसी ने ठीक ही कहा है कि ये बीमारी खानदानी है. बड़े भैय्या पगला के ये सब लिखते हैं lakhnawi.blogspot.com और छुटके भैय्या के रंग तो यहाँ दिखाई ही दे रहे हैं. भाभी को भी पढ़ाया - प्रतिक्रिया का इंतजार है.
स्वागत है जी, जहाँ इतने निठल्ले हैं, आप भी आ जाओ और क्या। ब्लॉगर(ब्लॉगस्पॉट) भईया हैं ना संभालने को।
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