सारी उम्र हमने अपनी ‘रचनायें’ तमाम पत्र – पत्रिकाओं में छपवाने की मंशा से भेजीं लेकिन हर बार यह पर्ची हाथ लगी – “संपादक के अभिवादन परंतु खेद सहित”। हमारे पास इन पर्चियों का एक बेहतरीन कलेक्शन हो गया। भारत का कोई ऐसा पत्र या पत्रिका नहीं थी जिसने हमें यह पर्ची ना भेजी हो। कुछ ही वर्षों में हम इतने नामी गिरामी हो गये कि तमाम संपादक गण तो हमारा हस्त लेख भी पहचानने लगे और फिर लिफाफा खोलने की भी ज़हमत नहीं करते थे, इधर हमारी डाक पंहुची और उधर उन्होंने अगली ही डाक से हमारी ‘रचना’ बिना पढ़े और हमारा लिफाफा बिना खोले सट्ट से हमें वापस भेजा।
यहां हम फाटक पकड़े खड़े हैं कि डाकिया बाबू आकर कोई शुभ समाचार देंगे उधर डाकिया बाबू आकर हमारी ही चिठ्ठी हमें धरा गये। यकीन मानिये बहुत फील हो जाता था। हमारे अंदर भवनाओं का सागर लहरा रहा था और हम एक से बढ कर एक रोमांटिक कविता लिख रहे थे और ये ससुरे संपादक थे कि छापते ही नहीं थे। इससे पहले कि मैं अपनी cयथा-कथा आगे बढ़ाऊं आप खुद ही मेरी एक अद्वितीय कविता का आनंद लीजिये, और खुद की देखिये कि हम भी कैसे श्रेष्ठ कवि हैं;
प्रिये मैं तुमको प्रेम करता हूं
प्रिये मैं तेरी सांसो में रहता हूं
प्रिये स्वप्न में तेरे दर्शन कर लिये
तुझे आलिंगन में भर चुंबन लिये
तेरे बच्चे जियें
बडे हो कर तेरा खून पियें।
(ऊप्स! यह अंतिम दो पंक्तियां गलती से यहां आ गयी हैं, इनका इस कविता से कोई लेना देना नहीं है। यह पंक्तियां उन मरदूद संपादकों के लिये लिखी गयी थीं जो मेरी विश्वस्तरीय रचनाओं को छापने से इंकार करते रहते थे।)
तो क्या कहना है आपका? श्रंगार रस की चासनी में डूबी मेरी यह रचना है ना दिल को छू लेने वाली! वैसे यह मेरी श्रेष्ठतम रचना है, बाकी की रचनायें भी एक-एक करके अपने ब्लाग पर डालूंगा ताकि आप लोग भी खूब ‘इन्जाय’ कर सकें।
जब मेरी सुंदर रचनायें नहीं छपीं तो मुझे लगा कि ज़रूर कोई गड़बड़ है, मैं ने कार्य सिद्ध करने का एक पारम्परिक तरीका अपनाया। एक प्रतिष्ठित पत्रिका के संपादक को मैं ने cयक्तिगत पत्र लिख कर कहा कि ‘माननीय महोदय, यदि आप मेरी रचना अपनी पत्रिका में छापते हैं तो मुझे जो भी पारिश्रमिक मिलेगा उसका आधा मैं आपको भेंट चढ़ा दूंगा।‘ फिर भी जब कोई जवाब नहीं आया तो मैं ने आफ़र और बढ़ाते हुये कहा कि भैया पूरा ही पारिश्रमिक धर लो लेकिन कम से कम मेरी रचना तो छापो। ऐसा बद्तमीज़ संपादक था कि छापना तो दूर उसने हमारे पत्र का जवाब तक नहीं दिया। बताइये कर्टसी नाम की कोई चीज ही नहीं रही। नामाकूल!
हमें इससे थोड़ी पीड़ा तो ज़रूर हुयी लेकिन हमने हिम्मत नहीं हारी। देखिये, हम पक्के हिन्दुस्तानी हैं और अपने देश की परंपरा से पूरी तरह वाकिफ़ भी हैं। बुरा मत मानियेगा, लेकिन हमारे देश में प्रतिभा का आंकलन करने वालों की बहुत भयंकर कमी है। सही कह रहा हूं कि नहीं? टैलेन्ट की कोई कद्र ही नहीं है। साहिर साहब भी कह गये हैं ‘ये बस्ती है मुर्दा परस्तों की बस्ती’। हम भी साहिर साहब की बातों से सहमत हो गये।
हमने किस्मत को भी बहुत कोंसा। यही अगर हम अमरीका में पैदा हुये होते, तो किसी फेमस बैंण्ड के लिये गीत लिख रहे होते। अगर किसी हार्ड राक बैंण्ड में शामिल गये होते तो काम और भी आसान हो जाता, गाना – वाना तो लिखना नहीं होता है बस पंद्रह बीस चुनिंदा गालियां लिखते और बन जाते गीत कार। पूर्वजन्म के पापों का फल है कि ‘यहां’ पैदा हो गये जहां कोई भी हमारी प्रतिभा को नहीं पहचानता है।
आप भी हमारी हिम्मत की दाद दीजिये हम हताश नहीं हुये। ‘नर हो ना निराश करो मन को’ का नारा लगाते हुये मुन्ना भाई की तरह लगे रहे। अपनी लेखनी की स्याही को कभी सूखने नहीं दिया – घसा-घस कागज पर घिसते रहे भका-भक एक के बाद एक बेहतरीन से बेहतरीन कवितायें लिखते रहे। कविता रस तो मुहासों से भी तेजी से फूट रहा था और हम भी जमे रहे, एक ही दिन में कभी बीस तो कभी पचास कविता लिख देते। मैक्सिमम रिकार्ड है एक ही दिन में 67 कविता लिखने का। हमें मालुम था कि जब हम आपको यह बताएंगे तो आप सभी ज्ञानी आत्मायें दाँतों तले उंगली दबा कर भौंचक्के रह जायेंगे। अब, आप लोग शर्मिंदा मत होइये हमारे जैसा ‘गिफ़्टेड’ इंसान हर एक नहीं हो सकता है ना! अपने अंदर हीन भावना मत आने दीजिये। प्लीज़ हाँ!
ज़माने ने भले ही हमें हज़ार ठोकरें मारी हों, लेकिन हमारे मित्रों ने कभी भी हमें हताश नहीं होने दिया। शाम को हम सब मित्र लल्लन की चाय की दुकान पर मिलते थे और वहीं मैं अपनी दिन भर की रचनायें अपने मित्रों को बांचता । सब बड़ा ध्यान लगा कर सुनते और मेरी कल्पनाओं की दाद देते। अरे, लल्लन तक हमारा कायल हो गया, हमारी कविता सुन कर हमें मुफ़्त में ही चाय देने लगा। आपने वह गज़ल तो सुनी होगी,
“तेरे जहान में ऐसा नहीं के प्यार ना हो
जहां उम्मीद हो इसकी वहां नहीं मिलता”
हमारे साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा था, लल्लनवा तक हमारी कविता समझता और तारीफ़ करता और वो मुये संपादक हमारी कद्र ना कर सहे। ससुरे जरूर घूस दे कर या राजनीतिक दबाव डलवा कर संपादक बने होंगे। अरे यहीं तो धोखा खा गया इंडिया! खुदा मेहरबान तो गधा पहलवान – जुगाड़ी लोग ऊंचे आसन पर और हम जैसे प्रतिभावान पैरों तले।
इन्हीं बैठकों में मैने एक कविता सुनाई थी जो मेरे मित्रों को (और लल्लन को भी) बहुत पसंद आई थी। आगे चलने से पहले आप भी सुन लीजिये, अरे प्लीज कह रहा हूं सुनिये ना;
प्रिये…
तेरी जुल्फों में सुबह करूं शाम करूं
हसरतों को तेरे इश्क का ग़ुलाम करूं
लोग पत्थर का ताज दिया करते हैं
मैं तो ज़िंदगी ही तेरे नाम करूं
अरे पूछिये मत! शेर सुनते ही लोग बावले हो उठे – सबने बारी बारी हमें गले लगाया, राजिन्दर ने तुरंत बेनी लाल हलवाई की दुकान से पाव भर इमरती मंगवा कर सबका मुंह मीठा करवाया और लल्लन ने अपने गल्ले से सवा रुपया निकाल कर हमारे हाथ पर रखा और अंगौछे से अपनी डबडबाती आखों को पोछते हुये कहा, “ ई हमरी ओर से सगुन रख ल्यो, एक दिन बहुतै बड़े कवि बनिहौ, सूरदास अउर तुलसीदास कै माफिक।“
वैसे तो लल्लन भैया की बात बुरी लगी, अरे कहां हम और कहां ये मामूली पुराने जमाने के कवि कोई कम्पारिज़न है भला;
वैसे तो लिखते थे कविता तुलसी-सूर व काली दास
जब हमने थामी हाथ कलम, वो लगे छीलने घास
खैर इन्ही बैठकों में एक दिन हमारे मित्र राजू ने हमसे कहा, “ गुरू बिना इश्क लड़ाये और बिना दिल पर चोट खाये इतनी धांसू कविता लिख लेते हो, अगर तुमको इश्क हो जाये या दिल पर चोट लगे तो यार तुम्हारी कविता की दाल में हींग और लहसुन का छौंका लग जायेगा। गुरू इश्क लड़ा लो!”
राजू की बात में दम तो था, लेकिन इश्क की फील्ड में हमने अभी तक बैटिंग करी नहीं थी सो हम सकपका गये। उसी से पूछ लिया, “ यार मन तो बहुत है, लेकिन कोई राह नहीं सूझ रही है, तुम ही कोई राह बताओ…।“
“ओम्में कौन सी बड़ी बात है, कल सुबह साढ़े आठ बजे तैयार रहना, हम ले चलेंगे तुमको…”
राजू इतना क्विक इंतजाम कर दिये तो हमें बहुत शक हुआ और हमने साफ़ साफ़ कह दिया, “देखो भाई राजू, हमको कोई ऐसा-वैसा मत समझो! हम दिल पर चोट खाने के लिये कोई जोहरा बाई या चंद्रमुखी के कोठे पर नहीं जायेंगे, हमें लूज करक्टर आदमी मत समझिये आप - हाँ नहीं तो!”
“अरे काहे परेशान हो रहे हो यार, हमें मालूम है आपके चरित्र के विषय में – आपको चंद्रमुखी नहीं पारो से ही मिलवायेंगे, फिर आगे आपकी मर्ज़ी।“
इश्क करने और दिल तुड़वाने का ऐसा एक्साइटमेंट हुआ कि रात भर सो ना सके, सुबह छ: बजे बिस्तर से उठे स्नान किया, सर में बढ़िया खुश्बूदार ‘केयो कार्पिन’ का तेल मला (वैसे आम तौर पर हम सरसों का तेल लगाते हैं पर खास मौकों पर यह मंहगा वाला तेल लगाते हैं) बढ़िया से बाल सेट किये, साफ़ सफ़ेद पतलून पहनी और छींट वाली रेशमी बैगनी शर्ट पहन कर राजू का वेट करने लगे।
राजू ठीक समय पर आ गये और बाहर से ही कलेजा फाड़ फाड़ कर बुलाने लगे। हमने धप्प से साइकिल निकाली, आंख पर गागल (धूप का चश्मा) पहना और चल पडे राजू के साथ। रास्ते में राजू ने बताया कि हम “जी जी आई सी” यानि गारमेन्ट (कुछ लोग गवर्नमेन्ट या सरकारी भी कहते हैं) गर्ल्स इंटर कालेज, जा रहे हैं।“
वहां पहुंच हमने साइकिल स्टैंड पर चढ़ाई और आती जाती बालिकाओं को निहारने लगे, सोचते हुये कि इनमें से वह कौन सी भाग्यशाली बालिका होगी जो इस कवि की प्रेरणा बनेगी। नज़र घुमा कर देखा तो केवल हम और राजू ही नहीं थे लगता था शहर के सारे युवक वहां अपनी अपनी प्रेरणा की लालसा में वहां आये हुये थे।
कई दिनों तक हम स्कूल लगने और छूटने के समय बिना-नागा गारमेंट कालेज के सामने हाजिरी लगाते रहे, हमें तो हर लड़की से इश्क हो गया पर दूसरी ओर से किसी लड़की का कोई सकारात्मक रिस्पांस नहीं आया। फिर एक दिन दो बालिकाओं ने हमारी ओर देखा और फिर आपस में कुछ कह कर खिलखिलाने लगीं।
राजू ने भी देखा, भाग कर पास आकर बोला,” गुरू मुबारक हो, मेहनत रंग लायी्। वो लम्बी वाली तुम्हें देख कर हंसी – और जो हंसी वो फंसी। आखिर तुमने लड़की फंसा ही ली।“
बड़ी गुस्सा आई, मैं ने डांटते हुये कहा, “ कैसे सस्ते शब्दों और ओछी भावनाओं का प्रदर्शन कर रहे हो!! फंसी नहीं मेरे भाई, उसे मुझसे प्रेम हो गया है – पवित्र, पावन प्रेम – इश्क।“
उस रात मेरे भीतर कविता का रस ऐसा फूटा कि लगा कि इसके प्रवाह में पूरी सृष्टि कहीं बह ना जाये, आप भी सुन लीजिये, अरे प्लीज कह रहा हूं सुनिये ना;
प्रिये……
ऐ प्रिये……
तेरी किलकारियां दिल में समा गयी
मुझ वाइज़ को काफ़िर बना गयी
रात दिन इबादत किया मैं करता था
इश्क की मय मुझे पिला गयी
अगले दिन हमने हिम्मत करी और लम्बी वाली लड़की के पास जाकर बोल दिये, “एसकूज मी, आई लव यू!” बोलने की देर भर थी कि एक झन्नाटे दार थप्पड़ सीधा मेरे गाल पर – तड़ाक! और फिर ये शब्द, “ अबे मजनू के भतीजे, पापा से कह कर दोनो हाथ कटवा दूंगी ना खाने लायक रहोगे ना धोने लायक – बड़े आये हैं लव यू।“ लम्बी वाली लड़की पलट कर चल भी दी और हम वहीं खड़े के खड़े रह गये गाल पर हाथ धरे हुये। बड़ी ज़िल्लत हुयी बीच सड़क पर तमाचा खा गये। कनखिया के इधर-उधर देखा तो राजू भाई नीम के पेड़ के पीछे दुबक कर छिपे हुये थे। बाकी के आशिक , जो मेरी तरह दैनिक हाजिरी लगाने वहां आया करते थे, अपनी साइकिल पर भका-भक पैडल मारते हुये भागे जा रहे थे।
“यार बड़ी बद्तमीज़ लडकी है!” राजू पेड़ के पीछे से आते हुये बोले।
“नहीं राजू मुझे कोई ग़म नहीं है! देखो मैं ने एक ही दिन में इश्क भी कर लिया, दिल पर चोट भी खा ली और बेवफ़ाई भी देख ली! अब देखो कविता में तड़के का असर!”
उस रात मैन ने यह कविता लिखी आप भी सुन लीजिये, अरे फिर से प्लीज कह रहा हूं भाई सुनिये ना;
ओ वेवफ़ा
शीशा हो या दिल हो टूट जाता है
अच्छा सिला दिया तूने मेरे प्यार का
पत्थर के सनम जा तुझे माफ़ किया
कैसी लगी? है ना कविता में गहराई!
इन सब के साथ साथ मेरा “संपादक के अभिवादन परंतु खेद सहित” वाली पर्चियां इकट्ठा करने वाली दिनचर्या पहले ही तरह ही चल रही थी। मन में एक विचार आया सोचा क्यों ना अपने इस कलेक्शन से ही ख्याति प्राप्त करी जाये। लप-झप करके तुरंत “लिमका बुक” और “गीनिज़ बुक” को अपनी नायाब उपलब्धि के बारे में बताया, उन्होंने अपने प्रतिनिधि भेजे। हमारे कलेक्शन की गिनती हुई और फिर वो भी ये थमा कर चलते बने “अभिवादन परंतु खेद सहित” जाते जाते कह गये, “ आप तो टाप 100 में भी नहीं आते – बिना वजह हमारा समय खराब किया।“
ज़माने से हमारी जंग और हमारा संघर्ष ऐसे ही चल रहा था कि एक दिन राजू देव रूप धर हमारे सामने प्रकट हुये,” गुरू ये संपादकों को मारो गोली, अपनी कविता खुद क्यों नहीं छाप देते।“
“खुद!? कैसे भैया?”
“ब्लाग पर”
“मतलब?”
“मतलब अपना ब्लाग बनाओ, तुम ही लेखक, तुम ही संपादक और तुम ही प्रकाशक। इंटरनेट पर सारी दुनिया पढ़ेगी – विदेशों में भी लोग पढ़ सकेंगे।“
“विदेशी भी हिन्दी पढ़ते हैं?”
“विदेशी नहीं, अपने देशी जो वहां जाकर बस गये हैं ना, वो पढ़ते हैं। अब क्या करें बेचारे विदेश में उनको बहुत आइडेन्टिटी क्राइसिस हो जाती है तो काले-गोरों के देश में भूरे देशी अपनी पहचान बनाये रखने के लिये बहुत कुछ करते रहते हैं, हिन्दी पढ़ते-लिखते हैं, कुर्ता धोती पहनते हैं, विदेश में ‘थम्स अप’ और ‘किसान टोमाटो सास’ ढूंढते हैं…। भारत माता के प्रति उनका प्रेम और बढ़ जाता है। जब यहां रहते थे तो ‘फारेन – फारेन’ गाते थे और अब वहां पर दिन रात देश का नाम लेकर रोते रहते हैं – मेरा गांव मेरा देश। बेचारे ना घर के रहे ना घाट के।“
“यार ये ब्लाग तो बढ़िया चीज़ बता दिये हो, नेक काम में देर नहीं करनी चाहिये, मैं तुरंत बिस्मिल्ला करता हूं।“
इस प्रकार हम संपादकों के क्रूर हाथों से निकल कर आत्मनिर्भर होने की ठान ली जिससे मैं अपनी अभूतपूर्व प्रतिभा से अद्वितीय हिन्दी साहित्य का सृजन कर हिन्दी भाषा पर उपकार कर सकूं।
मैं जानता हूं इस कवि की संघर्ष गाथा सुन कर आपके हृदय द्रवित हो उठे होंगे तथा आपकी आंखे छलक गयी होगी। पर हर महान और क्रांतिकारी व्यक्ति का जीवन ऐसा ही होता है संघर्ष और चुनौतियों से भरा हुआ। मेरे महान व्यक्तित्व और उपलब्धियों से प्रेरित हो कर आप अपना निराशा भरा जीवन संवार सकें इसलिये मैं शीघ्र ही प्रेरणापूर्ण इस लेख की अगली कड़ी ले कर फिर आऊंगा।
तब तक, संघर्ष करो!
10 टिप्पणियां:
Bahut "enjoy" kiya, Phaemili ke saath!
hahahaha..bahut khub
rachna ati sunder lagi..
आपने तो हम सबके चिट्ठा लिखने का सिक्रेट ही ओपन कर दिया. अब तक यही कहते रहे बस यूँ ही लिखते है. सच में तो हम नासमझ सम्पादको के सताए हुए है.
हम आपके संधर्ष में शामिल है.
वैसे इतना अच्छा लिखते हो तो छपवाते क्यों नहीं?
लगे रहो अनुरागभाई
मरीनेरो, राजेश गुप्ताजी, आशीष भाई और संजय भाई आप सबको बहुत सारा थैंक यू!
संजय आप क्यों जले पर नमक लगा रहे हैं यदि छपवा सकते तो इतनी बड़ी गाथा कैसे बनती।
कोई जुगाड़ हो तो बताइये (आधा पारिश्रमिक आपको भेंट कर देगे - अच्छा चलिये पूरा ही रख लीजियेगा!)। :-)
very nice and entertaining. congrats
अनुराग जी, वाह, लेख पढ़ कर एक कविता मन में आई है, सुनिये नः
आप ने कविता की कुछ पँक्तियों में दर्दे जिगर यूँ खोल दिया,
जैसे बिजली वाला गलती से एक तार खुला छोड़ गया हो
प्लीज, ढक दीजिये इसको, वरना सारा जग बिजली के झटके से न मर जाये!
वाह भाई अनुराग जी
आंखें भर आईं आपकी गाथा सुनकर. अब पोंछने को हाथ भी खाली न था क्योंकि ऊंगलियां तो दोनों हाथों की दांतों तले दबी थी:
आप सभी ज्ञानी आत्मायें दाँतों तले उंगली दबा कर भौंचक्के रह जायेंगे। अब, आप लोग शर्मिंदा मत होइये हमारे जैसा ‘गिफ़्टेड’ इंसान हर एक नहीं हो सकता है ना! अपने अंदर हीन भावना मत आने दीजिये। प्लीज़ हाँ!
इसी बहाने हमने अपने आपको ज्ञानी भी मान लिया.
बहुत बढ़ियां लिखा है. बधाई, लिखते रहें.
:)
रत्ना जी - आपको पसंद आयी, मेरी मेहनत सफ़ल.
सुनील आपके भीतर भी मेरे जैसा कवि अंगड़ायी ले रहा है.
समीर जी आपकी उड़नतश्तरी मेरे आंगन में लैण्ड करी मन खुश हुआ. आइंदा भी आते रहिये.
भविष्य में भी ऐसे ही बोर करता रहूंगा यह पक्का वादा है!
"मैं जानता हूं इस कवि की संघर्ष गाथा सुन कर आपके हृदय द्रवित हो उठे होंगे तथा आपकी आंखे छलक गयी होगी।"
बिल्कुल गलत जी, हँस-हँस कर पेट में बल पड़ गए। सच कहता हूँ इतनी मजेदार पोस्टें कभी-कभी ही पढ़ने को मिलती हैं। इस पोस्ट को हम 'डिलीशियस' महाशय के पास भेज दिए हैं।
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